मुंबई। केरल के तटवर्ती इलाके बेपोर में पानी का लग्जरी जहाज धो बनानेवाले हाथ मलते रह गए जब कतर के खरीदारों ने 8 धो के ऑर्डर्स अचानक कैंसल कर दिए। अगर ये धो बिक जाते तो उन्हें हरेक धो के लिए 6 से 9 करोड़ रुपये मिलते। दरअसल, साल 2010 में कतर ने 2022 फीफा वर्ल्ड कप के लिए सफल बोली लगाई। वहां की सरकार ने फैसला किया कि मेहमानों को लग्जरी नौकाओं पर ही रखा जाएगा। लेकिन, अब ये ऑर्डर्स कैंसल हो चुके हैं।
खाड़ी देशों की घटी आमदनी का भारत पर असर
बेपोर में परंपरागत रूप से लकड़ी की ये भव्य नौकाएं बनाई जाती रही हैं। बोपोर का बरमी शिप बिल्डर्स साल 1954 में अपनी स्थापना के बाद से अब तक यूनाइटेड अरब अमीरात, कुवैत, ओमान और कतर के ग्राहकों के लिए 110 धो बना चुका है। लेकिन पिछले कुछ सालों से उसे बहुत कम ऑर्डर्स मिल रहे हैं। इसकी वजह खाड़ी देशों के अमीरों की संपत्ति में आ रही गिरावट है।
दरअसल, कच्चे तेल की कीमत में बड़ी गिरावट और प्रशांत महासागर से सटे खाड़ी देशों में भू-राजनैतिक तनाव की वजह से पूरे अरब सागर में उथल-पुथल का माहौल है। खाड़ी देशों में रोजगार की तलाश में जानेवाले भारतीयों पर इसका गहरा असर पड़ रहा है। घटती आमदनी और रोजगार में कटौती की वजह से भारत को गल्फ कॉपरेशन काउंसिल (जीसीसी) से मिलनेवाले धन में भी बड़ी गिरावट दर्ज की जा रही है। जीसीसी में बहरीन, कुवैत, यूएई, कतर और सऊदी अरब शामिल हैं।
वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर से धन प्राप्त करने में सबसे आगे रहनेवाले भारत को पिछले साल के मुकाबेल 2016 में विदेशों में अपने नागरिकों से 9 प्रतिशत कम धन प्राप्त हुआ और यह रकम घटकर 62.7 बिलियन डॉलर (करीब 4 लाख 5 हजार करोड़ रुपये) रह गई।
भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण है विदेशों से प्राप्त धन?
अगर भारत की जीडीपी में विदेशों से प्राप्त धन का औसत देखेंगे तो यह बहुत मायने नहीं रखता है। भारत की जीडीपी में इनवार्ड रिमिटंस (भारत में विदेश से आनेवाला धन) का योगदान महज 3 प्रतिशत का है। लेकिन देश के अंदर कुछ इलाकों की अर्थव्यवस्था में इसका बहुत बड़ा योगदान है। केरल को ही ले लें। इसे खाड़ी देशों से मिलनेवाला धन का बड़ा हिस्सा प्राप्त होता है और आंकड़ा राज्य की जीडीपी के 36 प्रतिशत से भी ज्यादा तक पहुंच जाता है। साथ ही पारिवारिक खर्चों में इसका बड़ा योगदान है।
यूपी-बिहार के श्रमिकों की मुश्किल
बात यहीं तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा से लोग आजीविका के लिए केरल, तमिलनाडु, पंजाब और कर्नाटक जैसे उच्च विस्थापन दर वाले राज्यों में आते हैं। स्पष्ट है कि अगर केरल, तमिलनाडु, पंजाब और कर्नाटक जैसे राज्यों के विदेश गए नागरिक वहां से अपने घरों में पैसे कम भेजेंगे तो उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के उन लोगों को रोजगार पर इसका सीधा असर पड़ेगा जो इन राज्यों का रुख करते हैं।
इंडिया रेटिंग्स के प्रमुख अर्थशास्त्री देवेंद्र पंत कहते हैं, अगर खाड़ी देशों ने हमारा नागरिकों को वापस भेजना शुरू कर दिया तो हम मुश्किल में फंस जाएंगे। बेरोजगारी दर बढ़ जाएगी। कम विस्थापन वाले राज्यों के लोग जो केरल जैसे राज्यों में रोजगार की तलाश में जाते हैं, उन्हें आर्थिक झटका लगेगा।
निर्भरता का मामला
विदेश मंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक, करीब 85 लाख भारतीय जीसीसी देशों में काम करते हैं। 2017 के पहले 7 महीनों में 2.77 लाख भारतीय रोजगार की तलाश में खाड़ी देश गए। संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने सबसे ज्यादा 1.10 लाख भारतीयों को रोजगार मुहैया कराया। उसके बाद सऊदी अरब (59,911), ओमान (42,095), कुवैत (40,010) और बहरीन (7,591) का नंबर आता है।
खाड़ी देशों की विस्थापितों की सूची में उत्तर प्रदेश 62,438 लोगों के साथ पहले स्थान पर है जबकि उसके ठीक पीछे बिहार (50,247), पश्चिम बंगाल (25,819) और तमिलनाडु (24,003) हैं। पिछले कुछ सालों में केरल से खाड़ी देश जानेवालों की तादाद तेजी से घटी है।
खाड़ी देशों में ये छीन रहे भारतीयों की नौकरी
अब खाड़ी देशों में भारतीयों की जगह दूसरे देशों के नागरिकों को तरजीह दी जा रही है। इनमें प्रमुख रूप से वियतनाम, फिलिपींस, बांग्लादेश, नेपाल और श्री लंका के लोग शामिल हैं। जीसीसी के देशों में जानेवाले ज्यादातर भारतीय अर्ध-कुशल या कुशल श्रमिक होते हैं। विदेश जानेवाला करीब 30 प्रतिशत इंडियन वर्कफोर्स सर्विसेज या आईटी सेक्टर्स में ऊंचे पदों पर काबिज होता है।
जिस कच्चे तेल का दम साल 2012 में प्रति बैरल 110 डॉलर था, वह 2016 की शुरुआत में 56 डॉलर प्रति बैरल तक आ गिरा। इसका सबसे बड़ा झटका सऊदी अरब और कतर को लगा। एक थिंक टैंक गेटवे हाउस में एनर्जी ऐंड इन्वाइरनमेंट स्टडीज के फेलो अमित भंडारी कहते हैं, चूंकि जीसीसी की इकॉनमीज बड़े पैमाने पर तेल पर निर्भर है। ऐसे में तेल की कम कीमत का मतलब है कि उन्हें कम आमदनी होगी। अगर तेल के दाम 100 डॉलर प्रति डॉलर तक नहीं पहुंचे तो विदेशों से आनेवाले धन में बढ़ोतरी संभव नहीं है और अगले कुछ सालों में तेल के दाम बढऩे के आसार नहीं दिख रहे।