प्रेम-प्रतीक्षा

डॉ. अमय त्रिपाठी ( असिस्टेंट एडिटर-आई सी एन ग्रुप )
ये जागती रजनी क्यों व्याकुल है,
क्या ये भी विरह की मारी है,
क्या याद इसे भी आती है,
क्या ये भी एक बेचारी है,
क्या  इसका ह्रदय भी जालता है,
यादों पर अंगारा  पलता  है,
नैनो मे एक चिंगारी है,
ये किसकी यादों का पानी है,
ये दूरी तो बेमानी है,
कुछ प़ल  को रुकी कहानी है,
प्रेम मे ह्रदय  आकुल है,
ये जागती  रजनी क्यों व्याकुल है.
 
बुद्धि शुन्य ,निस्तेज गगन है,
प्रिये– आलिंगन मे मौन मगन है,
अमित स्निग्ध निर्धूम सी काया
स्मरण किया और सन्मुख पाया,
विरह से उपजा कैसा भय  है,
जिन नैनो से बंधा प्रणय है,
जीवन शक्ति और आत्मज्ञान से
स्तिथ है वो अन्तर्प्रान  मे ..
वो सिमटीअलसाई कलिका  सी
सुमन –लता– गिरी –मल्लिका सी,
प्राण सिन्धु का अदृश्य किनारा
प्राणवत्सला,नेह की धारा.
उस बिन सर्वस्य भी  धूल है,
ये जागती रजनी क्यों  व्याकुल है.
 
नहीं स्थूल यह  प्रेम , सघन  है,
नहीं व्यापारिक ये अभिनन्दन है,
मनु को पूर्ण बनाने को,
देवत्व उसे पहुंचाने को ,
जैसे शतरूपा उत्पन्न  हुयी,
मनु के वाम मे स्तिथ हुयी,
मिलन ये भी उस सधृश्य है,
ये शिवशक्ति के सामान ही दृश्य है,
नूतन धामों को जाने को,
आत्मा को प्रबल बनाने को,
पुरुष आधी ही शक्ति है,
आधी ही उसमे भक्ति है,
नारी उसे पूर्ण करे,
उसकी कमियों को दूर करे.
पुरुष का  पौरुष जगाती है,
इसीलिए शिव– पत्नी “शक्ति” कहलाती हैं,
प्राण जब धरती पर आते हैं,
दो भागो  मे वे बट जातें है,
एक पुरुष ह्रदय कहलाता है,
एक स्त्री उदर मे जाता है,
दो चुम्बक जैसे आकर्षित हो,
एक रूप हो जाने को,
वैसे ही आत्मा खीचे अपने ,
निज भाग को पाने को.
छु जाती है जैसे मृतक को संजीवन,
वैसे पुलकित हो जाता है,
खोये हिस्से को पाकर मन,
प्राण पवन बह चलती है,
आत्मा मे आत्मा घुलती है,
पूर्ण युगल हो जाता है,
संपूर्ण ब्रह्म बन जाता है,
परब्रह्म मे लीन होने  को,
परमात्मा मे खोने को,
अंतिम यात्रा मे जाने को,
उद्देश्य जन्म का सफल बनाने को,
प्रस्तुत जीव हो जाता है,
मोक्ष द्वार पर जाता है.
इसे प्रेम ही कहते है,
इस निमित्त जीव सब रहते हैं.
इस बिन जीवन  स्थूल है,
ये जागती  रजनी क्यों व्याकुल हैं,
 
प्राण मणि तुम,चक्षु ज्योति तुम,
हृदयगति तुमसिन्धु मोती तुम,
वर्षा बिन सूखे  मरुस्तःल जैसे,
तुम बिन जीवन वंचित ऐसे,
चन्द्रघटारात्रि –सरोवर के पद् सी,
अमावस की निशा मे,पूर्णमासी चन्द्र सी,
हे तरुनीहे जीवन्यामिनी,
हे भद्रे ,हे अन्क्शायानी,
विरह की अग्नि को शांत करो,
प्राणों को छुकर क्लांत करो,
जीवन का यज्ञ अपूर्ण है,
मन व्यतिस्थ ,दुखो  से चूर्ण है.
आत्मा को बल प्रदान करो,
पूर्णता का हमें दान दो.
तुम बिन मन शोकाकुल है,
ये जागती रजनी क्यों व्याकुल है

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