आलोक सिंह ( न्यूज़ एडिटर-आई.सी.एन. ग्रुप )
“आजकल मोहल्ले में क़ासिद नही दिखते
लगता है ख़तों का सिलसिला थम गया है
बेतार संदेसे अब रिश्तों के तार बांधते हैं
और उंगलियों से दिलों को टटोलते हैं
साफगोई जो उस वक़्त ख़तों में दिखती थी
वो अब अहसास ऊपर आते अल्फ़ाज़ों में तलाशते हैं
कितने ही किस्से घर आते क़ासिद से जुड़े थे
उसके न आने से वो किस्से भी अब रूठे से हैं
कितनी दफ़ा ग़म को उस क़ासिद ने भी बांटा था
अब तो ग़म को भी ग़म का सहारा नही है
क़त्ल जो हुआ है क़ासिद का उसी औज़ार से
जिससे तूने खतों को बदला है।।”