मृणालिनी सिंह (छपरा सारण ) बिहार
ज़िन्दगी में कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो देखने से तो साधारण सी लगती है पर आपको अंदर तक झकझोर देती हैं । आज कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ।
आज रामनवमी धूमधाम से पूरे भारत मे मनाई गई । कही झाकियां निकली तो कही सुबह से ही मंदिरो में लंबी कतारें लगी थी । मेरे लिए भी आज का दिन ख़ास था क्योंकि सुबह-सुबह मंदिर जाना था। मंदिर के रास्ते मे सुबह की ताज़ी हवा अलग ही एहसास करा रही थी। मंदिर पहुचने पर देखा कि कुछ औरतें और बच्चिया पूजा करने में मग्न थी लेकिन एक बूढ़ी औरत फटी हुई गंदी सी साड़ी पहने दो छोटे बच्चों के साथ अलग खड़ी थी। उनमे से एक लड़का और एक लड़की थी। देखने से दोनो की उम्र पांच से सात वर्ष की लग रही थी। मैन उस समय उन लोगो पर उतना ध्यान नहीं दिया। पूजा की ज़िम्मेदारी बड़ी माँ पर छोड़ कर मैं मंदिर के आंगन में आ गयी । मंदिर के आंगन में एक तुलसी का पौधा था जो कि अब सुख चुका था फिर भी लोगो ने वहाँ पूजा की थी , इसलिए वहाँ पर प्रसाद के रूप में लड्डू और पूड़ियों के टुकड़े बिखरे थे पर जल चढ़ाने के कारण यह सब गीले हो कर मिट्टी में सने थे। मैं वही पर जा के खड़ी हो गयी ।
तभी वहाँ एक मोटा सा खूँखार सा दिखने वाला कुत्ता आ गया। मैंने डरते हुए उस कुत्ते को भगाने की कोशिश की लेकिन वो वही खड़ा रहा(शायद वो भी मेरी हालत समझ चुका था) और मुझे घूर रहा था। तभी पीछे से एक आवाज़ आयी “भाग-भाग ई हमार बा। पीछे मुड़ के देखा तो वही बूढ़ी औरत थी । उस समय मैं यह नही समझ पायी कि वो किस चीज़ की बात कर रही थी । वह उस तुलसी के पौधे के पास आयी और पूड़ियों के टुकड़े और जो भी वहाँ प्रसाद के रूप में चढ़ाया गया था , उसे अपने आँचल में डालने लगी । मुझे यह देख के आश्चर्य हो रहा था क्योंकि वो प्रसाद गीले थे और उसमे मिट्टी लगी थी। पर अभी और कुछ भी होना बाक़ी था । वही पर एक नीम का भी पेड़ है जहाँ पर लोगो ने टीका कर के, फूल और प्रसाद चढ़ा के पूजा की थी(आज तक समझ नही आया वहाँ कौन से भगवान है)। वह बूढ़ी औरत उन सब जगह से प्रसाद उठा कर अपने आँचल में डाल रही थी तभी वहा पर वो कुत्ता दो और कुत्तों के साथ जाकर प्रसाद खाने लगे ।
उस औरत ने उन कुत्तो को तो देखा पर इस बार उन्हें भगाया नही शायद वह जानती थी कि वो वहाँ से नही भागने वाले। एक तरफ वो तीन कुत्ते तो वही पर वो औरत भी। उस दृश्य को देख कर ऐसा लग रहा था मानो उन सब में कोई प्रतियोगिता चल रही हो कि कौन कितना लेता है। यह सब देख कर मेरे लिए सुबह का वो खुशनुमा माहौल बोझिल हो चुका था। मन मे बस यही चल रहा था कि अगर हम सब कोइ चिप्स भी खाते है और वो अगर नीचे गिर जाए तो हम नही उठाते की वो नीचे का है। हमे बचपन से हमारे बुज़ुर्गों ने भी तो यही सिखाया है कि नीचे का उठाके नही खाते चाहे वो हमारे घर के साफ-सुथरे फर्श पर ही क्यों न गिरा हो। फिर वो औरत तो ख़ुद ही एक बुज़ुर्ग थी और वो प्रसाद तो वो कुत्ते भी वही से था कि खा रहे थे। इस सवाल का जवाब जानते हुए भी मैं अनजान बन रही थी ।तभी वह उठ के मंदिर के अंदर गयी । मैं भी यह देखने मंदिर के अंदर गयी कि क्या वो प्रसाद उन बच्चों को खिलाएगी ।फिर मन मे आया कि नही वो बच्चे ज़रूर इस गंदे से पूड़ी और लड्डू को देख कर नाक-भौंह सिकोरेंगे , आखिर है तो वो बच्चे ही न । अंदर गयी तो देखा बच्चे वहां का प्रसाद बटोर रहे थे ।
यहाँ भी वही गंदगी वाली स्थिति। पर मानो आज की सुबह कुछ एहसास करने के लिए आई हो । अंदर उन बच्चों के चेहरे की चमक(जो पूड़ी और लड्डू देख कर आई थी) देख के मैं और उलझ गयी । वैसी चमक तो मेरे चेहरे पर उस समय भी नही आती जब मैं अपना पसंदीदा आइसक्रीम खाती हूँ । एक -एक कर के मुझे मेरे नख़रे याद आ रहे है । मम्मी मुझे दही नही खानी, बैंगन नही पसंद और न जाने क्या-क्या , जो मैं रोज़ घर पर करती हूँ।
मन कर रहा था कि एक बार उनके घर जाऊ और ये देखु की क्या वो ये सब सचमुच खाएंगे । अगर खाएंगे भी तो क्या उनके चेहरे की वो चमक उसे खाते समय भी रहेगी।
एक बात और अजीब थी उस मंदिर में। इस घटना को सबने देखा पर फिर भी पूजा करते समय किसी ने प्रसाद को साफ़ जगह पर सही ढंग से नही रखा कि उन बच्चों को कुछ तो मिले ढंग का खाने को।
उस समय एहसास इन ग़रीबो की परिस्थिति का। ऐसा नही था कि कभी ये सब सुना नही था या अखबारों में पढ़ा नही था। टीवी पर तस्वीरे भी देखी थी पर एहसास पहली बार हो रहा था। आज उन सब पर दया नही बल्कि खुद पर शर्म आ रही थी। पढ़े-लिखे , सभ्य समाज से होने पर शर्म आ रही थी। क्या फायदा इन सबका कि मैं वहा चुपचाप बस देखती रही ।
खैर आज के इस दिन ने अंदर से झकझोरा तो पर एक सिख भी दे गया । किसी परेशानी समझा गया। अन्न के एक -एक दाने का महत्व बता गया और सबसे ज़रूरी ये एहसास करा गया कि “सच मे भूख लगी हो तो बासी रोटी भी अच्छी लगती है”।