स्वर्ग की खिड़की

तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 
लखनऊ। मैंने सुना है – समय कभी रुकता नहीं है। समय यात्रा करता है – निरंतर और अटूट। शायद आपने भी यह सुना होगा। सब कुछ नश्वर है – मात्र समय चिरंतन है । समय एक ऐसी सड़क है जो मोटी-पतली, ऊँची-नीची, टेढ़ी-मेढ़ी तो हो जाती है लेकिन कभी पीछे नहीं लौटती। समय के वाहन में कोई रिवर्स गियर नहीं होता। यह सब कुछ प्राय: सत्य लगता है । मुझे भी यह सब एक शाश्वत नियम की तरह ही महसूस होता था – एक ऐसा सिद्धांत जिसका कोई अपवाद नहीं । मुझे भी लगता था कि समय की नदी में जो भी एक बार बह गया, वह कभी वापस अपने तट पर नहीं लौटा। संसार के लगभग हर समाज में सदियों से समय की एकतरफा यात्रा की ही अवधारणा स्थापित है।
हम अपने वर्तमान से व्यतीत हो गए समय को नहीं देख सकते – यही हमारे संग्रहीत ज्ञान का सत्य है। हम अपने वर्तमान से आने वाले कल को भी नहीं  देख सकते –वस्तुत: यही हमारे अर्जित अनुभवों का सार है । लेकिन … लेकिन मुझे तो यह सारे स्थापित नियम एक-एक कर चकनाचूर होते दिखाई दिए जब मैंने एक अच्छी पुस्तक पढ़ी और फिर उसी पुस्तक के पृष्ठों पर तैरता हुआ मैं सीधे पुस्तक के लेखक तक जा पहुंचा जिसने बड़े ही आत्मीय भाव से मेरा स्वागत करते हुए अपने काल-खंड के एक-एक चरित्र से मेरा धनिष्ठ परिचय कराया, अपने देशकाल, संस्कृति, भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान, प्रयोग की वस्तुओं, विचारों व सामाजिक मानदण्डों – सभी से मेरी अभिन्न मुलाकात कराई। मैं अपने वर्तमान से बहुत पीछे यात्रा करता हुआ एक बिलकुल अद्भुत समय-खंड में विचरण कर रहा था। उस काल खंड और मेरे वर्तमान कालखंड के मध्य समय की दूरी समाप्त हो गयी थी और उन दोनों के मध्य मात्र एक छोटी सी खिड़की खुली हुई थी और उस खिडकी के इस पार वर्तमान था और खिड़की इस उस पार एक अलग किन्तु सर्वथा अद्भुत समय का टुकड़ा। इस खिड़की का नाम है –किताब अर्थात पुस्तक।
मैं जब ‘मर्चेंट आफ वेनिस’ पुस्तक पढ़ रहा था तो अचानक ही मैं शेक्सपियर के साथ इटली में वेनिस  की खूबसूरत गलियों में अंतोनियो और बैसेनियों के साथ चहलकदमी कर रहा था और पोर्शिया की प्रतिभा और ख़ूबसूरती पर फ़िदा था और साथ ही साथ क्रूर शाईलाक से भयभीत भी था। आप माने या न माने, ड्यूक की अदालत में मेरे सामने ही अंतोनियो पर वाद चलाया गया था जहाँ बैसेनियो की खूबसूरत प्रेमिका पोर्शिया ने अपने धारदार तर्को से शाईलाक के पक्ष में लगभग जा चुके मुक़दमे को पूरी तरह अंतोनियो के पक्ष में मोड़ दिया ।
शेक्सपियर की पुस्तक ‘मैकबेथ’ पढ़ते समय मै लेखक के महान ट्रेडज़ी ड्रामे के रूबरू था। शेक्सपियर मित्रवत मेरा हाथ थामे पूरे कथानक में मैकबेथ, उसकी क्रूर व सुन्दर पत्नी  व उसके सेनानायक के ठीक अगल-बगल ही खड़ा था। मैकबेथ ने अपनी पत्नी के कहने पर मेरे सामने ही राजा डंकन का क़त्ल किया था और ताजे खून के चंद छींटे मुझपर भी आ पडे़ थे और मेरेे सामने ही दु:ख और भय के अतिरेक से मैकबेथ पागल होकर मरा था।
सत्रहवीं सदी के महान् कवि जान मिल्टन के मित्रवत आमंत्रण पर जब मैं ‘पैराडाइज़ लास्ट’ की खिड़की से कूदा तो उस पार मेरी प्रतीक्षा कर रहे जान मिल्टन ने लपक कर मुझे अपनी बाँहों में भर लिया और फिर उसने स्वर्ग के ईडन गार्डन में लगे हुये सेब के उस वृक्ष के दर्शन कराये जिसका प्रतिबंधित फल खा कर एडम एवं ईव स्वर्ग से वंचित हुये थे। उसने मुझे ईश्वर के प्रतिनिधियों एवं शैतान से भी मिलाया और देव और शैतान के युद्ध की रणभेरी भी मैंने बहुत निकट से सुनी।
अट्ठारहवीं सदी के महान कवि थामस ग्रे ने जब खिड़की के उस पार से दस्तक दी तो मैं तुरंत उनकी विश्व विख्यात शोकगीत ‘इलेजी’ में प्रवेश कर एक क्षण में उनके साथ चर्च के ग्रेवयार्ड में खड़ा था जहाँ वे कब्रों में दफ़न एक-एक व्यक्ति को उसकी एक-एक गतिविधि के साथ याद करते हुये विलाप कर रहे थे। थामस ग्रे बार-बार अलग-अलग तरह से मुझे यह समझा रहे थे कि मृत्यु संसार का एकमात्र शाश्वत सत्य है।
ऐसी ही अनेकों खिड़कियों से गुज़र कर मैं प्रेमचंद्र के होरी और हामिद और न जाने कितने ही चरित्रों के साथ उठा-बैठा,    प्रसाद के मनु, इड़ा और प्रज्ञा से मिला, शरतचन्द्र के देवदास, चंद्रमुखी और पारो के साथ प्राचीन कलकत्ता की गलियों में घूमा-फिरा, दिनकर की उर्वशी, गुरुदेव टैगोर के काबुली वाले, आचार्य चतुरसेन की वैशाली की नगरवधू और न जाने कितने ही व्यतीत हो चुके चरित्रों से बकायदा मेरा साक्षात्कार हुआ।
इस खिड़की के इस पार वर्तमान और उस पार समय के सिन्धु में कहीं दूर बह गये ग्लेशियर पर सजा समय का एक और टुकड़ा अपनी पूरी ताजगी के साथ सदैव उपस्थित रहता  है – अपनी धड़कनों के साथ, संचारित होते रक्त की जीवित हरारत के साथ। समय के अलग-अलग ध्रुवों पर खड़े दो समय बिंदुओं के मध्य समय की कोई सुरंग नहीं, बस एक खिड़की है।
यह खिड़की सदैव इतिहास में ही नहीं खुलती वरन् कभी-कभी यह खिड़की भविष्य में भी खुल जाती है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति एवं महान् वैज्ञानिक व विचारक डॉ ए.पी.जे. कलाम ने ‘इंडिया 2020: ए विज़न फार दि न्यू मिलेनियम” के नाम से अपने वर्तमान में ही एक ऐसी खिड़की खोल ली थी जिससे सारे भारत ने बीस वर्ष बाद का भारत देखा व महसूस किया था।
मेरे परममित्र व बैंकर चंद्र प्रकाश जी के आई.ए.एस. पुत्र दीपल सक्सेना का अपने विवाह के मात्र उन्नीस दिनों के बाद जब एक कार दुर्घटना में असामयिक निधन हुआ तो सामान्य जगत ने उन्हें सदैव के लिये खो दिया लेकिन मुझे पता था कि उनके उस प्रतिभाशाली एवं अचंभित कर देने वाली युवा ऊर्जा से परिपूर्ण दीपल ने ‘सी यू टुमॉरो एट नाईन’ नामक एक खूबसूरत उपन्यास की रचना करके अपने जीवन काल में ही इस दुनिया और स्वर्ग के बीच एक खिड़की खोल रखी थी। दीपल आज भले ही हमारी दुनिया में सदेह न हो लेकिन मैं स्वर्ग की इस खिड़की के माध्यम से उससे मिल लेता हूँ । मन्नू, चन्नू और टिया के साथ इस खिड़की का रचनाकार दीपल खिड़की के पार भी उतना ही खुश है जितना खुश वह सदेह खिड़की के इस पार था।
मेरे प्रिय मित्र एवं अमर गीतकार निर्मलेंदु शुक्ल का अमर गीत “मैं सुबह की बाट जोहता रहा, जाने कब वो शाम बन के ढल गयी”  मेरे और उनके बीच एक खूबसूरत खिड़की है और मेरा जब भी मन करता है, मैं उस खिड़की के पार जाकर उनसे मिल लेता हूँ । मुझसे बहुत स्नेह करने वाले मेरे वरिष्ठ साहित्यकार मित्र सुशील सिद्धार्थ ने इस दुनिया और स्वर्ग के बीच ‘मालिश महापुराण’ जैसी न जाने कितनी ही खिड़कियाँ खोल दी हैं जो अनंत काल तक समय के दोनों सिरों को हमारे लिये मिला कर रखेंगी।
प्राचीन काल में जिसे ‘अमृत’ कहते थे, उसे आज के युग में ‘किताब’ कहते हैं क्योंकि इस नश्वर संसार में केवल यही दो वस्तुयें हैं जो किसी को अमर बना सकती हैं।
हर खूबसूरत किताब समय की निरंतर यात्रा के बीच एक खिड़की है जिसके उस पार रचनाकार अपनी पूरी शिद्दत और पूरी ऊर्जा के साथ समय के हर स्थापित नियम के विरुद्ध सदैव उपस्थित है और हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।

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