सत्येन्द्र कुमार सिंह, संपादक-ICN
कृतिदेव यहां मैं एक इन्सान हूँ
एक बाशिन्दा हूँ, धरती के शान का
अपने भारत महान का।
कभी-कभी मेरे मन में एक भूचाल आता है,
एक प्रश्न कौन्धता है, एक सवाल आता है
कि क्या मैं इसे महान बनाने के लिए
कुछ कर सकता हूँ?
या सच पूछिए तो कदम भी बढ़ जाते हैं
खुद-ब-खुद, किन्तु
यह खेल तो है चन्द पलों का,
और ये बढ़े कदम लौट आते हैं।
सड़क किनारे, भूखे-प्यासे बिलखते
शिशु को देखता हूँ तो हृदय मेरा भी रोता है,
सहायतार्थ जेब तक, हाथ ले जाता हूँ
पर वरद-हस्त मेरे, पैसों की रक्षा करने लगता है
और उनकी करूण-पुकार
के प्रति मैं बधिर हो जाता हूँ।
आम व्यक्ति को सताए, जाते हुए देखता हूँ
तो क्रोध से हाथ दरिन्दों से
हाथ मिला लेता है, और उसकी दयनीयता पर
मैं मूक हो जाता हूँ।
मोटर के नीचे आए व्यक्ति को अस्पताल,
पहुँचाने की प्रबलतम् इच्छा होती है,
पर खून की माँग उठेगी तो
क्या करेगा ‘जख्मी’
और लहूलुहान स्थिति पर
उसकी मैं नेत्रहीन हो जाता हूँ।
वहशियों द्वारा द्रौपदी सी
स्त्री का चीर-हरण,
होते हुए देखता हूँ
तो तन-बदन में
आग सी लगती है,
और गालियाँ देता आगे भागता हूँ,
तो न जाने क्यूँ कदम रूक जाते हैं,
और गिरगिराहट पर उसकी
मैं नपुंसक हो जाता हूँ।
ये सवाल तो परेशान करता है
पर इसका उत्तर न मिल पाने पर
भी आन्दोलित नहीं है ‘जख्मी’।
कदाचित,
उस रोते शिशु की आवाज़
कर्णप्रिय हो या
उसके हाथ की सूखी रोटी से
अपनी भूख मिटाने की लालसा हो…….
संभवतः पीटते हुए व्यक्ति के हाव-भाव
नृत्य-शैली प्रस्तुत करते हो
या मैं भी उसे मारकर दरिन्दगी
शान्त करना चाहता हूँ
त की शयनशैली जैसै
सबको सोते देखने की
अभिलाषा हो या
सड़क पर बहते खून से
अपनी ‘प्यास’ बुझाने की चाहत हो,
संभवतः उस नारीन्तन से नयन-सुख की
लोलुपता हो या
हवस के ‘शर’ मुझे भी
घायल कर गए हैं………….
परन्तु, यह सब कृत्य ‘जख्मी’
मैं नहीं कर सकता
कि मैं संस्कृतियों में जकड़ा हूँ,
अपने बच्चों के अलावा
किसी के पितृसुख नहीं देना चाहता………
अपने परिजनों के सिवा
क्यों कर कोई मेरा हो,
अग्नि के सात फेरे लिए हैं,
सो पर स्त्री की कल्पना से भी परहेज़ है…….
मैं किसी की मदद क्यों करूँ
वो मेरा कौन है
कोई नहीं, यह जानता हूँ
इसलिए शांतिपूर्वक रास्ता बदल लेता हूँ………..
या, मैं यह जानता हूँ
कि मेरे अपने सुरक्षित हैं
घर की दहलीज़ के भीतर……..
बच्चे भी, पत्नी भी
और सबसे बढ़कर मैं।
पर,
कभी-कभी विस्मित होता हूँ कि
मेरा दायरा इतना छोटा,
इतना संकीर्ण,
क्यूं कर रह गया………..
इसलिए
कि मैं आज़ाद हिन्द में
‘अवतरित’ हुआ हूँ,
या कि विज्ञान युग में
भावनाओं का स्थान नहीं
खैर, यह अन्-उत्तरित प्रश्न है,
और मैं इसके जवाब में,
अपने सुनहरे भविष्य की,
अपने माँ-बाप,
पत्नी-बच्चों के
स्वप्नों को ही,
जिसे पूरा होना मेरा लक्ष्य है…….
कि तिलान्जलि नहीं दे सकता………
कब तक? जब तक……….
मैं, मेरे बच्चे, मेरे सम्बन्धी,
मेरे घर की औरतें सुरक्षित हैं
मेरा घर, मेरी सम्पत्ति सुरक्षित है
और, अपने वंशज को
भी यही गुरूमंत्र दूँगा……….
क्योंकि………
मेरे लिए हर्ष और संतोष
की बस इतनी ही बात है
कि
मेरा भारत महान या,
मेरा भारत महान है,
और सबसे बढ़कर
मेरा भारत महान रहेगा।