डॉ. अमृत कुमार, ब्यूरो चीफ-ICN झारखण्ड
यह जानते हुए भी कि भूमि से जुड़ा मुद्दा आदिवासियों को आंदोलित कर सकता है झारखण्ड सरकार का भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन के पक्ष में होना एक बार फिर से बड़े आदिवासी आन्दोलन की आहट दे रहा है. खासकर तब जब 30 जून को ‘हूल दिवस’ आने वाला है.
रांची| जबसे इस बात का पता चला है कि भूमि अधिग्रह बिल में संशोधन को महामहिम राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गयी है, झारखण्ड में सियासत एक बार फिर गर्मा गई है. अब सरकारी प्रोजेक्ट हेतु जमीन आसानी से अधिग्रहित की जा सकेगी. सोशल इम्पैक्ट फैक्टर स्टडी की बाध्यता समाप्त कर दी गयी. इसी के साथ झारखण्ड में विपक्षी दलों को एक बार फिर भूमि के मुद्दे पर आदिवासियों को अपने साथ जोड़ने का मुद्दा मिल गया. जल, जंगल और जमीन आदिवासी अस्मिता से जुड़ा हुआ है. इन तीनों मुद्दे पर आन्दोलन होना झारखण्ड में कोई नई बात नहीं है. विपक्षी दलों का कहना है कि बिना सर्वदलीय बैठक के सरकार ने इतना बड़ा फैसला कैसे कर लिया. अभी पिछले वर्ष की महामहिम राज्यपाल में बिल को वापस लौटा दिया था. सरकार ने चुनाव के दौरान अपने चुनावी वादों में उद्योग को बढ़ावा देने की बात कही थी. पूंजीपतियों की बैठक भी सरकार द्वारा झारखण्ड में करवाया गया. उद्योग और पूंजीपतियों को जमीन की आवश्यकता है और सरकार यह जानती है कि भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन के बिना आसानी से जमीन उपलब्ध नहीं हो सकता. झारखण्ड सरकार ने महामहिम राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को इस बात का भरोसा दिया है कि संशोधन का नकारात्मक असर आदिवासियों पर नहीं पड़ेगा. लेकिन सरकार ने विपक्षी दलों को बैठे बिठाये एक मौका दे दिया है जब अब वें आदिवासी आबादी से यह कह सकते हैं कि सरकार ने आपके विरोध के बावजूद यह बिल पास करवा लिया है.
राज्य के तमाम विपक्षी दल इस मुद्दे पर सरकार के विरोधी हो गए हैं. यहाँ तक की आजसू जो सरकार के साथ है वो भी अब सरकार से किनारा करती दिख रही है. विपक्षी दलों का एक तर्क स्वागत योग्य है कि इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाई गयी? जब बिल को पास करवाने में विपक्षी दलों का समर्थन ही नहीं है तो बिल पास होने पर उसका समर्थन कैसे संभव है. सभी विपक्षी दल अपने अपने तरीके से विरोध जाता रहे हैं. इन विपक्षी दलों के विरोध से ज्यादा सरकार को खतरा विभिन्न आदिवासी संगठनों के विरोध से है. पिछले साल इन्ही संगठनों के विरोध के कारण राज्यपाल ने बिल को लौटा दिया था.
राज्य के आदिवासी संगठन विभिन्न सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से संगठित रहते हैं. भूमि कानून के सम्बन्ध में सिदो,कान्हू, चाँद, भैरव मुर्मू तथा बिरसा मुंडा का नाम उल्लेखनीय है. इन्हीं दोनों के आन्दोलन के पश्चात सी. एन. टी. और एस. पी. टी. एक्ट बनाया गया था. जब कभी भी भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन की बात चलती है तो आदिवासी आबादी को ऐसा लगता है कि यह उनके पूजनीय सिदो,कान्हू, चाँद, भैरव मुर्मू और बिरसा मुंडा के संघर्ष का अपमान है. 30 जून 1855 को सिदो,कान्हू, चाँद, भैरव मुर्मू द्वारा देश का प्रथम संगठित स्वतंत्रता संग्राम शुरू किया गया था. इसी की याद में हर वर्ष 30 जून को हूल दिवस का आयोजन किया जाता है. ‘हूल’ संथाली शब्द है जिसका अर्थ है ‘विद्रोह’. ऐसे में तमाम विपक्षी दल और संशोधन के विरोधी आदिवासी संगठन इस अवसर पर यह प्रचारित कर सकते हैं कि जिस महान हूल दिवस की याद में आप एकत्रित हैं उनके नेताओं के संघर्षों से बना एस. पी.टी. एक्ट को भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन कर वर्तमान सरकार उनके संघर्षों का अपमान कर रही है. 30 जून को हूल दिवस के अवसर से प्रारंभ हुआ यह आन्दोलन अगर 15 नवम्बर अर्थात बिरसा मुंडा के जन्मदिवस तक चला तो निश्चित रूप से सरकार बैकफूट पर आ सकती है क्योंकि ये दो महत्वपूर्ण अवसर समस्त झारखण्ड के आदिवासियों को भावनात्मक रूप से एकत्रित करते हैं तथा इन दो अवसरों पर वैश्विक मीडिया की दृष्टि भी झारखण्ड पर होती है.
पिछले वर्षों में भूमि अधिग्रहण विवाद और रघुवर सरकार
रघुवर सरकार द्वारा प्रारंभ से ही जमीन के मुद्दे पर संशोधन बिल लाने की कोशिश कि जाती रही है. सरकार का पक्ष है कि अंग्रेजो के समय बने सी. एन. टी. और एस. पी. टी. एक्ट के कारण आदिवासियों का विकास अवरुद्ध हो रहा है साथ ही विकास कार्यों हेतु सरकार को जमीन अधिग्रहण करने में दिक्कत का सामना करना होता है, आदिवासी अगर अपनी जमीन बेचना चाहे तो उसे वह केवल किसी आदिवासी को ही बेच सकता है जिससे उसे जमीन की मुनासिब कीमत नहीं मिल पाती है. वहीँ आदिवासियों की ओर से संशोधन के विरोध में एक आवाज़ यह भी आती है कि जब सी. एन. टी. और एस. पी. टी. एक्ट के होने के बावजूद भी गैर आदिवासियों द्वारा धरल्ले से आदिवासी जमीन पर निर्माण कार्य और कब्ज़ा किया जाता है तब ऐसी स्थिति में सरकार आदिवासियों की जमीन वापस दिलाने के बजाय संशोधन लाकर गैर आदिवासियों के कब्जे को वैधता क्यों देना चाहती है, सरकार को विकास कार्यों हेतु जमीन को ग्राम सभा में आम सहमती के माध्यम से देने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उनकी चिंता विभिन्न सरकारों के पूर्ववर्ती कारनामों को लेकर है जिसमे आदिवासियों से जमीन तो विकास कार्य हेतु ली गयी लेकिन बाद में उन जमीनों का उपयोग पूंजीपतियों द्वारा किया जाने लगा. साथ ही उनका एक पक्ष यह भी है कि यह कैसा दौर है जब विकास के लिए जमीन को बेचना पड़े.
दोनों पक्ष के मध्य विवाद के दौरान ही पिछले वर्ष रघुवर सरकार द्वारा भूमि अधिग्रण संशोधन बिल विधानसभा में पारित कर दिया गया तथा महामहिम राज्यपाल के पास इसकी मंजूरी हेतु भेज दिया गया. बिल के पास होने के उपरांत राज्य में विभिन्न आदिवासी संगठन विरोध प्रदर्शन करने लगे. सरकार को लगा की स्थिति धीरे धीरे संभल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ, संगठनों का विरोध बढ़ता गया साथ ही उन्हें आदिवासियों का समर्थन भी मिलने लगा. रघुवर सरकार के आदिवासी नेताओं में भी धीरे धीरे मतभेद आने की ख़बरें आने लगी. मामले को बढ़ता देख सरकार ने अपने आदिवासी विधायक और मंत्रियों को आदिवासियों को समझाने तथा संशोधन के पक्ष में जनमत बनाने की जिम्मेदारी दी. जब सरकार के तरफ से विधायक और मंत्री आदिवासियों को समझाने पहुंचे तो आदिवासियों का पहला सवाल था विधानसभा में भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल पारित होने से पहले आदिवासियों का मत क्यों नहीं लिया गया? झारखण्ड में आदिवासियों की आबादी गैर आदिवासियों की तुलना में काफी कम रह ग्रामीण इलाके ही हैं जहाँ वें बहुलता में निवास कर रहें हैं ऐसे में संशोधन बिल आने के पश्चात ग्रामीण इलाके की संपत्ति भी उनके हाथों से निकल जाएगी. आदिवासियों ने यह भी चिंता नेताओं से जाहिर की कि पूर्ववर्ती सरकारों ने भी विकास के कई योजनाओं को लाया था जमीन अधिग्रहित की थी लेकिन इन सबका मुनाफा गैरआदिवासियों को ही हुआ फलतः गैर आदिवासियों की जनसंख्या लगातार बढती गयी और आदिवासी जनसंख्या अपने मूल निवास में भी सिमटती गयी. संपत्ति के नाम पर आदिवासियों के पास केवल जमीन ही है और वो भी सी. एन. टी. और एस. पी. टी. एक्ट के कारण. यह सत्य है कि इन एक्ट के कारण जमीन की अच्छी कीमत नहीं मिल पाती लेकिन अगर सरकार की बात मानकर भूमि अधिग्रहण बिल में संशोधन को स्वीकार कर लिया जाये और उसके बाद भी विकास न हुआ तब तो अंतिम भौतिक संपत्ति जो जमीन के रूप में है वो भी आदिवासियों के पास नहीं रह जायेगा उसके बाद तो आदिवासी अपने ही झारखण्ड में हमेशा के लिए संपत्तिविहीन हो जायेंगे.
वाद विवाद के साथ साथ सरकार के आदिवासी विधायक और मंत्री आदिवासियों को संशोधन के पक्ष में आने को कहते रहे लेकिन बात इतनी बिगड़ गयी कि सरकार के एक दो आदिवासी नेताओं को आदिवासी समुदाय ने अपने समुदाय से बहिष्कृत कर दिया. आदिवासी जनता आदिवासी विधायकों और मंत्रियों के घरों का घेराव कर उनपर संशोधन बिल को वापस लेने का दबाव बनाने लगे. जगह जगह धरना प्रदर्शन होने लगे. आदिवासी संगठन सत्ता पक्ष के आदिवासी विधायकों से सरकार से समर्थन वापस लेकर सरकार गिराने के लिए दबाव बनाने लगे. लेकिन रघुवर सरकार हर हालत में बिल को पास करवाना चाहती थी. राज्यपाल के पास बिल लंबित पड़ा था सो अब आदिवासी आबादी महामहिम राज्यपाल के पास जाकर संशोधन बिल के विरोध में अपना पक्ष दर्ज करने लगी. उनका तर्क था जब आदिवासी आबादी ही नहीं मानती की बिल में संशोधन के उपरांत उनका विकास होगा तब संशोधन की जरुरत क्यों है? अगर सरकार को यह लगता है कि यह मात्र कुछ आदिवासियों की आवाज है तो सरकार भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल के मुद्दे पर आदिवासियों के मध्य जनमतसंग्रह करवा ले और फिर फैसला लें. आखिरकार राज्यपाल ने इस अधिग्रहण बिल को मंजूरी न देकर बिल को वापस लौटा दिया.
बहरहाल सरकार को बलपूर्वक संशोधन बिल को लागू करवाने की अपेक्षा विभिन्न सांस्कृतिक आदिवासी संगठनों से बात करना चाहिए और समाधान निकलना चाहिए. समाधान भी कुछ ऐसा जिससे आदिवासी संस्कृति झारखण्ड में अपनी विशिष्टता के साथ कायम रहे. अगर आदिवासी संस्कृति को समझे बिना इस संशोधन बिल को लागू करवाने की कोशिश कि गयी तो यह संशोधन बिल भविष्य में आदिवासी विकास से ज्यादा आदिवासी संघर्ष की गाथा लिखेगा.