उत्तराखंड धूमधाम से मनाया गया हरेला का त्योहार

शुभम गुप्ता, ब्यूरो-रुद्रपुर 
रुद्रपुर। लोकपर्व हरेला से एक दिन पूर्व यानी अषाढ़ मासान्त को सायंकाल को डिकारे पूजन किया जाता है ।और पहाड़ों मै अन्न भकारो (भंडारों) के आगे शिव पार्वती गणेश जी की हस्तनिर्मित मूर्ति (डिकरे) परिवार बना कर पूजन किया जाता है , यह परिवार मै अन्न , धन, आयु , आरोग्य के लिये किया जाता है ।इस पूजा विभिन्न प्रकार के फल चढाये जाते हैं , दूसरे दिन प्रातः देवपूजन कर कुलदेवता , ग्राम देवता , पितृ देवताओं को हरेला चढाया जाता है और विभिन्न प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं और हरेला घर के छोटे बढे सभी के सिर में आशीष के तौर पर रखा जाता है ।कल से सूर्य भगवान भी कर्क राशि मै प्रवेश करते हैं और दक्षिणायन प्रारंभ हो जाता है ।
हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है-
1- चैत्र मास में – प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है।
2- श्रावण मास में – सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है।
3- आश्विन मास में – आश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है।
किन्तु उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया जाता है! क्योंकि श्रावण मास शंकरभगवान जी को विशेष प्रिय है। यह तो सर्वविदित ही है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी प्रदेश है और पहाड़ों पर ही भगवान शंकर का वास माना जाता है। इसलिए भी उत्तराखण्ड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का अधिक महत्व है।
सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को पानी छिड़कते रहते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है। 4 से 6 इंच लम्बे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है।
घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर के साथ अपने शीश पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया व काटा जाता है! इसके मूल में यह मान्यता निहित है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी! साथ ही प्रभू से फसल अच्छी होने की कामना भी की जाती है।

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