डा. मोहम्मद अलीम, एडिटर, आई.सी.एन. ग्रुप
नई दिल्ली। भारत एक विशाल देश है। मगर यहां की एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी के लिए न तो पर्याप्त स्कूल हैं, न कालेज और न ही यूनिवर्सिटियां। और जो हैं भी, उनकी हालत भी बेहतर नहीं हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति कितनी नाज़ुक और भयावह है इसका एहसास तो तब होता है जब प्रति वर्ष बारहवीं के बोर्ड का परिणाम सामने आता है और दिल्ली विश्वविद्यालय या अन्य विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए मारा मारी शुरू हो जाती है। कट आफ लिस्ट देख कर तो लगता है कि इन विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए प्रत्येक छात्र के लिए 99 प्रतिशत से अधिक रिजल्ट लाना आवशयक है वर्ना वह इन चुनी हुई यूनिवर्सिटियों में प्रवेश लेने का सपना ही न देखें। इसके कारण बहुत से बच्चे बच्चियां अवसाद का शिकार हो कर आत्महत्या तक कर बैठते हैं।
एक आंकड़े के अनुसार प्रति एक लाख छात्रों पर बिहार, झारखंड एवं पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में केवल 7, 8 और 11 कालेज हैं। दक्षिण के राज्यों में स्थिति जरूर थोड़ी बेहतर है। मगर यह तय है कि दिनोंदिन बढ़ती आबादी के अनुसार हमारे शिक्षण संस्थान गिनती एवं गुणवत्ता दोनों ऐतबार से दुनिया के न्युनतम स्तर पर हैं।
सरकार को इसकी कोई चिंता नहीं है कि पास होने वाले बच्चों को एडमिशन मिलता है या नहीं। और अगर चलिए मिल भी गया तो जिन विश्वविद्यालय या कोलेजों में यह जाते हैं वहां भी शिक्षा का स्तर कुछ इतना बेहतर नहीं होता कि वह वहां से कोई विद्वान हो कर निकलें। कुछ गिने चुने विश्वविद्यालय को यदि छोड़ दिया जाए तो एक बड़ी संख्या ऐसे विश्वविद्यालय की है जहां शिक्षा का स्तर इतना गिरा हुआ है कि छात्र छात्राएं तीन या पांच साल या अधिक से अधिक दस साल इस प्रकार बिताते हैं कि अंत में उन्हें डिग्रियां तो मिल जाती हैं मगर रोजगार से प्रायः कोसों दूर रहते हैं। अगर उच्च शिक्षा की बात की जाए तो स्थिति बेहद खराब और दयनीय है। स्नातक तक तक पढ़ने वाले बच्चे या तो सरकारी नौकरियों में कुछ प्रतियोगी परिक्षाएं पास कर के खप जाते हैं मगर अधिकांश दर दर भटकने के लिए मजबूर ही होते हैं। उन्हें कम तंख्वाह वाली प्राइवेट नौकरी के सहारे अपने जीवन की गाड़ी खींचनी पड़ती है।
यहां भी केवल उन ही छात्रों को यह नौकरियां नसीब हो पाती हैं जो या तो तक्नीकी शिक्षा से लैस होते हैं या फिर कुछ विशेष प्रकार के रोजगार उपयोगी कोर्स कर के कहीं न कहीं अपने रोजगार का साधन जुटा लेते हैं।
मगर यहां मेरी चिंता उच्च शिक्षा के दिनोंदिन गिरते स्तर को ले कर है। प्रायः यह देखने में आता है कि एम.ए करने के बाद छात्रों को या तो पढ़ाई छोड़ने को विवश होना पड़ता है क्योंकि उसके बाद की डिग्रियां प्राप्त करने के बाद भी यह निश्चित नहीं होता है कि उन्हें कहीं न कहीं पढ़ाने के लिए बहाल कर ही लिया जाएगा।
टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड रैंकिंग के अनुसार भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी या शिक्षण संस्थान 1 से 200 के भीतर नहीं आता। हां, अलबत्ता 1 से 1000 के बीच जरूर कुछ संस्थानों का नाम 600 से 800 के बीच आता है।
इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हम दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले कितना पीछे हैं।
पिछले दिनों यूजीसी ने एक सर्कूलर जारी किया था कि जो छात्र या छात्राएं यहां तक कि शिक्षक भी अगर पी.एच.डी के शोध पत्र में नकल करते पाए गए तो या तो उनकी डिग्री रद्द कर दी जाएगी या फिर उस पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि किस प्रकार बड़े पैमाने पर उच्च शिक्षा में भ्रष्टचार और अनैतिक तौर तरीकों को परवान चढ़ने का मौका मिला है।
देश की राजधानी या कुछ चुनिंदा यूनिवर्सिटीज की बात छोड़ दी जाए तो राज्यों में जो विश्वविद्यालय हैं वहां नियमों का खुले आम उल्लंघन तो किया ही जाता है साथ ही छात्रों का पी.एच.डी के नाम पर बुरी तरह शोषण भी किया जाता है। बहुत से ऐसे प्रोफेसर हैं जो अपने शोधार्थी से पैसे ले कर स्वयं उनका शोध पत्र लिख डालते हैं या फिर अन्य विशेषज्ञों की सेवाएं ली जाती हैं जो एक निश्चित राशि के एवज़ उनका शोध पत्र न केवल तय समय सीमा में लिख कर दे देते हैं बल्कि उनके मौखिक परीक्षा तक सहयोग करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके जितना मुवाअज़ा लिया गया है उसका सही सही हक़़ अदा कर सकें।
मुझे यह भी ज्ञात हुआ है और वह दिल्ली की सबसे चुनिंदा यूनिवर्सिटी के बारे में जहां कई प्रोफेसर अपने शोधार्थियों से यूजीसी से मिलने वाले स्कालरशिप में भी कमीशन लेते हैं। वह छात्रों पर दबाव डालते हैं कि या तो वह उन्हें प्रति माह एक तयशुदः राशि दें वर्ना मिलने वाली छात्रवृत्ति पर यह कह कर रोक लगा दी जाएगी कि इनका काम स्तर का नहीं है। हार मान कर छात्रों को उनकी अनैतिक मांगों के आगे न केवल झुकना पड़ता है बल्कि अपने सम्मान की बलि भी देनी पड़ती है। उनका शोषण यह कह कर भी किया जाता है कि यदि तुम ने हमारी बात नहीं मानी तो फिर कहीं भी शिक्षक के तौर पर बहाल होने का ख्वाब एक बुरे ख्वाब जैसा ही हो कर रह जाएगा। क्योंकि यही प्रोफेसर कहीं न कहीं किसी न किसी स्थान पर असिस्टेंट प्रोफेसर की बहाली के लिए इंटरव्यु लेने के लिए बुलाए जाते हैं। बहुत से प्रोफेसर तो ऐसे हैं जो बेशर्मी की इंतेहा को पार करते हुए न सिर्फ अपने मेधावी छात्रों से लेख या पुस्तकें लिखवा कर बड़ी शान से अपने नाम से छपवाते हैं बल्कि उससे पैसे भी कमाते हैं और उनमें लिखने वाले का कोई हिस्सा नहीं होता।
जब से इन नौकरियों के लिए साक्षात्कार को जरूरी बना दिया गया है, इस प्रकार के अनैतिक तौर तरीकों को और अधिक भयानक तरीके से बढ़ावा मिला है। जो विशेषज्ञ इंटरव्यु लेने आते हैं, पहले उनसे संपर्क साधने की कोशिश की जाती है। यदि उसमें कायमाबी मिल गई तो हर प्रकार से उनकी खुशामदें करनी पड़ती हैं और फिर यहां तक कि मोल भाव भी तय किया जाता है कि इस नौकरी के एवज़ कितने लाख रूपये रिश्वत के तौर पर देने पड़ेंगे।
मैं बहुत से ऐसे प्रोफेसरों को जानता हूं जिनकी पहली और अंतिम योज्ञता बहाली से पहले उनकी चापलूसी, खुशामदी , नौकरों जैसी जिंदगी थी। उनकी बस एक ही कोशिश होती है कि जिस प्रोफेसर के अधीन उन्होंने पी.एच.डी की डिग्री प्राप्त की है, उनको हर प्रकार से खुश रखा जाए। और अगर उनके नाते रिश्तेदार हों तो फिर बात ही क्या ?
जब ऐसे खुशामदी नाकारा शिक्षक बहाल हो कर आते हैं तो फिर उनसे यह कैसे आशा की जा सकती है कि वह अपने छात्रों को ज्ञान के दीप से ऐसे प्रज्वलित कर देंगे कि उनका सारा जीवन ज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठेगा ?
मुझे लगता है कि सरकार को साक्षात्कार का चलन बिल्कुल बंद कर देना चाहिए और यूपीएससी की तरह एक ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जहां प्रतिभागी अपनी योग्यता के अनुसार कम्पटीशन पास कर के ही अपनी नौकरी पा सकें। या फिर ऐसे लोगों को इन पदों पर बहाल किया जाए जिन्होंने अपने अपने क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त की हो या विशेष प्रकार की उपलब्धियां उनके हिस्से में आई हों। हालांकि भारत जैसे देश में भ्रष्टाचार को पनपने का वहां भी मौका मिल ही जाएगा। यह हमारे जीवन में ऐसे दाखिल हो गया है जैसे हमारी सांस हमारे साथ साथ चलती है।
मोदी सरकार ने शाशन की बागडोर संभालते वक़्त वादे तो बहुत सारे किए थे मगर उन वादों की तभी धज्जियां उड़ गई थीं जब एक कम पढ़ी लिखी महिला को जिनका संबंध उच्च शिक्षा से कभी रहा ही नहीं, शिक्षा मंत्री जैसे अहम पद पर आसीन कर दिया गया था।
मैं लोगों से आग्रह करता हूं कि उच्च शिक्षा के साथ साथा स्कूली शिक्षा के स्तर पर भी जो भ्रष्टाचार और नाकारापन फैला हुआ है उसके विरूद्ध भरपूर अभियान चलाया जाए और सरकार को मजबूर किया जाए कि वह इसमें सुधार करे। अन्यथा हमारी शिक्षा व्यवस्था इसी प्रकार मरी और चरमरायी रहेगी और विद्वता के नाम पर नाकारा लोग ही पैदा होते रहेंगे। और हम अपनी बदहाली का मातम करते रहेंगे।
मोहम्मद अलीम संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार, नाटककार, पटकथा लेखक एवं पत्रकार हैं।