“ महान–गीतकार, नीरज जी के–प्रति “

सी पी सिंह, एसोसिएट एडिटर-ICN

इस , जग – आँगन – का – कल, भावुक – हो – ढूँढेगा ,

उस – वृक्ष को , जिसमें , शब्द , फूल – बन – खिलते – थे |

जिसकी कलियाँ , खुद – चिर – युग – का कारवां – बनीं,

निज – केशर को , जो – खुद , गुबार – कह – हिलते  – थे ||

जिसके पत्ते , हँसि, प्रकृति के बन्दनवार – बने |

हरी – कोपलें भी , जग – हित  , फूलों सा प्यार – सनें |

फिर , को, उसकी – मुद – कलियों के सहकार – गने ?

जग के –मन,जिन –फूलों –संग –खिलते थे |उस वृक्ष को, जिसके –शब्द ,फूल बन,खिलते –थे ||

जिसने – देखा – धोबन – को , कपड़े – ले – जाते |

दुखी – जीवों – को , जग – सर – में – हिचकोले – खाते |

युग – ने – देखा जिसे, जग – की – लघु (भी) पीड़ा – गाते |

सभी , सुख – दुःख – भाव, जिसके – गीतों – में  – मिलते – थे |

युग – सत्य – को , जिसके – शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ||

जो, तन – पर खड़े – रह, न – तन – ले के – लौटा |

कहाँ – से – कहाँ – जा ? न – धन – ले – के – लौटा |

लिए – सब – म्रदुल (भावुक) मन ,” न “ मन – ले – के – लौटा |

हर – तरंग – गति पर जिसकी , मन – हिलते – थे |

उस – युग – वृक्ष को, जिसके – शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ||

जिनकी – छाया में , जीवित – सम्मेंलन – थे |

जिनसे – प्रेरित – बहु – रचनात्मक – खेलन – थे |

जो – समाज – के – प्रेरक , युग के ठेलन  थे |

खुद , केला बनि ,जो , बेरी – संग – छिलते – थे |

युग – सार – को , जिसके – भाव , फूल बन – खिलते – थे ||

सिंहासन सा – थान जिनका – सम्मलेन – में |

जग – आँगन – की – शान – सार्थ – हिय – खेलन – में |

उनको – भी – दिए – फल – फूल , जो – थे – संग – ढेलन में |

जिन – प्रेरित , खग – भ्रमर जीव – बहु – ठिलते थे |

जिनके – भाव , फूल – बन – शाश्वत – खिलते – थे ||

हर – हेमन्त – को – जो , कहते – थे – बसन्त – लिए |

हर – पतझड़ , मधुमास- सदृश – लखि – अन्त – जिए |

सौ – पतझड़ की – बोइ (राखि) लालसा – अपन – हिए |

शाश्वत – ऊर्जावान , नौ – दशक – चलते – थे |

जिनके – शब्द , फूल – बन – युग – में – खिलते – थे ||

मैं , यों – ही – डोलूँगा , गाता – गुनगुनाता |

“ काव्य – जगत – का फ़कीर “ सा – था – जिनका – नाता |

भू – अम्बर बीच – लकीर – सा, शब्दों – से – नाता |

“ सौ – वर्षों – तक – रहूँगा “ , कहे , जिन्हें – मिलते – थे |

जिनके – शब्द , फूल – बन – जग में – खिलते – थे ||

कविता की , हर – संज्ञा का – सम्मान – स्वयं – जो |

अलंकरण – के – हर – विशेषण – का मान – स्वयं –वो |

अपने – गुणों के – मूल – ब्याज – के – भान – स्वयं – हो |

कर्म – भूमि – पर , गीत की – फसल – उगा , खिलते – थे |

जिनके – शब्द, फूल – बन – जग – में – खिलते – थे ||

लहरों – में  , “ कानपुर – की – पाती “ उछले |

कभी , “ कारवाँ  – गुजर – गया “, कहते – वे – भले |

कभी , देख – के चलनें को , कहें – मचले |

और , अन्त – तलक , युव – सम – झिलते थे |

जिनके – शब्द , फूल – बन के – खिलते – थे ||

कितने – खुश – हों जो , लघु (भी) पाकर |

मुद – शिशु – सम – मृदुल , हँसी – लाकर |

सबु , कह देते – थे , लिखि और – गाकर |

जीवन – संघर्ष पे – भी – जो – खिलते – थे |

जो – शब्द , फूल – बन – के खिलते – थे ||

नहिं – समझा जग , जिन – दृग – की – नमी |

क्या , महानता के – उर – में भी – थी – कमी ?

“ जिन्दगी – वेद – थी ,जो , जिल्द – बाँधने में रही – रमी ?

वट –  वृक्ष – भी – कभी , दुखि – छिलते – थे ?

जहाँ (जिनपर) शब्द , फूल  – बन – खिलते – थे ??

प्रेम – आध्यात्म और – दर्शन की त्रिवेणी , लिए |

भाव – भाषा – स्वरों  – की – स्व – श्रेणी – हिए |

शब्द , पत्ते – पुहुप – दर्श – वेणी – किए ?

हर – छोटी भी बात , पा , खिलते – थे |

जिसमें  – शब्द , फूल – बन – खिलते – थे ||

कभी , स्वप्न – झरे – जहाँ – फूलों – से |

चले , दस – दिसि – निरखि – वे – भूलों – बे |

“ जीवन – नहीं – मरा करता है ?” के – कूलों पे |

“ मोती – ब्यर्थ – लुटाने – वाले , भी – मिलते – थे |

“ छुप – छुप – अश्रु – बहाकर “ – भी जब – वे – खिलते थे ||

जिस – वृक्ष – की – अन्तर्ध्वनि – विभावरी – प्राणगीत |

दर्द – दिया – है, बादर – बरसो, जिमि – दो – गीत |

नीरज – की – पाती , आसावरी – संघर्ष – नीत  |

जो, सबके लिए, गीतिका बनकर – खिलते – थे |

वह – वृक्ष कि – जिसमें , शब्द – फूल – बन – खिलते – थे ||

Related posts