नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की एक पांच जजों की बेंच ने कहा कि विवाहेतर संबंधों (अडल्ट्री) के लिए केवल पुरुषों को सजा देन प्रथमदृष्टया संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मिले समानता के अधिकार का उल्लंघन है। पांच जजों की बेंच जोसेफ शाइन की पीआईएल पर सुनवाई कर रही है। इस बेंच में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा , जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा शामिल हैं।शुरुआत में बेंच ने मामले को 7 सदस्यीय बेंच को भेजने का फैसला किया था लेकिन बाद में इस पर सुनवाई जारी रही। याची के वकील कलीश्वरम राज ने कहा कि 1954 में चार जजों की बेंच ने इस आधार पर धारा 497 की वैधता को बरकरार रखा था क्योंकि अनुच्छेद 15 के तहत महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष कानून की अनुमति है। धारा 497 महिलाओं को उनके पतियों की संपत्ति के रूप में देखती है। वकील ने कहा कि आज अगर किसी पुरुष को दूसरी शादीशुदा महिला के पति की अनुमति के उसके साथ संबंध रखने का दोषी पाकर 5 साल तक के लिए जेल भेजा जाता है तो इसी अपराध में बराबर की भागीदार होने के बावजूद महिला को सजा नहीं मिलती है। पार्टनर फॉर लॉ इन डिवेलपमेंट एनजीओ की तरफ से पेश होने वाली वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि पुरुषों के लिए विवाहेतर संबंधों को कानून बनाने वाली धारा 497 को खत्म करना चाहिए क्योंकि यह महिला को उसके पति की संपत्ति समझती है। मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि अगर कोई पुरुष किसी शादीशुदा महिला से उसके पति की मर्जी से संबंध बनाता है तो आईपीसी की धारा 497 के हिसाब से यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता। ऐसा इसलिए क्योंकि महिला को उसकी पति की संपत्ति समझा गया है। चीफ जस्टिस की नेतृत्व वाली बेंच ने कहा कि अगर संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने के लिए अडल्ट्री को खत्म किया जाता है तो न तो पुरुष और न ही महिला, दोनों में किसी को भी सजा नहीं मिलेगी। बेंच ने कहा कि अडल्ट्री तलाक और अन्य सिविल फैसलों का आधार हो सकती है। केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में तर्क दिया है कि अगर आईपीसी की धारा 497 को गैरआपराधिक बनाया गया तो शादी नाम के संस्थान में तूफान आ जाएगा। केंद्र ने तर्क दिया है कि अगर अडल्ट्री को अपराध के दायरे से बाहर निकाला गया तो यह विवाह की पवित्रता को खत्म कर देगा और इसका असर समाज के ताने-बाने पर पड़ेगा।
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