चर्चा में ‘मंटो’

उर्दू के महान लेखक सआदत हसन मंटो की जिंदगी पर बनी नंदिता दास की फिल्म ‘मंटो’ फिलहाल चर्चा में है। अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसे खूब सराहना मिली है।
विश्लेषकों की राय है कि फिल्म मंटो के जीवन संघर्ष और उनकी भीतरी कशमकश को बखूबी सामने लाती है। फिल्म के पीछे नंदिता दास जैसी मंझी हुई अभिनेत्री का दिमाग है और मंटो की भूमिका निभाने के लिए उन्होंने नवाजुद्दीन सिद्दीकी के रूप में बिल्कुल उपयुक्त अभिनेता का चयन किया है।बॉलिवुड में इन दिनों बायॉपिक्स की बाढ़ आई हुई है लेकिन इनके मूल चरित्र के रूप में कवियों-लेखकों को छूने की हिम्मत नंदिता जैसा कोई विरला ही दिखा सकता है। पीछे नजर डालें तो भी इस मामले में सूखा ही मिलता है। याद करना हो तो 1937 में कवि विद्यापति पर देबकी बोस के निर्देशन में फिल्म बनी थी। इसमें पृथ्वीराज कपूर भी थे लेकिन कवि कोकिल की भूमिका पहाड़ी सान्याल ने निभाई थी। 1954 में मिर्जा गालिब पर फिल्म बनी थी जिसमें भारत भूषण ने मुख्य भूमिका निभाई थी। हम चाहें तो इस कड़ी में सत्यजित राय द्वारा रवींद्रनाथ टैगोर पर 1961 में बनाई गई डॉक्युमेंट्री को भी गिन सकते हैं, लेकिन असल चुनौती फीचर फिल्मों की है। कुछ साल पहले लखनवी शायर मजाज पर एक फिल्म बनी, जो सीमित क्षेत्रों में ही रिलीज हुई। खुद मजाज का रोल करने वाले प्रसेनजित चटर्जी भी फिल्म से बहुत संतुष्ट नहीं थे। क्या लेखकों की बायॉपिक बॉलिवुड के फिल्मकारों के बूते से बाहर है? प्रसिद्ध अभिनेता नसीरुद्दीन शाह तो ऐसा ही मानते हैं। उनका कहना है कि पेशेवर मुंबइया फिल्मकार ऐसी चीजों को नष्ट कर देते हैं। कई निर्माता इसे कठिन और खर्चीला काम मानते हैं। उनका कहना है कि इसमें काफी जोखिम है क्योंकि इसके लिए लेखक के दौर को रीक्रिएट करना पड़ता है। हालांकि बात सिर्फ इतनी नहीं है। किसी खिलाड़ी या दूसरे तरह की शख्सियत और साहित्यकार के जीवन में एक बुनियादी फर्क है। बाकी नामी लोगों का जीवन और उनकी उपलब्धियां बहुत प्रकट रहती हैं, लेकिन एक लेखक का ज्यादातर हिस्सा उसके भीतर रहता है। उसकी सोच, उसकी कल्पना और उसके अंतर्द्वंद्व को दृश्य में रूपांतरित करना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है। लेकिन इसके बगैर लेखक के चरित्र को सामने नहीं लाया जा सकता। हम कह सकते हैं कि लेखक दो दुनिया में जीता है। एक तो समाज में और दूसरे अपने भीतर, अपने आंतरिक संसार में। किसी भी एक दुनिया की गलत जानकारी लेखक के चरित्र को धुंधला कर सकती है। इसलिए लेखक पर फिल्म बनाना एक जिंदा कविता लिखने जैसा है। बहरहाल, इतनी कठिन चुनौती के बावजूद फिल्मकारों की दिलचस्पी इस काम में बढ़ती हुई सी लग रही है। चर्चा है कि जल्द ही अंग्रेजी के प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह पर बायॉपिक बनने जा रही है।

Share and Enjoy !

Shares

Related posts