भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने देश के सरकारी बैंकों की जो तस्वीर पेश की है, वह चिंता में डालती है।
आरबीआई के मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र के 21 बैंकों ने अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 तक जितना ऋण वसूल किया, उसके सात गुने से ज्यादा बट्टा खाते (राइट ऑफ) में डाल दिया। यानी इन कर्जों को डूबा हुआ मानकर उन्होंने अपने कर्ज खाते से हटा दिया है। हां, इनके नाम पर कुछ वसूली हो जाए तो उसको वे अपनी आमदनी के खाते में दिखा देंगे।ठोस रूप से कहें तो सरकारी बैंकों ने 44,900 करोड़ रुपये के लोन की वसूली की है और 3 लाख 16 हजार 5 सौ करोड़ रुपये बट्टा खाते में डाल दिए हैं। आरबीआई ने ये आंकड़े संसद की वित्तीय समिति के सामने पेश किए हैं। 2014 के बाद से बैंकों के एनपीए में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। 2014-15 में यह कुल कर्जे का 4.62 फीसदी था। 2015-16 में बढ़कर 7.79 हो गया। 2017-18 में इसमें तेज बढ़ोतरी हुई और यह 10.41 फीसदी तक जा पहुंचा। 2018 मार्च के आखिर तक इनकी वसूली दर 14.2 फीसदी रही। स्वाभाविक है कि बैंकों का संकट एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है और यह असाधारण समस्या अपने लिए असाधारण समाधान भी मांग रही है। रिजर्व बैंक ने इसके लिए कई नियम बनाए हैं और सरकार ने दिवालिया कानून में बड़े बदलाव करके वसूली सुधरने की गुंजाइश बनाई है। दिवालिया घोषित किसी कंपनी की खरीद के लिए लगाई जाने वाली बोली में कंपनी के मौजूदा प्रवर्तक अभी तब तक हिस्सा नहीं ले सकते, जब तक उन्होंने बैंकों से लिए गए कर्ज का भुगतान न कर दिया हो। इससे दिवाला बोलकर भी नीलामी के जरिये कंपनी पर कब्जा बनाए रखने के खेल पर रोक लगी है। समस्या की जड़ एक हद तक मंदी के बाद बने व्यापारिक माहौल से भी जुड़ी है, लेकिन कर्ज लेकर वापस न करने की बीमारी हमारे यहां बहुत पुरानी है। इस पर रोक तभी लगेगी, जब बैंकों से लिए गए कर्ज को घर की खेती समझने वाली कंपनियों और व्यक्तियों में खौफ पैदा हो। पिछले कुछ समय में विकास को गति देने के नाम पर कई उद्यमियों को आंख मूंदकर कर्ज दिए गए, जिनमें से कई भगोड़े हो चुके हैं। इसके अलावा बैंकों ने कई योजनाओं के तहत भी अंधाधुंध ऋण बांटे हैं, जिनकी वापसी की कोई गारंटी नहीं थी। एक तरफ कहा जा रहा है कि बैंकों के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है, दूसरी तरफ बैंक के कर्मचारी कह रहे हैं कि उनके ऊपर काम का भारी बोझ है। आधार और पैन कार्ड बनाने से लेकर तमाम सरकारी योजनाओं के पालन की जिम्मेदारी उन पर ही है, ऊपर से तकनीकी प्रणाली भी पुरानी है। असल में सबसे बड़ी समस्या देश की बैंकिंग पॉलिसी में है। अर्थव्यवस्था को रास्ते पर रखने के लिए बैंकों का चुस्त-दुरुस्त रहना जरूरी है, लेकिन यह तभी संभव है जब कर्ज बांटने में रुतबे और रसूख के लिए कोई जगह न छोड़ी जाए।