अमिताभ दीक्षित ,लिटरेरी एडिटर-ICN ग्रुप
नदी भटकती है विकल
बहती है अविरल
नदी नहीं जानती वह क्यों भटकती है
क्यों बहती है
उमड़े घुमड़े बादलों की सन्तानों को
अपने आंचल से ढके छिपाये
उनकी सांसों को अपने सीने में समाये
ममता की चादर सबको ओढ़ाये
नदी गुज़रती है कितने ऊँचे नीचे रास्तों से
नदी नहीं जानती वह क्यों गुज़रती है
नदी बांटती है वन देती है जीवन
नदी का आंचल कितना बड़ा है
सभ्यताओं का जंगल उसी पर खड़ा है
नदी प्रकाश, नदी छाया है
नदी ज्ञान, नदी माया है
वह नहीं जानती कि वह एक साथ यह सब क्यों है
नदी उपजाती है सन्तोष के फूलों को
नदी बदलती है आनन्द में चिन्तन के शूलों को
नदी अव्यक्त, नदी व्यक्त है, व्योम है
नदी मुक्त है, नदी अनन्त ओम है
नदी नहीं जानती वह एक साथ ये सब क्यों है
मगर सच कहूँ
नदी महसूस भी करती है
कि वह क्यों चिरंतन क्यों मुक्त क्यों अनन्त
क्यों ओम है
शायद इसीलिए
नदी अविरला है, सलिला है
नदी माँ है, शीतला है