चुनावी रण में खिलाड़ी

गौतम गंभीर और विजेन्द्र सिंह भी चुनाव लडऩे वाले खिलाडिय़ों के बैंड में शामिल हो गए। गंभीर का तो भाजपा प्रेम जगजाहिर था लेकिन सदस्यता का अमलीजामा पहनाया गया गत मार्च में।अब उन्हें पूर्वी दिल्ली से टिकट भी मिल गया।
विजेन्द्र ने आननफानन में हरियाणा पुलिस को अलविदा कहा, फिर कांग्रेस पार्टी के सदस्य बनकर दक्षिण दिल्ली संसदीय हलके से बतौर प्रत्याशी ताल ठोक दी। यह सारा घटनाक्रम सोमवार को हुआ। इस सीट पर कांग्रेस पहलवान सुशील कुमार पर किस्मत आजमाना चाहती थी। मगर बात नहीं बन पायी। खेलों में उत्कृष्टता और पदकों के सपने लेने में सभी खिलाड़ी एक जैसे हैं। सरकार से प्रोत्साहन राशि, रोजगार तथा सहूलियतें लेने के लिए वे सभी एक मंच पर खड़े मिलते हैं। लेकिन मौका आने पर सियासी दलों के लिए एक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ी के खिलाफ ताल ठोक देता है। जैसे शूटर आरवीएस राठौर (भाजपा) ने जयपुर में कांग्रेस की तरफ से खड़ी डिस्कस थ्रो खिलाड़ी कृष्णा पूनिया के?खिलाफ ताल ठोकी है।वहीं पूर्व फुटबाल कप्तान वाइचुंग भूटिया की राजनीतिक पार्टी ‘हमारो सिक्किम 32 विधानसभाई हलकों तथा एक संसदीय हलके से चुनाव लड़ रही है। एक अन्य कप्तान प्रसून बनर्जी लगातार तीसरी बार तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर हावड़ा संसदीय सीट से चुनावी मैदान में हैं। क्रिकेट खिलाड़ी कीर्ति आजाद भी कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। दिन-रात पार्टी के लिए कार्य करने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की अवहेलना करके खिलाडिय़ों, जिनका लोकसेवा का कोई इतिहास नहीं है, को टिकट देना अजीब-सा तो जरूर लगता है, लेकिन सियासी दलों का यह टोटका काम करता है। दरअसल, खिलाड़ी नये जमाने के योद्धा हैं जो विश्वस्तरीय खेलों में शान और पदकों के लिए लड़ते हैं तथा देश के लिए भी सम्मान अर्जित करके आते हैं। राजनीतिक तथा आर्थिक विचारधाराओं से परे उनका अपना एक वोट बैंक है, जिसे भुनाने की खातिर सियासी दल इन खिलाडिय़ों को टिकट देते हैं। जीवनभर सुर्खियों में रहने के अभ्यस्त इन खिलाडिय़ों को नेतृत्व का रोल रास आता है। मतलब साफ है कि इससे सियासी दल भी खुश और खिलाड़ी भी।

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