वॉकओवर का खेल

वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रियंका गांधी को न उतारने के कांग्रेस के फैसले से एक बड़े तबके को निराशा हुई है। पिछले दिनों कांग्रेस के भीतर से ही यह चर्चा उठी थी कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक मजबूत उम्मीदवार के रूप में पार्टी प्रियंका गांधी को आगे ला सकती है।
इस पेशकश से देश के उस वर्ग में उत्साह पैदा हुआ था जो इस लोकसभा चुनाव को एक वैचारिक लड़ाई के रूप में देख रहा है और मान रहा है कि सर्वसमावेशी चरित्र वाली कांग्रेस ही बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति को चुनौती दे सकती है। चूंकि मोदी बीजेपी का प्रतिनिधि चेहरा हैं तो उनके बरक्स विपक्ष के भी किसी शीर्ष नेता को ही उतारा जाना चाहिए, ताकि वैचारिक संघर्ष को एक धार मिल सके। जब दोनों खेमों के बड़े नेता एक-दूसरे के सामने खड़े होंगे तो दो भिन्न सिद्धांत बेहतर ढंग से सामने आएंगे। इससे पूरे देश की जनता के सामने परिदृश्य साफ होगा और मतदान को लेकर एक मजबूत फैसले तक पहुंचने में उसे सहूलियत होगी। लेकिन पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने नई जमीन तोडऩे के बजाय लीक पर चलना ही पसंद किया। भारत की संसदीय राजनीति में ताकतवर नेता के खिलाफ विरोधियों की ओर से कमजोर उम्मीदवार देने का चलन सा बना हुआ है। हर पार्टी इस अघोषित नियम का पालन करती है, शायद इसलिए कि अपनी सीटें खोने का जोखिम वह नहीं लेना चाहती। हालांकि इसे सिद्धांत का आवरण दिया जाता है। उनकी ओर से दलील दी जाती है कि असली लड़ाई तो संसद में होनी है, इसलिए वे चाहते हैं कि हर पार्टी के कद्दावर नेता सदन में पहुंचें। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक अपने निर्णय के लिए राहुल ने नेहरूवादी परंपरा का हवाला दिया। उनका तर्क था कि नेहरू अपने विरोधियों जैसे राममनोहर लोहिया और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का काफी सम्मान करते थे और चाहते थे कि वे संसद में रहें। तो क्या माना जाए कि राहुल भी मोदी के सम्मान के लिए उन्हें संसद में भेजना चाहते हैं? उधर बीजेपी भी राहुल और सोनिया गांधी के खिलाफ अपने जूनियर नेताओं को ही उतारती रही है। क्या बीजेपी भी इन दोनों के लिए संसद का रास्ता सुगम बनाना चाहती है? अगर ऐसा है तो बहुत अच्छा है, लेकिन फिर चुनाव प्रचार में एक-दूसरे के खिलाफ इतनी कटुता और विषवमन क्यों? इस दोहरेपन से लोगों के मन में संदेह पैदा होता है कि राजनेता ऊपर से भले ही अलग-अलग विचारों के साथ खड़े दिखते हैं पर अंदर से वे आपस में मिले हुए हैं। इनका सारा जोर अपने-अपने हित साधने पर है, जनता के हितों की इन्हें कोई परवाह नहीं है। इस संदेह की गुंजाइश लोकतंत्र में नहीं होनी चाहिए। पार्टियां अगर अपने विचारों को लेकर ईमानदार हैं और जनता के प्रति अपनी जवाबदेही मानती हैं तो मजबूत विरोधियों के खिलाफ अपने मजबूत नेता उतारें।

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