देश के जनमानस ने भाजपा गठबंधन पर फिर से भरोसा जताकर नरेंद्र मोदी को जो नायकत्व प्रदान किया है, वह कड़वाहट भरे लंबे चुनावी कार्यक्रम के बाद आया मीठा फल है। जनता ने भले ही राज्य में किसी भी सरकार को चुना हो, मगर चाहा है कि देश का केंद्र मजबूत होना चाहिए।
सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों ने भारतीय लोकतंत्र में कई ऐसे सुखद बदलावों की ओर संकेत दिया है, जो उस वातावरण से मुक्त करता है, जो चुनाव प्रचार के दौरान नकारात्मक राजनीति के तौर पर नजर आ रहा था। राजनीतिक पंडित मोदी लहर को सिरे से खारिज कर रहे थे। वे भूल गये थे कि अंडरकरंट जनादेश मौजूद है। नि:संदेह इस चुनाव में अमित शाह की व्यूह रचना काबिलेतारीफ थी। यही वजह थी कि जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को कहना पड़ा कि कांग्रेस को भी एक अमित शाह की जरूरत है। बहरहाल, 2014 के मुकाबले बढ़ा जनाधार पाने से भाजपा आज उस मुकाम पर खड़ी है ताकि देश में बदलावकारी निर्णायक फैसले ले सके। हो सकता है मोदी-शाह को इतनी बड़ी कामयाबी की उम्मीद रही हो, मगर शायद ही भाजपा कार्यकर्ताओं को?भी इतनी बड़ी जीत का एहसास शायद रहा होगा। किसको उम्मीद रही होगी कि कांग्रेस की अजेय सीट अमेठी से राहुल गांधी चुनाव हार सकते हैं। यहां तक कि विपक्षी दिग्गज कुछ दिन पहले तक प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जता रहे थे। चुनाव परिणाम का सबसे प्रगतिशील निष्कर्ष यह है कि भारतीय राजनीति में दशकों से कुंडली मारे बैठे वंशवादी राजनीति करने वाले व जातीय आधार पर वोट बैंक का दावा करने वालों को जनता ने आईना दिखाया है। उ.प्र. में महागठबंधन की नाकामी, मुलायम सिंह यादव, बिहार में लालू यादव, कर्नाटक में देवगौड़ा, तेलंगाना में टीआरएस सुप्रीमो के वारिसों को जनता द्वारा खारिज करना भारतीय लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत है।नि:संदेह इस जनादेश का निष्कर्ष है कि देश का जनमानस राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को ध्यान रखकर मतदान करने लगा है। हर मोर्चे पर मोदी सरकार कामयाब नहीं थी, आर्थिक नीतियों की विसंगतियों का त्रास जनता ने भोगा। रोजगार के मुद्दे पर भी सरकार आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। लेकिन फिर भी जनता को विश्वास है कि मोदी ही कुछ?कर सकते हैं। तभी ‘एक बार फिर मोदी सरकार के नारे को हकीकत में बदल दिया। जमीनी हकीकत से अनजान मायावती, जो कुछ दिन पहले तक प्रधानमंत्री बनने की खुशफहमी पाले हुए थी, उनकी जातीय राजनीति को भी शिकस्त मिली है। देश का जनमानस जाति, प्रांत व अन्य संकीर्णताओं से परे राष्ट्रीय सरोकारों को प्राथमिकता देने लगे तो यह भारतीय मतदाता के परिपक्व होने का सुखद संकेत है। नामदारों को किनारे लगाने की शृंखला में मध्य प्रदेश में राजपरिवार के ज्योतिरादित्य सिंधिया की पराजय नये लोकतंत्र की करवट है। वहीं ममता के निरंकुश शासन के खिलाफ पश्चिम बंगाल में कमल खिलना संकेत है यदि संबल मिले तो जनता लोकतांत्रिक बदलाव की पक्षधर है। उड़ीसा में भाजपा ने उम्मीदों से ज्यादा हासिल किया तो कर्नाटक व तेलंगाना में कमल खिलना बता रहा है कि उत्तर-दक्षिण की दीवार दरकने लगी है। देश?का जनमानस चाहेगा कि देश नकारात्मक राजनीतिक से उबरे। मोदी के लिये यह कार्यकाल देश के किसान व बेरोजगारों की सुध?लेने और अधूरे पड़े काम को अमलीजामा पहनाने का मौका है। नि:संदेह चुनावी मुहिम में विपक्ष के तीखे हमलों ने उन्हें एहसास कराया होगा कि वे पिछले कार्यकाल में कहां चूके थे। यह भी कि अब कांग्रेस के कार्यकाल की खामियां गिनाने के बजाय भाजपा कार्यकाल की ठोस उपलब्धियों को जमीनी हकीकत बनता दिखाये। सबसे बड़ा सबक तो कांग्रेस के लिये है, जो ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के बैक फायर से मिली शिकस्त को सहला रही है। चुनावी समर में प्रियंका को उतारने के बावजूद उ.प्र. में निराशा ही हाथ?लगी है। अमेठी में राहुल गांधी की करारी शिकस्त के बाद सवाल पार्टी के नेतृत्व को लेकर उठेंगे। यह?भी कि क्या गांधी परिवार से बाहर भी किसी कांग्रेसी को नेतृत्व का मौका मिलेगा।