कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व को लेकर जारी ऊहापोह के बीच राज्यों में पार्टी का अंतर्कलह और तेज हुआ है। जाहिर है इसके मूल में आम चुनाव में कांग्रेस की करारी पराजय और केंद्रीय नेतृत्व में भरोसा कम होना है।
तेलंगाना में कांग्रेस के बारह विधायकों का पार्टी छोड़कर तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल होना इसका ताजा उदाहरण है। कांग्रेस शासित राज्यों में जारी उठापटक के बीच तेलंगाना में कांग्रेस के 18 विधायकों में से बारह का अलग होना बड़ी राजनीतिक घटना है। विधायकों को सत्ताधारी दल के सदस्यों के रूप में पहचान मिल गई है। मध्य प्रदेश में संवेदनशील संख्या बल के चलते कमलनाथ सरकार भी आशंकाओं से त्रस्त है। राजस्थान में लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद सरकार व पार्टी संगठन में कलह सड़क पर आ गई है। यहां तक कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने बेटे की हार की जिम्मेदारी सचिन पायलट से लेने की बात कह रहे हैं। वहीं सचिन पायलट के समर्थक पार्टी की हार के लिये गहलोत को जिम्मेदार बताते हुए उनके इस्तीफे की मांग कर रहे हैं। पंजाब में मुख्यमंत्री अमरेंदर सिंह व बड़बोले कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के बीच टकराव खुलकर सामने आ गया है। मुख्यमंत्री ने महत्वपूर्ण मंत्रालय सिद्धू से लेकर उनके पर कतरे हैं। महाराष्ट्र में चुनाव के बाद भी कांग्रेस के नेताओं का पार्टी छोडऩे का सिलसिला थमा नहीं है। कांग्रेस नेता और महाराष्ट्र में विधानसभा में विपक्ष के नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल ने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया है। हरियाणा में भी लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद कलह का सिलसिला जारी है। इसके बावजूद पार्टी में ऊंचे पदों पर काबिज कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि पार्टी का नेतृत्व गांधी परिवार ही कर सकता है। वे देश में बदल चुके राजनीतिक मुहावरे को समझ नहीं पा रहे हैं।ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस के अंतर्कलह व उ.प्र में सपा-बसपा गठबंधन के बिखरने के दौर में बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आए राजग को विपक्ष की चुनौती मिल पायेगी खंड-खंड होता विपक्ष क्या भविष्य में सरकार की मनमानी पर अंकुश लगाने की स्थिति में होगा कांग्रेस शासित राज्यों में जारी उठापटक को देखकर तो कम से कम ऐसा नहीं लगता। दरअसल, आम चुनावों में मिली शिकस्त से विपक्ष उबर नहीं पा रहा है। अपनी खामियों को तलाशने के बजाय विपक्ष भाजपा की जीत को लेकर सवाल खड़े कर रहा है। आम चुनावों में मिली हार के बाद विपक्षी खेमे में खलबली का माहौल है। मायावती द्वारा सपा को दरकिनार करके उपचुनाव लडऩे के फैसले को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। विपक्षी पार्टियां एकला चलो की नीति का अनुसरण करके नयी राजनीतिक संभावनाओं की तलाश में जुट गई हैं। नये मित्रों की तलाश जारी है। अपने अंतर्विरोधों से जूझते वाम दल पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा के किले गंवाने के बाद केरल में भी हाशिये पर आ गये जहां माकपा की अगुवाई वाले एलडीएफ को 20 में से सिर्फ अलाफुजा सीट हासिल हुई। वहीं राजग सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से अलग रहे जद-यू को लुभाने के लिये आरजेडी ने कवायद शुरू कर दी है। आरजेडी को उम्मीद है कि भाजपा व जद-यू के रिश्तों में आई खटास का लाभ उठाया जाये। वहीं विधानसभा चुनाव के लिये उस पुराने समीकरण पर विचार किया जा रहा है, जिसने बिहार में मोदी के विजय रथ को रोक दिया था। नि:संदेह विपक्ष में बिखराव स्वस्थ लोकतंत्र के हित में नहीं कहा जा सकता। इससे सत्तारूढ़ दल के निरंकुश होने का खतरा पैदा हो जाता है। वैसे इस स्थिति के लिये विपक्षी नेताओं की महत्वाकांक्षाएं तथा सिर्फ चुनाव के दौरान गठबंधन बनाकर जनता के बीच जाने की नीति भी कम दोषी नहीं कही जा सकती।