डॉ. प्रांजल अग्रवाल, एसोसिएट एडिटर-ICN
लखनऊ। प्राय: ईश्वर के बराबर महत्व दिए जाने वाले चिकित्सक को कब जल्लाद, यमराज और अंतत: खूनी, हत्यारा, इत्यादि उपाधियों से नवाज़ दिया जाए, पता नहीं चलता | एक व्यक्ति अपनी जवानी नष्ट कर, अपनी महत्वकांक्षाओं का दमन कर, अपने तन-मन-धन का पूर्ण उपयोग कर, अपने और अपने परिवार के सुख-समृद्धि और सम्मान के लिए ‘चिकित्सा छेत्र’ को अपनी कर्म भूमि चुनता है | कोई 8-10 वर्ष तक खुद को घिसने के बाद, जब ‘चिकित्सक’ की उपाधि मिलती है, तो उस सफ़ेद कोट वाले को वहम हो जाता है की उसको ‘सम्मान’ मिलेगा | पर वो भूल चुका होता है, की वो ऐसे समाज के बीच है, जिसमे गाय को कहीं तो माता कहा जाता है तो कहीं काटा भी जाता है, बेटी को कहीं देवी का भी दर्जा मिलता है तो कहीं भ्रूण में ही उसकी हत्या कर दी जाती है, जहाँ अनपढ़ मंत्री बन जाते हैं तो पढ़े लिखे आई.ऐ.एस. बन कर उनको सलाम ठोकते हैं, तो ‘चिकित्सक’ पर भला ‘रहम’ कैसा ?
हाल ही में, पश्चिम बंगाल के एक अस्पताल में एक 85 वर्षीय मरीज की मृत्यु अस्पताल में हो गयी | ‘मृत्य’ अटल है | ‘चिकित्सक’ मृत्यु को अपने बुद्धि-विवेक और ज्ञान का इस्तेमाल कर उसे टालने का ‘प्रयास’ मात्र कर सकते हैं | यही उस अस्पताल में मौजूद चिकित्सकों ने किया | मरीज की आखिरी साँस तक, ‘प्रयास’ जारी रखा, पर अंतत: मृत्यु जीत गयी, चिकित्सक हार गए | लेकिन इस हारे हुए खिलाड़ी को और तोड़ने का काम किया मरीज के परिजनों ने | 2 ट्रक भर के आये लगभग 200 लोगों ने लाठी-डंडों से चिकित्सक पर वार कर-कर के उस ‘बेचारे’ चिकित्सक के खोपड़े की हड्डी में गड्ढा बना दिया | अस्पताल के शीशे तोड़े, कर्मचारियों से मार पीट की, कानून व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा दीं, वगेरह वगेरह | अब ये ‘आम’ हो चुका है | जैसा भी अस्पताल हो निजी या सरकारी, जो भी चिकित्सक हो महिला या पुरुष, जितना भी योग्य हो स्नातक या स्नातकोत्तर, अस्पताल कैसा भी हो छोटा या बड़ा – मरीज की मृत्यु के उपरान्त घबराहट मरीज के परिजनों से ज्यादा अस्पताल संचालक और चिकित्सक को होती है | क्यूंकि उसके सम्मान को कतरा-कतरा और शरीर को क्षत-विक्षत होने का भय लगने लगता है | आत्मा कचोटने लगती है की आखिर क्यों मैंने चिकित्सा छेत्र चुना, ईश्वर का ध्यान आने लगता है – क्यूंकि उन्हें पता है की इस वक्त वो नेता-मंत्री और तमाम उनकी पार्टियों के कार्यकर्ता जो उनसे चंदा और वोट लेने आते थे, वो भी फ़ोन नहीं उठाएंगे |
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के एक शोध के मुताबिक़, भारत के हर 100 में से 75 चिकित्सक अपने जीवन में मार-पीट इत्यादि का शिकार हो चुके हैं | और ये आंकड़ा सालों साल बड़ता जा रहा है | और यकीन मानिये, ये इतना बड़ जायेगा की मेडिकल कालेजों में सीटें खाली पड़ी रहेंगी, घर के बच्चे सेना में दाखिला ले लेंगे, विदेश जा कर चिकित्सा छेत्र चुन लेंगे पर भारत में चिकित्सक नहीं बनेंगे | और इसमें बहुत विशेष योगदान भारत के राजनीति का होगा | 200 हमलावरों में सबसे कमज़ोर 5 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ, वो भी मार-पीट का | चिकित्सक के खिलाफ होता तो ‘जान से मार देने’ वाली धाराओं जैसे 302 अथवा 304 आदि में | शायद मुकदमा भी दर्ज नहीं होता, यदि साथी चिकित्सक हडताल नहीं करते | चिकित्सकों के हित में क़ानून बनाना तो दूर, उनको सुरक्षा भी मुहैय्या कराने में सरकारें असमर्थ हैं | पर आखिर ये कब तक चलेगा ? हर सुबह देश भर के किसी कोने में कोई न कोई चिकित्सक किसी मरीज के परिजनों के गुस्से का शिकार होता जा रहा है, उसके साथी हड़ताल कर रहे हैं, जो हड़ताल नहीं कर रहे वो केवल ‘काला फीता’ बाँध कर अपने ‘विरोध-प्रदर्शन’ कर रहे हैं | उस विरोध प्रदर्शन को मीडिया का समर्थन नहीं मिलता | क्यूंकि मीडिया के पास इससे भी अत्यंत आवश्यक मुद्दे जैसे टुकड़े-टुकड़े गैंग, मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम इत्यादि इत्यादि हैं, जिनसे उसको टीआरपी मिलता है, वो क्यूँ चिकित्सक के साथ मार-पीट दिखा कर अपनी टीआरपी के साथ समझौता करे ? ‘बेचारा चिकित्सक’ अपने दलों के पास मदद की गुहार लगाने पहुँचता है, पर यहाँ भी राजनीति | ‘निजी अस्पताल’ का मामला बोल कर और ‘इस्मा’ का हवाला देकर ‘सरकारी’ तन्त्र में काम करने वाले साथी अपने पल्ला झाड़ देते हैं, और ‘निजी’ छेत्र वाले साथी को अपना मरीज वापस करते बुरा लगता है | कोई नहीं सोचता की ये सरकारें या मरीजों के परिजन जिन पर यह चिकित्सक इतना ‘रहम’ करते हैं क्या उनको भी नहीं ‘चिकित्सकों’ पर रहम करने की आवश्यकता है ?
गीता में कहा गया है- जहां पाप का बल बढ़ रहा हो, जहां छल-कपट हो रहा हो, वहाँ मौन रहने से बड़ा अपराध और कुछ हो नहीं सकता | अब समय आ गया है जब यह समाज जो गूगल जैसे मोबाइल एप्प से इलाज करने में सक्षम हो चुका हो, और चिकित्सकों पर अन्याय करने में जुटा हो को जवाब देने का | देश भर के चिकित्सक जब तक एक साथ हो कर अपने साथ हो रहे इस अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक ये सिलसिला जारी रहेगा, और हर चिकित्सक को अपनी बारी का इंतज़ार करना होगा | एक साथ एक मंच पर आवाज उठाने से संसद में और संसद के बाहर बैठे लोगों को पता चलना चाहिए की यदि इस देश में चिकित्सक ही नहीं रहे, तो क्या होगा ? तब बदलाव आएगा | राहत इंदौरी साहब ने खूब फरमाया है –
बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर, जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जायें |