तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
मेरे बच्चों, जब से सृष्टि बनी हेै, मैं उपस्थित हूँ । मैं तो सृष्टि के निर्माण से भी पहले अपना अस्तित्व प्राप्त कर चुका था क्योंकि महा अंधकारमय शून्य में महाविस्फोट से गाडपार्टकिल की व्युत्पत्ति का भी तो अकेला मैं ही प्रत्यक्षदर्शी हूँ। ये अनंत आकाश गंगायें, ये सहस्रों ब्रह्माण्ड, ये सूरज, ये ग्रह, ये चांद, ये सितारे और यह धरती, मैं सबके निर्माण व विकास का अकेला साक्षी हूँ।
मैं कभी नहीं ठहरा। ठहरना मेरी नियत ही नहीं हेै। सदेैव चलते रहना मेरा धर्म भी है और मेरी विवशता भी। मैं बस सदैव अपनी आदि व अंत हीन यात्रा करता ही रहा और लोगों को एक अमर हरकारे की तरह सुख व दुख के पत्र बाँट कर कभी उनके सुख पर मुस्कुराया और कभी उनके दुख पर उदास हुआ। आज से पहले मैं कभी नहीं ठहरा किंतु मात्र तीन अवसरों पर कुछ देर के लिये मेरे कदम ठिठक अवश्य गये थे। पहला अवसर वह था जब महाभारत के महाविनाशी युद्ध के बाद अंधायुग उपस्थित हुआ जो घोषणा कर रहा था कि मानव जाति की संपूर्ण सभ्यता, संस्कृति व सुविज्ञता शून्य हो चली है। दूसरा अवसर वह था जब ईश्वर के पुत्र महान् यीशू को नासमझ किंतु ताकतवर शासकों ने सूली पर चढ़ा दिया और तीसरा अवसर वह था जब कर्बला के मैदान में शांति व अमन के मसीहा हुसैन को बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया।
किंतु….किंतु आज मैं अपने स्थान पर पूरी तरह जड़वत् ठहरा हुआ हूँ।… दूर से दूर तक देखने में समक्ष मेरी आँखें आज अचानक ही पथराई हुई हैं। मैं न भविष्य की ओर देख पा रहा हूँ और न ही अतीत की कोई खिड़की खुली दीखती है। शायद मेरी निरंतर व अबाध यात्रा के टेप को अचानक ही किसी ने वर्तमान से ‘कट’ करके सृष्टि के प्रांरभिक हिमयुग में ‘पेस्ट’ कर दिया जहाँ मेरा शरीर ही नहीं, प्राण तक जम गये प्रतीत हो रहे हेैं।
सृजन और विध्वंस, जन्म और मृत्यु एवं आदि व अंत सदैव होते रहे हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे। यह तो सृष्टि के नियम हेै और इन्हीं नियमों के चलते मैंने न जाने कितनी बस्तियों का बसना भी देखा है और उजड़ना भी। मेरी इन्हीं आँखों के सामने न जाने कितनी सभ्यताओं ने जन्म लिया और फिर वे अकाल मृत्यु को प्राप्त हुईं । कितने ही झंडे उठते भी देखे और सदैव के लिये गिरते भी। कितने ही धर्म और मज़हबों ने मेरे सामने अपनी आँखें खोली और कितनों ने मेरे सामने ही सदैव के लिये अपनी आँखें बंद भी कर लीं। कितनी मान्यताएं, कितनी परपंरायें और कितने सामाजिक नियम मेरे सामने ही बने और टूटे। वर्तमान के रेलवे जंक्शन पर कितनी ही ट्रेनें मुझे अपना चश्मदीद गवाह बना कर अतीत के स्टेशनों की ओर कभी वापस न लौटने के लिये चली गईं और हर बार भविष्य की यात्रा करने के लिये नई ट्रेनें प्लेटफॉर्म पर मेरे सामने आ खड़ी हुईं। रोज़ शक्ति, ज्ञान व प्रभाव के प्रतीक नये नये देवताओं का जन्म होता रहा और समय के साथ ऐसे सभी स्वयंभू देवतागण अपने समस्त अनुयायियों के साथ मेरे सामने ही अतीत की ट्रेन में बैठकर सदैव के लिये ‘डिलीट’ हो गये। जिन्हें लगता था कि वे अमर होकर आये हैं और सृष्टि उनके बिना एक कदम भी नहीं चल सकती है, वे सभी मेरी इन्हीं आँखों के समक्ष एक एक करके नेस्तानाबूत होते चले गये और सृष्टि का बाल तक बाँका न हुआ।
मैं ‘आदि’ से चलते चलते आज तुम्हारे ‘वर्तमान’ के चौराहे पर खड़ा हूँ। यह धरती, जो अंतरिक्ष में किसी जादुई रंगों से भरी नीली आभा के साथ एक सम्मोहक गेंद की भाँति दिखाई पड़ती है और अपने जन्म से ही मुझे बहुत प्यारी हेै, आज अचानक ही रक्तमयी दीखने लगी है। यह रक्तिम बिंदु एक स्थान से प्रारंभ होकर धीरे धीरे अपना घेरा बढ़ाता ही जा रहा। यह ‘मृत्यु’ है। यह तुम्हारे द्वारा प्रकृति के साथ हर स्तर पर किये गये व्यभिचार के परिणाम की घोषणा है। याद रखो, यह धरती न तुमने बनायी थी, न तुम्हारे पूर्वजों ने और न ही तुम्हारे तथाकथित देव-देवताओं ने। मैं ऐसे हर धर्म और देवता की परिकल्पना से कहीं पहले से मौजूद हूँ। मेरे ही सामने मानव ने अलग अलग समय पर कभी पाषाणखंडों पर, कभी गुफाओं व कंदराओं की भित्तियों पर, कभी भोजपत्रों पर, कभी स्वर्ण मुद्रिकाओं पर और कभी वृक्ष छालों अथवा कागज पर स्वयं को सृष्टि का रचयिता समझ कर सृष्टि के, प्रकृति के, शक्ति के, ज्ञान के व समय के नियम बनाये। सच मानों मेरे बच्चों, हर धर्म का हर नियम मानव रचित ही है क्योंकि जिस ईश्वर के नाम की मोहर ऐसे सभी ग्रंथों पर लगाई गई, उसे तो कभी किसी ने नहीं देखा – शून्य से भी पूर्व से उपस्थित स्वयं मैंने भी नहीं। और देखो न, प्रकृति से ‘कोरोना वायरस’ नामक मृत्यु का रास्ता निकाल कर अपने अपने धर्म व ईश्वर को पुकारते तुम सब मृत्यु की अनंत गुफा में समाते जा रहे हो और तुम्हारे सारे के सारे धर्म के झंडे, विशिष्ट पूजा पद्धतियां व महान् धर्म स्थल मात्र अपने अपने स्थान पर खड़े के खड़े हैं और तुम्हारी तो छोड़ो, वे स्वयं अपनी भी सुरक्षा करने में असमर्थ है। विश्वास व अंधविश्वास के बीच बहुत बड़ा अंतर है। ‘ईश्वर है’ – यह विश्वास हेै क्योंकि इतनी बड़ी स्वचालित सृष्टि का कोई तो नियन्ता होगा ही। मैं समय हूँ किंतु मेरा पिता कौन है? वह निश्चित ही ईश्वर हेै किंतु ‘ईश्वर तुम्हारे ईंट पत्थर के बनाये धर्म स्थलों में रहता हेै’ – यह अंधविश्वास है। क्योंकि जिसने सृष्टि बनायी हेै, समय बनाया हेै, सृजन व विध्वंस बनाया है, वह भला तुम्हारे बनाये नियमों व धर्मस्थलों का मोहताज कैसे हो सकता हेै? अगर इस सृष्टि का निर्माण ईसाई धर्म ने किया है तो भला रोम व वेटिकंस सिटी क्यों इस कोरोना नामक विषैले तिलिस्म का सामना नहीं कर पा रहे हेैं? यदि इस संपूर्ण सृष्टि का निर्माण इस्लाम धर्म ने किया है तो मक्का व काबा में कर्फ्यू क्यों है? और यदि यह सृष्टि हिंदू धर्म की जागीर है तो भारत जैसा ऊर्जावान देश ‘लाकडाउन’ के लिये क्यों विवश है? क्या तुम्हें नहीं लगता कि ‘कोरोना’ तुम्हारे धर्म, मज़हब, झंडे, पूजाविधि व भाषा के किसी अंतर को नहीं समझता और उसे केवल इतना ही पता है कि तुम मानव हो और हर बार दोगुनी होती हुई उसकी अंतहीन भूख की खुराक हो?
हर कदम पर अपनी खूनी चाल को दोगुना करता हुआ कोरोना का मृत्यु नाद हर दिशा में गूँज रहा है और तुम किसी बाहरी शक्ति की आराधना करते हुये टकटकी लगाये हुये मात्र आकाश को निहार रहे हो? यह दृश्य सृजन का नहीं, केवल अवश्यंभावी अकाल मृत्यु की प्रतीक्षा का ही हो सकता हेै।
मेरे बच्चों, ईश्वर किसी आकाशीय सत्ता में नहीं, किसी मंदिर, मस्जिद, चर्च अथवा गुरुद्धारे में नहीं, बल्कि तुम्हारे भीतर तुम्हारी आत्मा में, तुम्हारे विवेक में और तुम्हारे सत्कर्मों में ही उपस्थित है। ‘कोरोना’ को तुम्हारे ही ‘विकृत’ मस्तिष्क ने रचा है और तुम्हारा ही ‘सुकृत’ मस्तिष्क उसे पराजित कर सकता है। अपने रचे इस दैत्य की कमज़ोरियां ढू्ंढो और उसका वध करो। जैसे शतरंज के खेल में घोड़ा मात्र ढाई घर ही चल पाता हेै, तुम्हारे द्धारा अविष्कृति यह महा आपदा भी एक विशेष संक्रमण चक्र में ही गतिवान है और तुम्हारी समझ, सावधानी, सतर्कता व समवेत संकल्प इस ‘लंगड़ी आफ़त’ को पराजित कर सकते हैं। तुम सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना हो और तुम यह अवश्य कर सकते हो।
मैं समय हूँ। आज भले ही इस विकृत मानवीय खूनी खिलौने ने मेरे पाँव दुख से बाँध दिये हैं किंतु मुझे तो अपना धर्म निभाना ही है। तुम विजयी होगे तो मैं सहर्ष गुनगुनाता हुआ आगे बढूंगा और यदि तुम पराजित होगे तो मैं अपने अश्रु बहाता हुआ आगे बढूंगा किंतु मैं सदैव के लिये तुम्हारे साथ नहीं ठहर सकता।
अभी मैं अर्थात ‘समय’ तुम्हारे साथ है और मैं तुम्हें पराजित होते नहीं देखना चाहता। मैं तुम्हें सृष्टि द्धारा आंबटित ‘समय’ को कभी कम नहीं करना चाहता हूँ लेकिन अपने आबंटित समय को पूर्ण रूप में जीने की पूरी ज़िम्मेदारी तुम्हारी ही है। अपनी अविश्वसनीय शक्ति, साहस व समझ के हथियार तेज़ करो, उन्हें चमकाओ और इस धीरे धीरे बढ़ती हुई मृत्यु के खूनी पंजों से ‘जीवन’ छीन लो। मुझे पता है कि तुम ऐसा ही करोगे क्योंकि तुम ‘हेै’ और ‘था’ के बीच के अंतर को भली भाँति समझते हो।
विजयी भव्!