By: Dr. Rama Saharia
आज के आधुनिक समाज और यांत्रिक युग में मानसिक तनाव और रुग्णता आम बात हो गई है। संत्रास, कुन्डा, भग्नाशा, निराशा और विषाद आदि तनाव के ही विभिन्न नाम हैं।
अधिकतर लोगों को इस प्रकार के तनाव से गुजरना पड़ता है बहुत कम ऐसे हैं जिन्हें मानसिक तनाव नहीं घेरते। जाने-अनजाने तनाव के बहुत से कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि कोई व्यक्ति व्यर्थ की आकांक्षाओं से गिरा हुआ हो, उन बातों की अपेक्षा करता हो जिनकी जड़ें जमीन पर नहीं होती। वाल्टर टेम्पिल ने ठीक कहा है कि “केवल मनुष्य ही रोता हुआ पैदा होता है शिकायत करता हुआ जीता है और निराश मरता है।” यह बात आज के लोगों की जिंदगी में देखने को मिल सकती है। विदुर नीति में कहा गया है कि “संसार के दुखी में पहला दुखी निर्धन है। उससे अधिक दुखी वह है जिसे किसी का कर्ज चुकाना है। इन दोनों से अधिक दुखी वह है जो सदा रोगी रहता है। सबसे दुखी वह जिसकी पत्नी दुष्टा हो।”
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि कुछ लोग कभी-कभी हीनता से ग्रसित होने के कारण ऊपर से थोपी हुई गंभीरता और चिंता का मुखौटा लगा लेते हैं और दबे मन से तनावग्रस्त होने का ढोंग करते हैं। जितना अधिक वह दुखी होते हैं उतनी ही उन्हें तृप्ति मिलतीहै। इस प्रकार कई व्यक्तियों को भ्रम में जीने का रोग लग जाता है।
निश्चय ही तनाव किसी न किसी कारण से होता है कोई प्यार व सम्मान ना मिलने की वजह से अवसाद ग्रस्त हो जाता है। यह भी संभव है कि किसी व्यक्ति का जन्म एक जटिल परिस्थितियों में हुआ हो और दुर्भाग्य से उसका पालन-पोषण ठीक ढंग से ना हुआ हो। बचपन में प्यार ना मिलने के कारण युवक आगे चलकर खिन्नता का शिकार हो जाते हैं। कई अन्य कारणों से माता-पिता का ध्यान किसी बच्चे पर से हट जाता है तो बच्चों में मानसिक विषाद पैदा हो जाता है।
कभी-कभी युवक प्यार व स्नेह पाने के लिए इतने आकांक्षी हो जाते हैं कि इसके लिए भी अपने घर का ध्यान खींचते हैं। इतने पर भी जब हमने प्यार नहीं मिलता तो वे मानसिक रूप से बेचैन रहने लगते हैं। ऐसे में मानसिक सनक बढ़ जाती है। उनके अचेतन में चिंता और उदासीनता की पकड़ गहरी हो जाती है। इन्हीं अवसाद के क्षणो में युवक व युवतियां मुड़ी बन बैठते हैं। माता-पिता को इनकार करने लगते हैं। यह आंतरिक विषाद की मानसिकता उन्हें एक तरह से त्रासदी के मार्ग पर चलने के लिए बाध्य करती है।
यदि व्यक्ति मानसिक तनाव का शिकार हो जाता है तो उसे यह जानना चाहिए कि इन तनाव के पीछे कारण क्या हो सकता है? क्या तनाव से मुक्ति मिल सकती है? क्या खुशहाल और उपयोगी जीवन व्यतीत किया जा सकता है? जब चाह पूरी नहीं होती तो व्यक्ति और भी अवसाद ग्रस्त हो जाता है। वैसे अपने को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समझने और समझाने का ठोस प्रयास किया जाए तो तनाव से मुक्ति पाई जा सकती है।
इसके लिए कुछ निम्नांकित सुझाव प्रस्तुत हैंः –
(1) प्रत्येक परिस्थितियों में अपने आपको एडजस्ट करना और इसके साथ-साथ हंसकर जीना भी एक कला है और बदली उपस्थिति में जो चीज आपको नहीं मिल सकती उसके लिए खिन्न होने से क्या लाभ? ध्यान रहे जब किसी विचार को मन पकड़ लेता है तो उलझन की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। अतः यह ध्यान रखना चाहिए कि उन मन बेसिर-पैर की बातों में ना उलझे।
(2) जीवन का अपना सहज मार्ग है-अपना निस्तार है। यदि आप अपने जीवन में सहज होना सीख लेंगे तो परिस्थितियों के साथ तादाम्य स्थापित करने में अधिक सुविधा प्राप्त हो सकेगी। अपना विचार बदलिए भीतर से अंदरद्वंद्वों से मत लड़िए। अपने भीतर तुच्छ बातों को जगह ना दें। अपना मनोबल जागृत कीजिए। व्यर्थ की चिंताओं से ग्रस्त रहना मानसिक रुग्णता का संकेत है। अतः सहजता स्वीकार कीजिए।
(3) जीवन का अपना नियम है –“आप प्यार कीजिये और प्यार के बदले कुछ भी पाने की आकांक्षा मत रखिए।” वहीं चूक होती है जहां प्यार के बदले कुछ पाने की चाह छिपी होती है। जो सिर्फ प्यार करना जानता है उस पर प्यार स्वतः बरस जाता है।
(4) तनाव से बचने के लिए एक सुगम उपाय यह है कि व्यक्ति को जिद्दी और दुराग्रह नहीं होना चाहिए। जिद्दी व दुराग्राही व्यक्ति व्यर्थ में ही मन को अशांत कर लेता है। प्राकृतिक सौंदर्य के साथ खुलकर खेलिए उसे सहचर बनाइए।
(5) ध्यान रहे प्रत्येक व्यक्ति अपनी खुशी स्वयं जुटा सकता है। खुशी कहीं से मिलती नहीं। खुशी वस्तुतः शांतिचित्त अवस्था की आंतरिक स्थिति का नाम है। याद रहे कि खुशियां दूसरों से नहीं मिल सकती। हां, दूसरे आपकी खुशी में सहयोग मात्र हो सकते हैं।
भगवान बुद्ध ने कहा है कि “जो तुम सोचते हो, वही हो जाते हो।” यह एक मनोवैज्ञानिक बात है कि हमारा मन जिस चीज पर प्रतिबिंबित होता है तत्क्षण हम उसी में रम जाते हैं। किसी चीज की आकांक्षा करना ही अपने को दुख में डालने की शुरुआत है। क्यों ना हम ऐसी व्यर्थ की आकांक्षाओं से बचे जो मन में दरार व पीड़ा उत्पन्न करती है।
कर्टसी-मीडिया मैप