*कोरोना वायरस के दौर मे पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब (ﷺ) द्वारा दी गई शिक्षाओ की व्यवहारिकता और उपयोगिता से लाभान्वित होती मानवता*

एजाज़ क़मर
आज हम 21 वीं शताब्दी मे “कोरोना महामारी” से बचाव के लिये ‘सोशल डिस्टेंसिंग” (Social Distancing), “मरीज़ो के लिये अलग स्थान” (Quarantine), नक़ाब (Mask) और स्वच्छता (Sanitation) की शिक्षा का सुबह-शाम प्रचार कर रहे है,जबकि इस्लाम ने 7 वीं शताब्दी मे ही इसकी शिक्षा दे दी थी।
इस्लाम को मुसलमानो के दो तबको (वर्गो) ने बहुत ज़्यादा नुकसान पहुंचाया है, जितना नुकसान इस्लाम के दुश्मनो ने (खास करके यहूदियो ने) भी नही पहुंचाया है,
पहला वर्ग लिबरल का है जो हमेशा मौका तलाशते रहते है, कि कब इस्लाम को नीचा दिखाया जाऐ?
दूसरा वर्ग धार्मिक कट्टरपंथियो का है,
जो यह मौका ढूंढते रहते है कि कब मुसलमानो को नीचा दिखाया जाऐ?
जब कभी भी कोविड-19 जैसी बीमारी दुनिया मे आती है,
तो यह लिबरल वर्ग मुसलमानो के वैज्ञानिक रूप से पिछड़े होने का मुद्दा बनाता है,
तो दूसरी तरफ चरमपंथी वर्ग इमान के कमजोर होने (धर्म से दूर होने) का मुद्दा बनाता है,
यह दोनो ही बीमारी के समाधान खोजने मे मदद करने के बजाय अपनी सियासी रोटियां सेकने लगते है।
पाकिस्तान मे 25 मार्च 2020 तक कोरोना बीमारी के 1000 मरीज थे जिसमे से 780 मरीज (78%) शिया श्रद्धालु थे,जो बलूचिस्तान के तफ्तान बॉर्डर ईरान से पाकिस्तान मे दाखिल हुये थे।ख़ैबर पख़्तुन्वा प्रांत मे ज़िला मरदान के 50 वर्षीय सादत खान उमरा (तीर्थ-यात्रा) करके सऊदी अरब से पाकिस्तान वापस आये, तो उन्होने लगभग 600 अतिथियो को अपने घर पर दावत दी और जिसमे से 39 अतिथियो को कोरोना की बीमारी भी उपहार मे दे दी,क्योकि सुन्नी मुसलमानो मे परंपरा है कि जब कोई व्यक्ति “उमरा” या “हज-यात्रा” से वापस घर आता है,तो रिश्तेदार और परिचित उसका स्वागत करने के लिये जरूर आते है और इसे पुण्य का काम समझा जाता है।
पश्चिमी जीवन-शैली वाले प्रधानमंत्री इमरान खान ने तबलीग़ी जमात के दबाव मे आकर पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के निकट कोट-हत्याल के स्थान पर ग्यारह-बारह मार्च 2020 को ढाई लाख व्यक्तियो का इज्तेमा करने की इजाज़त दे दी थी, जिसमे एक किर्गिस्तान की तबलीग़ी जमात आई थी और उसके छह सदस्यो मे कोरोना की बीमारी पाई गई है,आज यह इज्तेमा पाकिस्तान मे कोरोना का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन गया है और इसने इमरान खान की कोविड-19 से लड़ने की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया है।
पैगंबर साहब तो “नवाफिल की नमाज़” (वैकल्पिक/voluntary) अपनी ऊंटनी पर ही बैठ कर पढ़ लिया करते थे,
किंतु रमज़ान की शुरुआत के पहले ही दिन “तरावीह की वाजिब नमाज़” (अर्द्ध-अनिवार्य/semi-obligatory) को लेकर पाकिस्तान मे इतनी अफरा-तफरी मची हुई थी,
ऐसा लग रहा था कि जैसे यह “फर्ज़-नमाज़” (अनिवार्य/obligatory) से भी ज़्यादा क़ीमती नमाज़ हो और पाकिस्तानी दुनिया के सबसे चरित्रवान मुसलमान हो।
मार्च के महीने मे अधिकतर खाड़ी के देशो ने जुम्मे की नमाज़ को मस्जिद मे पड़ने पर पाबंदी लगा दी थी,
किंतु भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान ज़िद पर अड़े हुये थे कि उन्हे जुम्मे की नमाज़ “जमात” (Congregational Prayer) के साथ मस्जिद मे ही पढ़नी है,
जबकि इनमे से अधिकतर वह लोग थे,
जो हफ्ते मे 35 बार (वक़्त) नमाज़ पढ़ने के बजाय सिर्फ एक ही वक़्त (जुम्मे) फर्ज़ नमाज़ पढ़ते है।
{नफी द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार एक बार एक ठंडी रात मे दजनान (पहाड़) के स्थान पर इब्ने अब्बास ने ‘अज़ान’ (बांग) पढ़ी और कहाँ कि “अपने घरो मे पढ़ो”, फिर उन्होने बताया, कि बरसात और ठंडी रात मे अल्लाह के पैगंबर मुअज्जि़न को अज़ान मे “अपने घरो मे (नमाज़) पढ़ो” बोलने का आदेश देते थे।
(सही बुखारी, किताब नंबर 11, संख्या 605)}
मुद्दा सिर्फ घर मे नमाज़ पढ़ने तक ही सीमित नही है,बल्कि इस्लाम ने आपातकाल मे ज़ोहर-असर और मग़रिब-ईशा की दो नमाज़ो को भी साथ-साथ पढ़ने की इजाज़त दी है,ताकि नमाजि़यो को असुविधा ना हो।
अलग-अलग फिरको (वर्गो) के धर्मगुरुओ ने ज़ोहर-असर और मग़रिब-ईशा की नमाज़ को साथ-साथ पढ़ने को लेकर भिन्न-भिन्न मत दिये है,
किंतु सभी मनुष्यो की जानकारी के लिये सामान्यता इसके 7 नियम (परिस्थितिया) निर्धारित (व्याख्या) किये जा सकते है :-
(1) हज के दौरान
(२) यात्रा के दौरान
(3) तेज़ बरसात या किसी प्राकृतिक विपदा के दौरान
(४) बीमारी, महिला के गुप्त रोग और संतान के दूध पिलाने के दौरान
(५)  “जान-माल-औलाद की सुरक्षा” के दौरान और “अचानक पैदा हुई किसी की जरूरत” या “मजबूरी” के दौरान
(६) जलयान, वायुयान और रेल यात्रा के दौरान
[{(नोट :- तैरती नाव, चलती ट्रेन और उड़ते जहाज़ मे नमाज़ पढ़ने से परहेज़ करना चाहिए)}
{एक बार इब्ने उमर ने पैगंबर साहब से नाव (जल यात्रा के दौरान) मे नमाज़ पढ़ने को लेकर प्रश्न किया तो उन्होने कहा; “तब तक खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, जब तक तुम्हे (नाव के हिलने-पलटने-चलने से) डूबने का भय ना हो जाये”।}]
‘हनफी’ मसलक (सुन्नी पंथ के चार समुदायो मे से एक) मे सिर्फ प्रथम दो परिस्थितियो मे ही जोड़कर नमाज़ पढ़ने की इजाज़त है,
किंतु “सुन्नी” पंथ के बाकी तीन मसलक (‘शाफी’, ‘मालिकी’ और ‘हंम्बली’ समुदाय), “अहले हदीस”/”सलाफी” (वर्ग) और “शिया” पंथ [ज़ैदी (Four), इस्माईली (Six), इसना-अशरी (Twelve) और अलवी (Alwites)] मे सामान्यता: स्वीकार्य है,
परंतु पांचवी परिस्थिति को लेकर (अचानक पैदा हुई “मजबूरी” या किसी “जरूरत” की परिभाषा को लेकर) एक ही पंथ/वर्ग/समुदाय के बुद्धिजीवियो और विद्वानो के बीच मे भिन्न-भिन्न मत है।
{इब्ने अब्बास के अनुसार “यात्रा और भय (किसी संकट का) के बग़ैर पैगंबर साहब ने ज़ोहर-असर और मग़रिब-ईशा की नमाज़ जोड़कर (साथ-साथ) पड़ी थी”।
(सही मुस्लिम, 1515)}
{साद ने अबु ज़ुबैर को बताया,
इब्ने अब्बास ने बोला था,कि “एक बार मदीना मे यात्रा और भय (किसी संकट का) के बग़ैर पैगंबर साहब ने ज़ोहर-असर और मग़रिब-ईशा की नमाज़ जोड़कर (साथ-साथ) पड़ी थी”, ज़ुबैर ने पूछा,कि “ऐसे क्यो किया”? (क्यो पड़ी थी?)”
तब साद ने बताया,
कि मैंने भी इब्ने अब्बास से यही पूछा था,
तो उन्होने बताया,
कि “पैगंबर साहब अपनी उम्मत (कौम) के ऊपर बेवजह सख़्तिया (परेशानिया बढ़ाना) नही चाहते थे”।
(सही मुस्लिम 1516)}
इसी बात को “सही मुस्लिम” की हदीस संख्या 1517, 1518 और 1519 मे भी लिखा गया है,
फिर भी किसी मुसलमान संस्था, ग्रुप या व्यक्ति का मुसलमानो की परेशानियो को बेवजह बढ़ाना अथवा आपातकालीन परिस्थितियो के बावजूद भी ज़बरदस्ती “मस्जिद मे नमाज़ पढ़ने” या “पाँच बार नमाज़ पढ़ने” पर अड़ जाना सिर्फ ज़िद, घमंड और टकराव पर आमादा सोच ही माना जायेगा।
इस्लाम यह सुनिश्चित करता है,
कि मुसलमान सरलता से नमाज़ पढ़े,
अगर अस्वस्थता के कारण खड़े होकर नमाज़ नही पढ़ सकते तो बैठ कर पड़े, अगर बैठ कर भी नही पढ़ सकते तो लेट कर पढ़े, अगर लेट कर भी नही पढ़ सकते तो संकेतो से पढ़े।
यात्रा, बीमारी या किसी गंभीर समस्या मे ‘रोज़ा’ ना रखने की भी छूठ दी गई है,
यद्यपि “हज” (तीर्थ-यात्रा) और “ज़कात” (कर/Tax) का नियम (फर्ज़) तो आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्तियो के ऊपर ही लागू होता है,
किंतु कुछ परिस्थितियो मे उन्हे भी छूट दी जाती है।
पांच “फर्ज़” (कलमा, नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज) के बाद “हुकूकुल-आबाद” (मानवाधिकार) को इस्लाम मे महत्व दिया जाता है,
अगर आपने किसी व्यक्ति को अपमानित किया या उसके साथ बेईमानी करी,
तब अगर वह ही व्यक्ति आपको माफ करेगा, तो अल्लाह आपको माफ करेगा।
“हुकूकुल-आबाद” के बाद अगला चरण “अम्र बिल मारूफ” (अच्छे कर्म करने के साथ-साथ दूसरो को भी अच्छे कर्म के लिये प्रेरित करना) है,
फिर अंतिम चरण “पूरी तरीके से इस्लाम मे शामिल होने” अर्थात संघर्ष (जिहाद) करने का है।
{इसी कारण हमने बनी इस्राईल पर लिख दिया (नियम बना दिया) कि “जिसने भी किसी प्राणी की हत्या की, किसी प्राणी का ख़ून करने अथवा धरती मे विद्रोह के बिना, तो समझो उसने पूरे मनुष्यो की हत्या कर दी और जिसने जीवित रखा एक प्राणी को, तो वास्तव मे, उसने जीवित रखा सभी मनुष्यो को”……..!
(सूराह अल मायदा  5:32)}
तात्पर्य यह है कि अगर किसी व्यक्ति ने एक निर्दोष मानव की हत्या करी, तो उसने पूरी मानवता की हत्या करी।
अगर किसी व्यक्ति ने एक मानव का जीवन बचाया, तो उसने मानवता को बचाया।
इस्लाम मे कोई भी कठोर (सख़्त), कठिन (मुश्किल), अव्यवहारिक और अमानवीय नियम (क़ानून) नही है,
फिर इस्लाम जबरदस्ती युद्ध (जिहाद) के नाम पर कैसे मानव बलि देता और लेता?
अलग-अलग विद्वानो और मुस्लिम धर्मगुरुओ ने संघर्ष (जिहाद) की अलग-अलग श्रेणिया बताते हुये जिहाद को वर्गीकृत किया है,
किंतु सभी इस बात पर सहमत है,
कि सर्वश्रेष्ठ संघर्ष (जिहाद-ए-अकबर) का अभिप्राय “इंद्रियो पर नियंत्रण करना है”,
निम्न स्तरीय संघर्ष (जिहाद-ए-असगर) का अभिप्राय क्रूर शासक के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करना है।
अधिकतर विद्वानो के अनुसार सर्वश्रेष्ठ जिहाद (इंद्रियो पर नियंत्रण) के बाद दूसरे नंबर का जिहाद “माता-पिता” की सेवा करना है।
{अब्दुल्लाह बिन अम्र के अनुसार एक व्यक्ति जिहाद (युद्ध) की इजाज़त लेने के लिये पैगंबर साहब के पास आया,
तो पैगंबर साहब ने पूछा; “क्या तुम्हारे मां बाप ज़िन्दा है?”
उसने जवाब दिया, “हां”, तो पैगंबर साहब ने कहा; “आपको अपने सर्वोत्तम प्रयासो को (उनकी) सेवा मे लगाना चाहिए” अर्थात सदैव माता-पिता की सेवा के लिये तत्पर रहना चाहिए और अधिकतर समय माता-पिता की सेवा मे व्यतीत करना चाहिए।
(सही मुस्लिम किताब 32, हदीस संख्या 6184)}
{इसी जैसी घटना का वर्णन अगली हदीस (सही मुस्लिम किताब 32, हदीस संख्या 6185) मे भी है।}
{यज़ीद बिन अबु हबीब द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार बीबी सलमा के पूर्व गुलाम नईम ने बताया, उन्हे अब्दुल्लाह बिन अम्र ने कहा था,कि एकबार एक व्यक्ति पैगंबर साहब के पास आकर बोला, कि “मै अल्लाह से जिहाद का इनाम (पुरस्कार) लेने के लिये वहां जाने की आपसे इजाज़त चाहता हूं”,
पैगंबर साहब ने पूछा; “क्या तुम्हारे माता-पिता मे से कोई एक जीवित है?”
उसने कहा, “हां, दोनो जीवित है”,
पैगंबर साहब ने फिर पूछा; क्या तुम अल्लाह से इनाम (पुरस्कार) चाहते हो?”
उसने कहा, “हां”,
तब पैगंबर साहब ने कहा; “उनके (माता-पिता) साथ उदार (प्रेम और सहानुभूति से सेवा) व्यवहार करो”।
(सही मुस्लिम किताब 32, हदीस संख्या 6186)}
{इब्ने उम्र द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार अपनी पत्नी के बीमार होने के कारण उस्मान ने जंग-ए-बद्र मे हिस्सा नही लिया था, क्योकि पैगंबर साहब ने उन्हे उनकी बीमार पत्नी की सेवा करने का आदेश देते हुये ने कहा था;कि “तुम्हे (जंग मे शामिल हुए बगैर भी) इनाम और माले-ग़नीमत मे उतना ही हिस्सा मिलेगा, जितना जंग मे शामिल होने वाले योद्धा को मिलता”।
(सही बुखारी किताब 53, संख्या 359)}
उपरोक्त हदीस से स्पष्ट हो जाता है,
कि इस्लाम ना सिर्फ “मां-बाप की सेवा” बल्कि “बीमार की सेवा” को भी “युद्ध वाले संघर्ष”  (जिहाद) से बड़ा पुण्य (सवाब) मानता है,इसके बावजूद भी इस्लामिक साहित्य मे “युद्ध की प्रधानता” की बात कहने वाले :- “उन चरमपंथी मुसलमानो की अज्ञानता और मूर्खता”, “उन इस्लामोफोबिया फैलाने वाले इस्लाम विरोधी तत्वो की दुर्भावना” और “उन नास्तिको की धूर्तता” का ही प्रमाण होगा।
{“बीमार की सहायता और सेवा करना बहुत बड़ा दान (पुण्य) है”।
(मुस्लिम संख्या 1009)}
{पैगंबर साहब के पूर्व गुलाम सुबहान ने बताया कि पैगंबर साहब ने कहा था; कि “जो व्यक्ति बीमार की अयादत (हाल-चाल पूछने को मिलने) को जाता है, (जितना समय वह बीमार के पास रहेगा) उतना समय वह जन्नत के बाग़ो मे सैर करता है”।
(बुखारी किताब 32, संख्या 6230)}
फिर यह प्रश्न पूछना स्वाभाविक होता है,
कि अगर इस्लाम बीमार की सेवा को इतनी अहमियत महत्व देता है,
तो फिर पैगंबर साहब ने कुष्ठ रोगी से बचने को क्यो कहा?
क्या यह एक रोगी का अपमान और तिरस्कार नही था?
{अबू हुरैरा ने सुनाया कि पैगंबर साहब ने कहा; “ना तो ‘अदवा’ (संक्रामक बीमारी) अल्लाह की इजाज़त के बग़ैर आती है (बीमारी अपशकुन नही है),
ना ही ‘तियारा’
(पक्षियो को देखकर अपशगुन) है,
ना तो ‘हमा’ (मरने के बाद उल्लू बनना) है,
ना ही सफर (माह का नाम) अपशगुन वाला है,
किंतु “कोढ़ी (जुज़ाम) को देखकर ऐसे भागो, जैसे शेर को देखकर भागते’।
(सही बुखारी किताब 70, संख्या 27)}
एक दूसरी हदीस मे इसमे अरबीे शब्द ‘”नाव”(सितारा जिसके चमकने के बाद बारिश होती है) भी जोड़ दिया गया है,
वास्तव मे यह हदीस अंधविश्वास के विरुद्ध है,इसमे यह समझाने की कोशिश की गई है,कि बीमारी को लेकर अंधविश्वास (वर्तमान और पूर्व जन्म के कुकर्मो का फल) ना करे,बल्कि सतर्कता बरते क्योकि बीमार से संक्रमण (Infection) हो सकता है।
आलोचक कहते है
दूसरी हदीस मे पैगंबर साहब ने कुष्ठ रोगियो को परंपरागत तरीके से (हाथ मे हाथ लेकर) बैत (शपथ ग्रहण) कराने के बजाय, सिर्फ यह कहकर वापस कर दिया,कि “हमने आपकी निष्ठा (बैत) स्वीकार कर ली है, इसलिये आप लौट सकते है”,
तीसरी हदीस मे पैगंबर साहब ने कुष्ठरोगियो से “कुछ दूरी रखने” को कहा था,
अर्थात यह दोनो ही परिस्थितियां कुष्ठरोगियो का अपमान करती है।
यह आरोप निराधार है,
क्योकि सबसे शक्तिशाली सहाबा (Companion) मे से एक “मुके़ब” (Mu’ayqib) “कुष्ठरोगी” थे और पैगंबर साहब ने उन्हे अपनी मुहर/मुद्रिका (जो अंगूठी की शक्ल मे थी) का रखवाला (रक्षक) बनाया हुआ था,
फिर मुक़ेब को पहले तीनो खलीफा ने अपना आजीवन वित्त प्रबंधक बनाये रखा।
खलीफा उमर पैगंबर साहब की परंपरा का निर्वाह करते हुये ‘मुक़ेब’ को अपने साथ बिठाकर अपनी थाली मे ही खाना खिलाते थे,
क्योकि पैगंबर साहब मुक़ेब को अपने साथ बिठाकर अपनी ही थाली मे खाना खिलाते थे,
तो फिर “छुआछूत का मुद्दा” ही नही रहता है,
यह तो सिर्फ “बीमारी से बचाव” के लिये सतर्कता बरतने और “शारीरिक-दूरी” (Social Distancing) का मुद्दा है।
{अबू हुरैरा ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “बीमार (संक्रमण से पीड़ित) पशु (भेड़, गाय, ऊंट, आदि) को स्वस्थ पशुओ के साथ नही मिलाओ”, फिर कहा, “(सावधानी के तौर पर) स्वस्थ व्यक्ति के साथ मरीज़ को मत रखो”।
(सही बुखारी संख्या 5771)}
{अबू हुरैरा ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा; कि “अंधविश्वास के कारण संक्रमण नही होता है (बीमारी के मुद्दे के लेकर अंधविश्वासी मत बनो), लेकिन स्वस्थ के साथ रोगी को मत मिलाओ”।
(सही मुस्लिम संख्या 2221)}
{साद ने बताया, कि
पैगंबर साहबे ने कहा; “यदि आप ‘किसी भूमि (क्षेत्र) मे प्लेग (बीमारी) फैलने (प्रकोप) के बारे मे सुनते है, तो उसमे (क्षेत्र मे) प्रवेश ना करे’, लेकिन यदि आप उस स्थान पर रहते है, जहाँ प्लेेग फैला हुआ है, तो उस स्थान को ना छोड़े”।
(सही बुखारी संख्या 5728)
इस हदीस का आशय यह है,
कि ‘अगर आप अपने क्षेत्र (जहाँ बीमारी फैली हुई है) से यात्रा करके दूसरे क्षेत्र (जहाँ बीमारी नही है) मे जाते है,
तो सम्भव है कि अपने साथ संक्रमण ले जाये और वहां पर भी बीमारी फैला दे’,
इस्लाम ने “क्वारंटाइन” (संगरोध) का 14 शताब्दी पहले जो प्रशिक्षण दिया था,
वह आज कोरोना वायरस से फैली महामारी (Pendamic) के समय भी उतना ही व्यवहारिक और उपयोगी है।
आज हम 21 वीं शताब्दी मे “कोरोना महामारी” से बचाव के लिये ‘सोशल डिस्टेंसिंग” (Social Distancing), “मरीज़ो के लिये अलग स्थान” (Quarantine), नक़ाब (Mask) और स्वच्छता (Sanitation) की शिक्षा का सुबह-शाम प्रचार कर रहे है,जबकि इस्लाम ने 7 वीं शताब्दी मे ही इसकी शिक्षा दे दी थी।
{बीवी आशा ने बताया,
कि पैगंबर साहब “अगर कुछ खाना या पीना चाहते थे, तो वह पहले अपने हाथ धोते और फिर खाते या पीते थे”।
(सुनन अल-नसई 258)}
हम 2020 मे भी जनता को हाथ धोना सिखा रहे है और हर वर्ष 15 अक्टूबर को “हाथ-धोने का दिन” अर्थात “हैंडवाशिंग डे” (Hand Washing Day) मनाते है,
जबकि इस्लाम ने “हाथो से संक्रमण होने” के साथ-साथ “पीने के पानी से भी संक्रमण होने” की समस्या से हमे सावधान किया था,
इसलिये पैगंबर साहब ने; “महामारी से बचाव के लिये पानी के बर्तन को ढक कर इतनी सख्ती से बांधने का आदेश दिया था, कि संक्रमण (बीमारी) उसमे प्रवेश ना कर पाये”।
(सही मुस्लिम संख्या 2014 का संदर्भ)।
इस्लाम ने “स्वच्छता को आधे ईमान के बराबर” (सही मुस्लिम संख्या 223) की संज्ञा देते हुये मुसलमानो को आरोग्य-शास्त्र की शिक्षा और गहन प्रशिक्षण दिया,
फिर स्वच्छता के मापदंड और नियम निर्धारित किये,
जिसके अनुसार खून, पीप, पेशाब (मूत्र), पख़ाना (मल), वीर्य और उबकाई (वमन) को अपवित्र घोषित करतेे हुये इनके शरीर पर लगने के बाद तुरंत गुसल (स्नान) ‘वाजिब’ (ज़रूरी) किया।
फिर एक दिन मे 8 बार (अनिवार्य 5 बार) नमाज़ पढ़ने से पहले “वुज़ु” (Half-Ablution) वाजिब (ज़रूरी) किया,
जिसकी शुरुआत हाथ धोने से होती है, फिर तीन बार चुल्लू से मुंह मे पानी लेकर ‘ग़रारे और कुल्ली’ करना, उसके बाद तीन बार चुल्लू से अंदर पानी चढ़ाकर ‘नाक को धोना’, फिर ‘मुंह धोना’, फिर कोहनी तक ‘हाथ धोना’, फिर ‘मसा’ करना (कान के आगे-पीछे के हिस्से, गर्दन और बालो को पानी से पोछना), अन्त मे टख़नो तक ‘पैरो को धोना’।
{अबू हुरैरा ने फरमाया,
कि पैगंबर साहब ने कहा; “पांच चीजे़ फितरा (नैसर्गिक) है, ख़तना (Circumcision) करना, अवांछित बालो (Pubic hair) को साफ करना, बगल के बालो को उखाड़ना, मूछो को कतरना और नाखून काटना”।
(सही बुखारी संख्या 6297, सही मुस्लिम संख्या 495)}
इस्लाम मे “स्तंजा” (प्रक्षालन) करने की एक लंबी प्रक्रिया होती है,
जिसका उद्देश्य है कि गुप्तांग लेशमात्र भी अस्वच्छ नही रहना चाहिये,
ताकि संक्रमण (गुप्त रोगो) से बचा जा सके,
इसलिये इस्लाम मे गुप्तांगो की सफाई पर विशेष ध्यान दिया गया है।
शिश्न (Penis) की ऊपरी चमड़ी (Forehead Skin) को काटकर हटाने को “ख़तना” (परिशुद्ध) कहते है,
ख़तना करने से शिश्न के नीचे की चमड़ी के अंदर संक्रमण होने की संभावना खत्म हो जाती है,
“शीघ्रपतन”
(Erectile Dysfunction) जैसी गंभीर बीमारी के लिये यह इलाज ‘तुरुप का इक्का’ (लाजवाब) साबित होता है।
{अबू हुरैरा ने बताया, कि पैगंबर साहब ने कहा; कि “पैगंबर अब्राहम ने अस्सी साल की उम्र पार करने के बाद खुद अपना खतना किया था और उन्होने एक अौज़ार (कुल्हाड़ी) से अपना खतना किया था।”
(सही बुखारी संख्या 6298)}
राइस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉक्टर क्रेग कोइंसीडाइन (Dr. Craig Considine) ने, “क्या सिर्फ प्रार्थना से कोरोना जैसी महामारी को रोका जा सकता है? : पैगंबर साहब का तो नज़रिया कुछ और होता”; के शीर्षक से एक लेख लिखकर सारी दुनिया और विशेषकर चरमपंथी मुसलमानो की आंखे खोली।
क्रेग कोइंसीडाइन ने लिखा कि पैगंबर साहब कहते थे; कि “सुबह उठने से पहले हाथ धोना चाहिये, फिर पानी के बर्तन को हाथ लगाना चाहिये, क्योकि पता नही रात को सोते मे हाथ कहां-कहां जाता है”?
पैगंबर साहब ने कहा था; कि “हाथ धोने से ही खाने मे बरकत होती है”।
क्रेग ने लिखा कि पैगंबर साहब हमेशा रोग निवारण (बीमारी के इलाज) के लिये दवा लेने की बात करते थे,
अंत मे उन्होने अंधविश्वास को दूर करने वाली हदीस को लिखा,
कि एक बार एक बद्दू आदिवासी ऊंट पर बैठकर पैगंबर साहब के पास आया और नमाज़ पढ़ने जाने से पहले पैगंबर साहब से बोला; कि क्या मै बांधकर अल्लाह पर भरोसा करू या छोड़कर अल्लाह पर भरोसा करू?
अर्थात मै ऊंट बांधकर नमाज़ पढ़ने को जाऊं या ऊंट खुला छोड़ कर नमाज पढ़ू?
पैगंबर साहब ने कहा; कि “पहले ऊंट बांधो, फिर नमाज पढ़ो”।
दुर्भाग्य की बात है कि गै़र-मुस्लिम विद्वान हमे इस्लाम सिखा रहे है,
जबकि हमारे धर्मगुरु राजनीति और राजनीतिज्ञ धंधा करने मे लगे हुये है,
आधुनिक शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी धर्म के बारे मे जानना नही चाहते और धार्मिक शिक्षा प्राप्त विद्वान आधुनिक जीवन शैली से तालमेल बिठाना नही चाहते है।
“नीम हकीम खतरा-ए-जान,
नीम मुल्ला खतरा-ए-ईमान”।
अब्दुल्लाह इब्ने अम्र ने सुनाया, कि पैगंबर साहब ने कहा था; कि “जो कोई बिना पूर्व जानकारी (उचित चिकित्सीय शिक्षा) के किसी को दवा देता (बताता) है, वह जिम्मेदार (गुनहगार) माना जायेगा”।
(सुनन इब्ने माजाह संख्या 3466)
भारतीय उपमहाद्वीप के हर शहर, कस्बे और गाँव मे झोलाछाप डॉक्टर भरे हुये है,
इस्लाम इनका सख्त विरोधी है,
यह इस्लाम की प्रगतिशीलता का उदाहरण ही है,कि वह अंधविश्वास के बजाय दवा पर विश्वास करता है और दवा को अपने फन मे माहिर (दक्ष) चिकित्सक से ही लेने का आदेश देता है।
दुर्भाग्य की बात यह है कि एक तरफ इस्लाम विशेषज्ञ से इलाज कराने की बात करता है,
तो दूसरी तरफ कुछ चरमपंथी मुसलमान ‘ऊंट का पेशाब’ पिलाकर इलाज करना चाहते है,
यह मूर्ख
जिस हदीस (सही बुखारी संख्या 6802, सही मुस्लिम किताब 28, संख्या 12) का हवाला देते है,
वह उरैना क़बीले के उन ठगो (आपराधियो) के लिये आदेश था, जिनको चंद सप्ताह के बाद मृत्युदंड दे दिया गया था।
इन चरमपंथियो के पास कोई साक्ष्य नही है,
कि पैगंबर साहब, उनके परिवार (अहले-बैत), सहाबा (साथी), ताबाईन (द्वितीय पीढ़ी), ताबा-ताबाईन (तृतीय पीढ़ी), और किसी सूफी धर्मगुरु (जैसे हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी या ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती) ने कभी ऐसा कहा हो?
क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के एसोसियेट प्रोफेसर ‘रफत ए० एम० अल जस्सीम’ (Rafat A M al Jassim) ने शोध और अध्ययन के बात इस हदीस को “बाद मे जोड़ा हुआ” अर्थात फर्ज़ीवाड़ा (Fabricated) माना है।
कोरोना के संक्रमण से जितने लोग बीमार हुये है, उससे कई गुना ज़्यादा लोग मनोरोगी (Psychopath) बन गये है,
कोरोना से निबटने के बाद डॉक्टरो के लिये अगली समस्या अवसाद (Depression) के शिकार मरीज़ो को ठीक करना होगा,
लेकिन इस्लाम ने कोरोना मे मरने वालो को “शहादत” का दर्जा देकर इस समस्या का भी समाधान दे दिया था।
{बीवी अाशा ने बताया,
कि पैगंबर साहब ने कहा;
“जो बंदा अल्लाह के फरमान को मानते हुये अपने प्लेग (कोरोना) वाले इलाके से भागकर दूसरे इलाके मे नही जाता है और उसकी मौत हो जाती है, तो अल्लाह उसे शहीद का दर्जा देगा”।
(सही बुखारी नंबर 5402)}
{जाबिर इब्ने अतीक़ ने बताया, कि पैगंबर साहब ने कहा; “अल्लाह के रास्ते (जंग) मे मारे जाने वाले लोगो (मनुष्यो) के अलावा और भी सात (श्रेणी) शहीद है, प्लेग (कोरोना) का शिकार (मरने वाला) भी एक शहीद होता है, जो डूबता है वह भी एक शहीद होता है, जो सीने मे दर्द से (हार्ट-अटैक) मरता है वह भी एक शहीद होता है, जो पेट के संक्रमण से मरता है वह भी एक शहीद होता है, जो जलकर मरता हैै वह भी एक शहीद होता है, जो किसी चीज़ के नीचे कुचल कर मरता है वह भी एक शहीद होता है और जो गर्भवती महिला प्रसव के समय (संतानोत्पत्ति) मरती है वह भी एक शहीद होती है”।’
(सुनन अबु दाऊद संख्या 3111)}
मौत के डर से घबराकर मरीज़ “सोशल डिस्टेंसिंग” (Social Distancing) और “क्वारंटाइन” (Quarantine) की बेड़िया (Restrictions) तोड़कर भाग ना जाये या पागल ना हो जाये,
इसलिये ‘उसे’ (मरीज़) “शहीद” का दर्जा देकर इस्लाम उसी ‘स्थान’ (कोरोना ग्रस्त क्षेत्र) पर सफलता से रोक देता है,
यही इस्लाम की शिक्षाओ की व्यवहारिकता है,
कि वह हर दौर मे उपयोगी होती है।
21वीं शताब्दी मे कीथ {Keith L. Moore
(Professor Emeritus, Department of Anatomy and Cell Biology, University of Toronto)}, मार्शल {E. Marshall Johnson
(Professor and Chairman of the Department of Anatomy and Developmental Biology, and Director of the Daniel Baugh Institute, Thomas Jefferson University, Philadelphia, Pennsylvania, USA)}, प्रसाद {T.V.N. Persaud
(Professor of Anatomy, and Professor of Paediatrics and Child Health, University of Manitoba, Winnipeg, Manitoba, Canada)}, सिम्पसन {Joe Leigh Simpson
(Professor and Chairman of the Department of Obstetrics and Gynaecology, Baylor College of Medicine, Houston, Texas, USA)}, गेराल्ड {Gerald C. Goeringer
(Professor and Co-ordinator of Medical Embryology in the Department of Cell Biology, School of Medicine, Georgetown University, Washington DC, USA)}, अल्फ्रेड {Alfred Kroner
(Professor of the Department of Geosciences, University of Mainz, Germany), कुसेन {Yushidi Kusan
(Director of the Tokyo Observatory, Tokyo, Japan), आर्मस्ट्रांग {Professor Armstrong
(works for NASA and is also Professor of Astronomy, University of Kansas, Lawrence, Kansas, USA), विलियम {William Hay
(Professor of Oceanography, University of Colorado, Boulder, Colorado, USA)}, राव {Durja Rao
(Professor of Marine Geology teaching at King Abdulaziz University, Jeddah, Saudi Arabia)}, सिवेदा {Siaveda
(Professor of Marine Geology, Japan)}, तेजासन {Tejatat Tejasen
(Chairman of the Department of Anatomy and is the former Dean of the faculty of Medicine, University of Chiang Mai, Thailand)}, मौरिस {Maurice Bucaille
(former chief of the Surgical Clinic, University of Paris)} जैसे इस्लाम स्वीकार करके बड़ी संख्या मे मुसलमान बनने वाले वैज्ञानिको की एक आम राय है,
कि कुरान मे मौजूद वैज्ञानिक और अंकशास्त्रीय संकेतो ने उन्हे विस्मित (हैरान) कर दिया था,
क्योकि चौदह सौ साल पहले उल्लेखित (कुरान) वैज्ञानिक संकेतो को सिर्फ संरचनाकार ही बता सकता है।
सभी धर्मातरित बुद्धिजीवी मुसलमानो का मत है,
कि इस्लाम वैज्ञानिक शोध और अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है,
बड़ी संख्या मे बुद्धिजीवी भी कुरान की आयतो का उदाहरण {(Al-Baqarah 2:164), (Az-Zumar 39:9), (Al-Mujadilah 58:11) देकर यह बताते है,
कि कुरान शोध और अनुसंधान को प्रेरित करता है,
किंतु मौलाना वैज्ञानिक खोज के बजाय इसे रूहानी (अध्यात्मिक) खोज से जोड़कर अपनी-अपनी दुकान चलाते और समाज को मूर्ख बनाते है।
पैगंबर साहब के समय मे दुर्गम रास्तो के कारण चीन की यात्रा जानलेवा होती थी, उसके बावजूद भी उन्होने ज्ञान पाने के लिये चीन जाने का आदेश दिया,
{पैगंबर साहब ने कहा; कि “इल्म सीखने के लिये चीन जाना पड़े, तो भी जाओ!”
(शेख़ अल अलबानी द्वारा सुनाई गई तथा दा-ईफुल अल जामी मे लिखित संख्या 906)}
किंतु धर्मगुरूओ ने “ज्ञान” को “विज्ञान और तकनीक” के अर्थो मे परिभाषित करने बजाय “धार्मिक ज्ञान और आध्यात्मिक खोज” से परिभाषित करके मुसलमानो का बेड़ा ग़र्क कर दिया।
उपरोक्त हदीस को विवादास्पद मानने वालो के समक्ष मेरा तर्क (तस्वीर का दूसरा रुख) प्रस्तुत है;
जोकि पैगंबर साहब की दूरदर्शिता (इल्म-ए-ग़ैब) को दर्शाता है,
क्योकि उन्होने संकेत दे दिया था,
कि भविष्य मे मुसलमानो को आधुनिक तकनीक (Technology) चीन से ही मिलेगी।
क्या यह चिंतन और अध्ययन का विषय नही है?
कि कागज़ बनाने की तकनीक से लेकर परमाणु तकनीक तक मुसलमानो को चीन से ही प्राप्त हुई है,
बाबर के बारूद (Gunpowder) और तोपखाने की टेक्नोलॉजी से लेकर पाकिस्तान के एम०आई०आर०वी० (MIRV) मिसाइल बनाने की टेक्नोलॉजी तक की जड़े चीन मे ही है।
किन्तु 18 वीं शताब्दी मे जन्मा और पुरातन पंथी विचारधारा को मानने वाला सलाफी (वहाबी) पंथ “सांकेतिक विचारो” तथा “अंकशास्त्र” का कट्टर विरोधी है।”बोकोहरम” और “तालेबान” जैसे आतंकवादी संगठन मुसलमानो के स्कूलो को नष्ट करने मे लगे हुये है,ताकि उन्हे बायो-इंजीनियरिंग आधारित “क्लोनिंग” और आई०वी०एफ० (In vitro fertilization) जैसी आधुनिक वैज्ञानिक (तकनीकी) शिक्षा से रोका जा सके।
कोरोना वायरस एक प्राकृतिक प्रकोप (बीमारी) नही है, बल्कि यह बायोलॉजिकल हथियार है, क्योकि भविष्य की जंगो मे बायोलॉजिकल और केमिकल हथियारो के उपयोग की संभावना बहुत ज्यादा है,
इसलिये मुसलमानो को अपने हर दसवे बच्चे को बायो-इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलवाने की व्यवस्था करनी चाहिये।
यद्यपि त्रिकोणमिति का प्रभाव मिस्र के पिरामिडो मे देखने को मिलता है, किंतु इसको जनसाधारण के उपयोग मे लाने का श्रेय मुसलमानो को ही जाता है,
रेखा गणित को सरल बनाने और बीजगणित को विकसित करने मे मुसलमानो के योगदान को कोई नही नकार सकता,
किंतु 11 वीं शताब्दी के इमाम गज़ाली द्वारा अंक ज्योतिषी के विरुद्ध दिये गये फतवे को “गणित अनुसंधान” के विरुद्ध फतवा मान लेने के कारण आज मुस्लिम छात्रो मे गणितज्ञ दक्षता निम्न स्तरीय हो गई है,भारत मे तो मुस्लिम छात्र दलितो से भी ज्यादा गणित विषय मे कमजोर होते है और इसके जिम्मेदार इमाम गज़ाली जैसे विश्व प्रसिद्ध और सम्मानित धर्मगुरू है,जिन्होने बताया कि “नंबरो से खेलने का काम शैतान का है!”
{अबू हुरैरा द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार पैगंबर साहब ने कहा; कि “अल्लाह ने ऐसी कोई बीमारी नही बनाई है, जिसका इलाज नही बनाया हो”।
(सही बुखारी किताब 1, अध्याय 77, संख्या 5678)}
पैगंबर साहब ने बीमारो के लिये नुस्खे बनाते हुये 37 बीमारियो और 61 औषधीय पौधो, जड़ी-बूटियो और बेलो (झाड़ियो) का विशिष्ट विवरण दिया है, जिनमे से “कंलौजी” (Black Seed) रोग निवारण (सेहत बख़्शने) के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
{अबू हुरैरा द्वारा सुनाई गई हदीस के अनुसार पैगंबर साहब ने कहा; कि “मौत को छोड़कर ‘कलौंजी’ मे हर बीमारी का इलाज है”।
(सही बुखारी किताब 7, अध्याय 71, संख्या 592)}
जब भी कोरोना जैसी कोई बीमारी आती है, तो मुसलमान उसकी दवा और टीके (वैक्सीन) के लिये अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी ऑस्ट्रेलिया, रूस, चीन और जापान जैसे देशो का मुंह ताकने लगते है,
जबकि होना यह चाहिये था,कि मुस्लिम देश इज़रायल की तरह हर बीमारी की दवा सबसे पहले बनाकर मानवता की सेवा करने के पैगंबर साहब के आदेश का पालन करके अल्लाह को खुश करते,
किंतु दुर्भाग्य यह है, कि मंशा (नियत) ना होने से उत्पन्न उदासीनता के कारण, आज तक मुसलमान “कलौंजी” (Nigella sativa) से कोई एक दवा तक नही बना पाये।
मशहूर पाकिस्तानी डॉक्टर ताहिर हुसैन ने प्लाज़्मा (खून की पीली परत) द्वारा कोरोना के मरीज़ मे रोग-प्रतिरोधक क्षमता विकसित करके रोग (कोरोना) का इलाज करने की विधि का सुझाव फरवरी मे दिया था,फिर कराची के चिल्ड्रंस हॉस्पिटल के डॉक्टर ‘साकिब अंसारी’ ने कोरोना की बीमारी से ठीक हुये ‘याहया जाफरी’ का प्लाज़्मा भी दान करवाकर रख लिया है,
किंतु दो महीने गुज़र गये और आज तक पाकिस्तान की सरकार सो रही है,
जबकि इजराइल, अमेरिका और इंग्लैंड के डॉक्टरो ने इस विधि पर सफलता से काम करना शुरू कर दिया है।
आज “हार्प” (High Frequency Active Auroral Research Program) जैसी टेक्नोलॉजी से मौसम पर नियंत्रण करके भूकंप, बरसात और बाढ़ लाई जा सकती है,
इसलिये अब प्राकृतिक प्रकोप भगवान का दण्ड (अल्लाह का अज़ाब) नही है,
बल्कि यह शैतानी इंसान के दिमाग़ का खेल है।
अगर मुस्लिम समाज को अपने हितो की सुरक्षा करनी है,
तो आधुनिक-विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र मे प्रगति करना ही होगी,
जिसके लिये मुस्लिम छात्रो मे शोध और अनुसंधान का रुझान (शौक़) पैदा करना होगा।
अगर मुस्लिम समाज मे चेतना लानी है,
तो बच्चो को मदरसो मे धार्मिक शिक्षा लेने के बजाय उन्हे आधुनिक शिक्षा के लिये प्रोत्साहित करना होगा।
मशहूर सूफी समाज सुधारक जावेद अहमद ग़ामदी कहते है,कि “मस्जिद का मेंबर (मंच) मौलानाओ के बजाय प्रशासको के भाषण देने के लिये आरक्षित होना चाहिये,  ताकि आधुनिक और समकालीन विश्व (Contemporary World) मे मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर गै़र-मुस्लिमो के साथ चल सके”,
वरना मदरसो की पृष्ठभूमि वाले मुसलमान बुद्धिजीवी (वैज्ञानिक) पृथ्वी को चपटा बताकर इस्लाम का मज़ाक बनवायेगे और मुसलमानो को दुनिया मे शर्मिदा करवायेगे।

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