तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
हमें एक दूसरे से जोड़ने का जो सबसे प्रभावशाली माध्यम है, वह संवाद के रूप में हमारी भाषा ही है। तनिक सोचिये तो, यदि दुनिया में कोई भी भाषा न होती तो क्या होता?
अब हम यदि उर्दू भाषा की बात करें तो यह सही है कि उर्दू में अरबी, फ़ारसी व हिंदी भाषा के अनेक मौलिक शब्द इस भाषा के शब्दकोष में उपस्थित हैं किंतु अलग-अलग भाषाओं के उन शब्दों को लिखने के लिये उन्हीं भाषा के विशिष्ट वर्ण अर्थात अक्षर का प्रयोग किया जाता है। यह इस भाषा का वैशिष्ट्य है किंतु इस भाषा में दो अलग-अलग अक्षरों को मिला कर एक अक्षर जैसे ‘प’ व ‘र’ को मिला कर ‘प्र’, ‘ट’ व ‘र’ को मिलाकर ‘ट्र’ अथवा ‘प’ व ‘ल’ को मिलाकर ‘प्ल’ इत्यादि बनाने के उपकरण मौजूद नहीं है और इसीलिये इस भाषा में शुद्ध रूप से ‘ब्राह्मण’, ‘चंद्रमा’, ‘प्रकाश’ व ‘प्लेटफॉर्म’ शुद्ध रूप से लिख पाना संभव नहीं है और इन शब्दों को सदैव ‘बिरहमन’, ‘चनदरमा’, ‘परकाश’ अथवा ‘पलेटफारम’ ही लिखा व पढ़ा जाता है। हाँ, इस भाषा में ऐसे शब्दों को आसानी से लिखा जा सकता है जहाँ किसी शब्द में कोई अक्षर एक बार अपने पूर्ण रूप में व उसके तुरंत बाद वही अक्षर अपने आधे रूप में मौजूद हो, जैसे ‘बच्चे’, ‘बल्ला’ अथवा ‘कुत्ता’ आदि।
यदि हम अंग्रेज़ी भाषा की बात करते हैं तो इस भाषा में भी कई स्थानों पर ‘लिखे गये’ व ‘पढ़े गये’ के बीच पर्याप्त अंतर देखने को मिलता हेै। एक ही वर्तनी की तर्ज़ पर दो शब्दों की उच्चारण ध्वनियाँ भिन्न हो जाती है, जैसे ‘but’ का उच्चारण ‘बट’ है किंतु ‘put’ का उच्चारण ‘पुट’ हो जाता है। यही नहीं बल्कि अनेक शब्दों में ‘साइलेंट अल्फ़ाबेट’ का भी प्रयोग है अर्थात किसी शब्द की वर्तनी में अन्य अल्फ़ाबेट्स के साथ कोई विशिष्ट अल्फ़ाबेट लिखा तो जाता है किंतु उच्चारण में उस विशिष्ट अल्फ़ाबेट की ध्वनि नहीं निकाली जाती है’ जैसे ‘calf’ व ‘science’ शब्दों में क्रमशः ‘l’ व ‘c’ का प्रयोग लिखते समय किया गया है किंतु इन शब्दों के उच्चारण में इन विशिष्ट अल्फ़ाबेट्स का कोई योगदान नहीं है। यही नहीं बल्कि अंग्रेज़ी भाषा, जैसी भारतवर्ष में बोली जाती है, के ‘t’ उच्चारण ‘ट’ है और ‘त’ को भी ‘ट’ ही लिखा व पढ़ा जाता है। यद्यपि चीन व जापान आदि देशों में अंग्रेज़ी भाषा के ‘t’ का उच्चारण ‘त’ होता है, ‘ट’ नहीं तो इस प्रकार वहाँ ‘ट’ को अंग्रेज़ी में कैसे लिखा जाये, यह भी एक समस्या है। हाँ, दो स्वतंत्र अक्षरों को मिला कर एक अक्षर अंग्रेज़ी भाषा में गढ़ा जा सकता है, जैसे ‘t’ व ‘r’ को एक साथ मिला कर लिखने में ‘ट्र’ रचा जा सकता है और इसीलिये ‘ट्रांसफॉर्मर’, ‘रिसेप्शनिस्ट’ अथवा ‘प्लेटफॉर्म’ इस भाषा में शुद्ध रूप से लिखा जाना व पढ़ा जाना संभव है।
हर भाषा में अपनाये गये हर शब्द की अपनी यात्रा होती है और प्रारंभ में हर शब्द के साथ कुछ दूर तक उसकी अपनी कहानी भी साथ-साथ चलती है किंतु कुछ समय के बाद प्रत्येक शब्द अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त कर लेता है और एक विशिष्ट अर्थ के लिये जाना व पहचाना जाने जाता है। अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘इंटरनेट’, ‘वेब’ अथवा ‘मोबाइल’ जैसे शब्द यद्यपि बहुत पुराने नहीं हैं किंतु ये शब्द दुनिया की प्रत्येक भाषा में बहुत आसानी से घुल मिल गये हैं और इनके अर्थ को समझने के लिये न तो इनके इतिहास को जानने की अनिवार्यता है और न ही किसी नये भाषाई शब्द को गढंने की कोई आवश्यकता ही।
सच बात तो यह हेै कि अनेकों ऐसे शब्द भी हमारी भाषाओं में नित्य प्रति जुड़ रहे हैं जिनका अपना कोई सांस्कृतिक इतिहास तक नहीं है। ‘धांसू’, ‘बिंदास’ व ‘झकास’ कुछ ऐसे ही शब्द हैं जो आज हमारी भाषा में ‘धड़ल्ले’ से प्रयोग हो रहे हैं और अपना विशिष्ट अर्थ संप्रेषित करते हैं। हो सकता है कि आप आज इन्हें अपनी तथाकथित सौम्य छवि के चलते इन जैसे शब्दों को दोयम दर्जे का मानते हुये इनसे बचने का प्रयास करते हों किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि धीरे-धीरे ये शब्द भी लोक मान्यता अर्जित करते जा रहे हैं और आपकी तमाम शिष्ट आपत्तियों के बावजूद भी कल ये हमारे पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित हो जायेंगे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी भाषा में आवश्यकता है कि ‘अ’ व ‘ए’ के बीच की ध्वनि के लिये किसी नयी मात्रा या चिह्न का प्रयोग किया जाये जिससे ‘pen’, ‘gem’ व ‘tell’ सरीखे शब्दों में प्रयुक्त ‘e’ के लिये उपयुक्त ध्वनि को अंकित किया जा सके। इसके साथ ही ‘़’ (नुक़्ता) व ‘e’ की ध्वनि अंकन हेतु उचित चिह्न को अन्वेषित कर, दोनों को ही आधिकारिक रूप में मान्यता देकर पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाये।
मैं महसूस करता हूँ कि उर्दू भाषा में दो भिन्न अक्षरों को मिला कर साथ में लिखने व पढ़ने के लिये एक विशिष्ट चिह्न को सृजित कर उसे आधिकारिक मान्यता देकर भारतीय पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए ताकि हम भारतीय परिवेश के ‘ब्राह्मण’, ‘चंद्रमा’, ‘प्रकाश’, ‘प्लेटफॉर्म’ व ‘ट्रेन’ जैसे शब्दों को उनके वास्तविक रूप में अंकित कर सकें।
मैं यह भी अनुभव करता हूँ कि अंग्रेज़ी भाषा में भी एक तर्ज़ की वर्तनी में पिरोये गये शब्दों की उच्चारण पद्धति भी एक जैसी होनी चाहिए ताकि हम ‘put’ व ‘but’ के उच्चारण में साम्य स्थापित कर सकें। ‘साइलेंट’ अल्फ़ाबेट की बाध्यता समाप्त की जानी चाहिए ताकि जिस अक्षर की हमें ध्वनि ही उच्चारित नहीं करनी है, उसको अंकित करने के कुतर्क से छुटकारा पाया जा सके और ‘t’ को कब ‘ट’ माना व पढ़ा जाये व कब ‘त’ माना व पढ़ा जाये, इसके लिये किसी विशिष्ट चिह्न का सृजन होना चाहिए तथा उस चिह्न को पूर्ण आधिकारिक मान्यता देनी चाहिए ।
इन नये सृजित चिह्नों को मान्यता देना कोई बहुत दुष्कर कार्य नहीं है क्योंकि अभी कुछ समय पूर्व ही भारत सरकार ने अपनी भारतीय मुद्रा ‘रुपया’ के लिये ‘₹’ चिह्न को मान्यता प्रदान की है। भाषाओं के भारतीय संस्करणों की मान्यता भी तर्कपूर्ण है क्योंकि वैश्विक स्तर पर एक ही अंग्रेज़ी भाषा के ‘ब्रिटेन’ व ‘अमेरिकन’ संस्करण हमारे सामने उपस्थित हैं।
जब ये भाषाएँ मूल रूप से निर्मित हुई थीं, तबसे सैकड़ों वर्ष बीत चुके हैं और इस अंतराल में अनेकों ऐसी परिस्थितियां बनीं, ऐसी घटनायें घटीं और ऐसे अंवेषण हुये जो पूर्व में थे ही नहीं। आज वर्तमान के पास हज़ारों नवीन विचारों और लाखों नये शब्दों का ज़खीरा उपलब्ध है जो सुसंगत भी है और प्रासंगिक भी और इनका समावेश हमारी पुरानी भाषाओं की प्राचीनता व संस्कृति को संवर्धित करते हुये भविष्य की नयी यात्राओं के लिये नवीन ताजगी व ऊर्जा प्रदान करेगा। यह सही समय है जब इन भाषाओं के प्रति हठधर्मिता को त्याग कर इन भाषाओं के ढीले पेंच पुनः कसते हुये इनका यथोचित आधुनिकीकरण करना चाहिये वरना इन भाषाओं की सड़न से ‘हिंगलिश’ व ‘इमोजी’ जैसी अनेकों अधकचरी भाषाओं के शैवाल पनप कर हमारी मूल भाषाओं का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे।