गीताख्यान 1

आकृति विज्ञा ‘अर्पण’, असिस्टेंट ब्यूरो चीफ-ICN U.P.
अपनी आँखें अपना चश्मा
अपने ऐंगल से देखा है
जीवन के इस चक्रव्यूह को
गीतों ने हद तक भेदा है।
गीतों के मंदिर देखे हैं
गीतों की मधुशाला देखी
गीत अश्रु से खारे भी हैं
मदमाती सुरबाला देखी
नरगिस बेला जूही चंपा
गीत गंध से ताल मिलाती
कोयल भी देखी है हमने
इक बिरहन को गीत सुनाती
एक व्याहता को पाया है
विरह भाव में चैता गाते
एक मजूरन को देखा है
प्रियतम के संग धान कटाते
जातां चक्की के जब दिन थे
ओखल तक पर गीत सजे थे
हम सुनते हैं निर्गुण में भी
शिव मृत्यु पर मोह रहे थे
अधर नाफ़ गरदन तिल पर भी
गीतों ने हैं डेरे डाले
गीत कोई वटवृक्ष है मानो
जहाँ सुहागिन फेरे डाले
रात के बिस्तर पर हर दिन ने
गीत लिखे हैं विश्रामों के
नींद की कितनी ही सीताऐं
निकट नहीं अपने रामों के
पूर्ण हुए होंगे कुछ लेकिन
रहे अधूरे गीत बहुत से
तन्हाई में पले बढ़े कुछ
कुछ गीतों के मीत बहुत से
मुझको ऐसा भी लगता है
मेघदूत सा जीवन इनका
कालिदास ने भेजा है फिर
अपने प्रियतम को संदेशा
अनगिन गीत रहे हैं बाक़ी
अनगिन बाक़ी रह जाने हैं
 गीत अभी जाने कितने ही
 टैटू   से    गोदे   जाने   हैं
कब्र बने कुछ गीतों पर
देवों तक ने माथा टेका है
जीवन के इस चक्रव्यूह को
गीतों ने हद तक भेदा है।

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