समय का गीत: 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,

पढ़ रहा हूँ रेत पर,

मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।

1

शून्य से उपजा समय या फिर समय से शून्य आया।

यह जगत, ब्रह्माण्ड सारा सत्य है या सिर्फ़ माया।।

हम सहज ही हैं मनुज या सिर्फ़ हम परछाइयाँ हैं।

मात्र मिथ्या स्वप्न हैं हम‌ या अटल सच्चाइयाँ हैं।।

हम अधर के चक्र में हैं या अधर हम में कहीं है।

हम यहाँ पर है, वहाँ पर हैं, यहीं हैं या वहीं हैं।।

हम सभी प्रतिबिंब हैं क्या हर तरफ़ दर्पण सजे हैं।

हम अभी तक नींद में हैं या नयन अपने जगे हैं।।

ले रहा विस्तार पल पल, जन्म से अपने गगन यह।

फैलता ही जा रहा है, हो रहा क्षण क्षण सघन यह।।

नाव खेता है समय की, शून्य में, अविराम कोई।

कृष्ण समझे गति समय की, शून्य जाने राम कोई।।

दूर से आता हुआ वह श्वेत पथ है पारदर्शी ।

चल रहा जिस पर समय है दृष्टि ले हर कालदर्शी।।

छोड़ आया है विगत में हर कदम पर इक कहानी।

प्रेम अधरों पर छलकता, आँख में नमकीन पानी।।

मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ

पढ़ रहा हूँ रेत पर,

कुछ थरथराते लेख, जो बाँचे समय ने।

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