उर्दू शायरी में ‘बचपन’ और ‘बच्चे’

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 
शायद ही दुनिया का ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसे बचपन न भाता हो। हर व्यक्ति बड़ी हसरत से अपने बचपन को याद करता है। बचपन ज़िंदगी का वह खूबसूरत हिस्सा है जहाँ हर व्यक्ति खूबसूरत सपने देखता हेै और उसे विश्वास होता हेै कि यह सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में है। बचपन जितना हसीन होता हेै, उतना ही ताज़ा भी। 
बच्चे हर व्यक्ति की कमज़ोरी हैं। सिर्फ़ अपने ही नहीं, बच्चे सभी के प्यारे लगते हैं। यहाँ तक कि सिर्फ़ इंसान के ही नहीं बल्कि बच्चे तो जानवरों के भी मासूम लगते हैं। पत्थर से पत्थर दिल का व्यक्ति भी बच्चों की भोली-भाली शरारतों और उनकी मासूमियत के आगे पिघल जाता हेै। सच कहा जाये तो ज़िंदगी अपने सबसे पाक और पवित्र रूप में बचपन में ही हासिल होती है और इसीलिये कहा जाता है कि बच्चों में भगवान होते हैं या बच्चे खुदा का रूप हैं। और इसी वजह से ‘बचपन’ या ‘बच्चों’ की कोई भी बात हमेशा हमारे दिल को छू जाती है।
दुनिया की हर भाषा के साहित्य में ‘बचपन’ और ‘बच्चों’ के विषय में अलग-अलग विधाओं में बहुत ही प्रभावशाली ढंग से लिखा गया है लेकिन उर्दू साहित्य में तो इस क्षेत्र में कमाल ही कर दिया गया है। उर्दू ज़ुबान जितनी कोमल है, उतनी ही शीरी अर्थात मीठी भी हेै और इस खा़सियत की वजह से इस ज़ुबान और इसके साहित्य को दुनिया में एक अलग ही दर्जा हासिल है। जितनी शिद्दत के साथ जज़बाती पहुलुओं को इस ज़ुबान में उकेरा जा सकता है, उतना शायद दुनिया की किसी और ज़ुबान में नहीं। मुझे यह कहने में भी कोई गुरेज़ नहीं है कि वह उर्दू जु़बान ही है जिसकि वजह से लखनऊ के लखनवी अंदाज़ को सारी दुनिया ने अलग ही इज़्ज़त और मोहब्बत से नवाज़ा है।
बच्चे मन से कितने पवित्र होते हैं, यह बात केवल इस बात से ही समझी जा सकती है कि उन्हें भगवान या खुदा का प्रतिरूप माना जाता हेै। हर बच्चे के भीतर नैसर्गिक रूप से मौजूद मासूमियत निश्चित रूप से मनुष्यता का वास्तविक धर्म है। यदि हमें ‘धर्म’ या ‘मज़हब’ का सही अर्थ समझना है तो सिर्फ़ किसी बच्चे में कुदरती खूबसूरती को देखना चाहिए जो किसी भी जाँतिपात, ऊँच-नीच अथवा छोटे-बड़े के अनावश्यक वर्गीकरण से पूर्णतया मुक्त है और जो हर बच्चे में मात्र अपने जैसा बच्चा ही देखती है। ये तो हम बड़े लोग एवं हमारा घृणित समाज है जो उसे तालीम देने और होशियार बनाने के षड्यंत्र रच कर उसकी सारी मासूमियत ज़बर्दस्ती उससे छीन लेते हैं और उसे भी इस अधर्मी व घृणित समाज का हिस्सा बना लेते हैं।
उर्दू शायरी के मशहूर शायर निदाँ फ़ाज़ली का ये शेर हर किसी के दिल में उतर जाता है –
“बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़ कर ये भी, हम जैसे हो जायेंगे”
दुष्यन्त कुमार ने उर्दू भाषा की ग़ज़लों से प्रभावित होकर हिंदी ग़ज़ल के रूप में हो प्रयोग हिंदी की देवनागरी लिपि में किया, उसने ‘ग़ज़ल’ को हिंदी भाषा में भी स्थापित कर दिया और हिंदी के अनेक साहित्यकारों ने अनेक कालजयी रचनायें समाज को दीं और उन्हीं में राजेश रेड्डी एक बड़ा नाम है और उनका ‘बचपन’ को रेखांकित करता हुआ यह शेर उन्हें एक अलग ही मुक़ाम अता करता है –
“मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा,
“बड़ों की देख के दुनिया बड़ा होने से डरता है।”
राजेंद्र कलकल का एक मशहूर शेर देखें जिसकी मासूमियत हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है –
“दूर मुझसे हो गया बचपन मगर,
मुझमें बच्चों सा मचलता कौन है।”
डॉ बशीर बद्र एक ऐसा नाम है जो अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन गया है। ग़ालिब के बाद जिन शायरों के शेर हर खास-ओ-आम अादमी की ज़ुबान पर चढ़े हैं, उनमें डॉ बशीर बद्र का नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता है। उनका एक खूबसूरत शेर देखिये –
“उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में,
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते।”
बचपन का अभाव भी उर्दू शायरी का एक बड़ा विषय है जिसपर अनेक कलमकारों ने अपनी लेखनी चलाई है। प्रभात शंकर लखनऊ के ही एक बड़े शायर थे जो हिंदी भाषा से चलते हुये ग़ज़ल के खूबसूरत जुलूस में शामिल हुये और उनका यह शेर उनकी अलग ही पहचान स्थापित कर गया –
“मैं खिलौनों की दुकानों का पता पूछा किया,
और मेरे फूल से बच्चे सयाने हो गये ।”
और राशिद राही का यह खूबसूरत शेर हमें अंदर तक हिला देने की कुव्वत रखता है –
“अपने बच्चों को मैं बातों में लगा लेता हूँ,
जब भी आवाज़ लगाता है खिलौने वाला।”
मुनव्वर राना का यह खूबसूरत शेर भी‌ हमें अंदर तक भिगो जाता है –
“खिलौनों के लिये बच्चे अभी तक जागते होंगे,
तुझे ऐ मुफ़लिसी कोई बहाना ढूंढ लेना है।”
और तरुण प्रकाश का यह शेर भी इसी मौजू का शेर है –
“नए खिलौने की जिद करता बच्चा जब सोया रोकर,
टूटा हुआ खिलौना लेकर, हम तुम रोये देर तलक ।”
उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर जोश मलिहाबादी,जो देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे, का यह खूबसूरत शेर देखिये –
“मेरे रोने का जिसमें किस्सा है,
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है।”
और उस्ताद शायर क़ैफ़ी आज़मी का यह बेहतरीन शेर किसी के भी दिल को अंदर तक भिगो सकने में सक्षम है –
“मेरा बचपन भी साथ ले आया,
गाँव से जब भी आ गया कोई।”
कितने कमाल का शेर है शायर नुशूर वाहिदी का यह खूबसूरत शेर जो हर इंसान की ज़िंदगी में बचपन की अहमियत की नुमाइंदगी करता है –
“बड़ी हसरत से इंसा बचपने को याद करता है,
ये फल पक कर दोबारा चाहता है खाम हो जाये।”
बचपन की पवित्रता व मासूमियत में खुदा की मौजूदगी पर निदा फ़ाज़ली का यह मशहूर शेर अपने आप में एक मुक़म्मल दस्तावेज़ है –
“घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए।”
और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी शायरी का जादू बिखेरने वाले शायर मुनव्वर राना का यह खूबसूरत शेर भी अपने आप में सब कुछ बयान करता है –
“फ़रिश्ते आकर उनके जिस्म पर खुशबू लगाते हैं,
वे बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं।”
और मुनव्वर राना का एक और बहुत खूबसूरत शेर आपसे शेयर करता हूँ –
“भले लगते हैं स्कूलों की यूनिफार्म में बच्चे,
कँवल के फूल से जैसे भरा तालाब रहता है।”
तरुण प्रकाश का यह शेर भी बच्चों की हँसी में जन्नत की तस्दीक करता है –
“एक मकाँ वैसे हूँ ईटें गारे का,
बच्चे हँसते हैं तो घर बन जाता हूँ।”
और तरुण प्रकाश का ही एक और शेर दृष्टव्य है –
“तकदीर में इस घर की, बच्चे तो नहीं लेकिन,
पौधों को चलो सींचें, फूलों को छुआ जाये।”
बचपन में बच्चों की दुनिया कितनी छोटी और सपने कितने बड़े होते हैं, इसकी गवाही मुज़्ज़फ़र हनफ़ी का यह शेर बखूबी देता है। ज़रा आप भी देखिये –
“बचपन में आकाश को छूता सा लगता था,
इस पीपल की शाखें अब कितनी नीची हैं।”
बच्चों की दुनिया जादू की दुनिया होती है। बचपन परियों, सपनों, फूलों और रंगबिरंगी तितलियों का समेकित (कंसालीडेटेड) नाम है। यह कोमलता, यह मासूमियत और ये दिल को छूने वाली तस्वीरें केवल हमें बचपन ही दे सकता हेै। सिराज फैज़ल खान का यह शेर ज़रा देखिये तो –
“किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती हैं,
टिफिन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मु्सकुराता है।”
औेर तरुण प्रकाश का यह शेर भी इसी मौजू का शेर है –
“बहुत मासूम है बच्चा, चला था सीख कर घर से,
मगर दहलीज़ पर आकर, बहाना भूल जाता है।”
हम और हमारा समाज बच्चों के मासूम बचपन को कुंठा, निराशा और अवसाद के अतिरक्ति भला और क्या दे रहे हैं। आदिल मंसूरी फ़रमाते हैं –
“चुपचाप बैठे रहते हैं कुछ बोलते नहीं,
बच्चे बिगड़ गये हैं बहुत देखभाल से।”
और तरुण प्रकाश कहते हैं –
“जिन किताबों से सनद उसको मिली थी,
आजकल उनके लिफाफे बेचता है।”
बचपन और बच्चे किसी भी देश और साहित्य के वे महत्वपूर्ण हिस्से हैं जो कभी भी बासी नहीं होते। वे हमेशा अपनी ताज़गी और मासूमियत से समाज और समय को खुश्बूदार बना देते हैं। ये तमाम शायर और उनके मन को छू जाने वाले ये शेर हमें यह आगाह करते हैं कि बच्चों का आज का बचपन कल हमारा भविष्य है। यह दुनिया तभी कल आदमी के रहने योग्य दुनिया बन पायेगी जब हम बच्चों का बचपन उन्हें वापस सौंप देंगे और उनके रूप में हमारी दुनिया छोटे-छोटे मासूम फ़रिश्तों की खूबसूरत बस्ती बन जायेगी।
आमीन्।

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