समय का गीत: 2

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,

पढ़ रहा हूँ रेत पर,

मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।

2

हैं हवा में कुछ पुराने पृष्ठ पीले फड़फड़ाते।

फट चले कुछ पृष्ठ,रह-रह,थरथराते-कंपकंपाते।।

ग्रीस के विस्तार की वे सिर उठाती सभ्यतायें।

और बेबीलोन की अद्भुत निराली सर्जनायें।।

नील की जलधार पर हँसते विचरते रंग यौवन।

और तट पर साँस लेता मुक्त वैभवयुक्त जीवन।।

मिस्र की वह सभ्यता, रंगीनियों की वह कहानी।

रह गयी इतिहास में ही शेष फ़ारस की निशानी।।

सिंधु घाटी में पनपते वे हड़प्पा के ज़माने।

और मोहनजोदड़ो के वे नगर, वे आशियाने।।

मैक्सिको के जंगलों में कब्र माया सभ्यता की।

साक्ष्य है निर्माण की, विध्वंस की अनिवार्यता की।।

वे अजंता की गुफ़ाएँ, वे एलोरा की कहानी।

बन गयी इतिहास पर श्रृंगार की जीवित जवानी।।

थक गये सब, रुक गये सब, पर समय चलता रहा है।

सब बुझे पर एक दीपक काल का जलता रहा है।।

मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,

पढ़ रहा हूँ रेत पर,

बुझते बुझाते लेख, जो बाँचे समय ने।

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