प्रवासी मजदूर: भूत वर्तमान और भविष्य

डॉ अनुरूद्ध वर्मा, एम डी(होम्यो ) वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक, सीनियर एसोसिएट एडीटर-ICN ग्रुप 

बेहतर आमदनी एवँ अच्छे जीवन की उम्मीद लिये देश के गॉवों के करोड़ों मजदूर भिन्न-भिन्न राज्यों में मजदूरी करने के लिऐ  मजबूर हैं ।

अपना गांव, वतन, जमीन छोड़कर जीवकोपार्जन के लिए  दूसरी जगह जाने के लिए विवश इन मजदूरों को परदेश कमाने वाला एवं आधुनिक भाषा में प्रवासी मजदूर कहा जाता है ।यह मजदूर वहां  राजगीरी, रिक्शा चलाना, ईंट गारा देना, ईंट भट्ठे पर काम करना, फ़ैक्टरियों में छोटी मोटी नौकरी करना, बढ़ाईगीरी, ठेला लगाना, रंगाई पुताई या पेंटिग, पल्लेदारी, सामान ढोना, नाइगीरी, कपड़े धोने एवँ प्रेस करने, बिजली मिस्त्री का काम ,ऑटो चलाना, घरेलू काम, ड्राइवर  आदि का काम करते हैं जहाँ पर इन्हें अपने गाँव से कुछ ज्यादा मजदूरी मिल जाती है परंतु वहाँ पर कठिन मेहनत करने के बाद भी  उन्हें मलिन बस्तियों के छोटे -छोटे  कमरों, झुग्गी झोपड़ियों, गंदी बस्तियों ,खुले आसमान के नीचे रहने एवँ सोने के लिए मजबूर होना पड़ता है। जहां कुछ मजदूर परिवार के साथ रहते थे वहीं पर कुछ अकेले  रहते हैं और साल में एकाध बार  होली दीवाली में अपने  गाँव का चक्कर लगा लेते हैं तथा घर वालों की आर्थिक मदद भी कर देते हैं । इन परिस्थितों में पौष्टिक आहार ना मिलने, गंदगी, प्रदूषित पानी, अस्वच्छ वातावरण के कारण ज्यादातर मजदूर अनेक गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और जवानी में ही बूढ़े हो जातें हैं। इनके ना तो उचित इलाज़ की कोई   व्यवस्था है ना रहने की ना किसी के बीमा आदि की ।इनके मालिक इनसे काम तो अधिक लेतें है मगर पगार कम देतें हैं। बीमार होने अथवा किसी दुर्घटना का शिकार होने पर इनका परिवार फुटपाथ पर आ जाता है और दर दर की ठोकरें खाने के लिए  मजबूर हो जाता है।दुनिया एवँ देश में फैल रहे कोरोना संक्रमण के कारण सरकार द्वारा एकाएक घोषित लॉक डाउन के कारण सभी काम धंधे  एकदम से बंद हो गए सब कुछ ठहर गया उन्हें काम मिलना बंद हो गया। मालिकों ने कुछ दिन तक खाने पीने की  कुछ व्यवस्था की बाद में उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए । सब कुछ बन्द हो जाने से उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे  खाने -पीने में धीरे -धीरे सब खर्च हो गए और उनके सामने भुखमरी की स्थिति उत्पन हो गई।रेल, बस एवँ आवागमन के अन्य सभी साधन बंद हो जाने के कारण मजदूर जहाँ थे वंही पर फंस कर रह गए। जिन राज्यों में मजदूर काम कर रहे थे  वहां की सरकारों ने भी अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से नहीं निभाई उनके खाने- पीने की  सही व्यवस्था नहीं की और उनके गृह राज्यों ने भी मजदूरों को वापस लाने के बारे में कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई। ऐसी स्थिति में जब मजदूरों को भूख  बर्दाश्त नहीं हुई और भुखमरी की स्थिति नजर आने लगी तो सरकार की जो जहां है वंही रहे की अपील के बावजूद   मजदूरों  पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर पैदल ही अपने गाँव की ओर चल दिये।

यदि मीडिया ख़बरों की मानें तो अनेक लोगों ने भूख, प्यास, कमजोरी, थकान के कारण  रास्ते में ही दम तोड़ दिया और तमाम लोग दुर्घटनाओं का शिकार हो गए तथा  कुछ लोग हफ्तों बाद किसी तरह अपने घर पंहुचे और बीमार भी हो गए ।सड़कों पर सिर पर गठरी, पैरों में छाले, पैरों से निकलता खून ,महिलाओं के गोद में बच्चे, , भूख से बिलखते रोते हुए बच्चों के हुजूम की तस्वीरेँ  दर्दनाक मंजर का बयान कर रही थीं।मजबूरी के मारे हजारों मजदूर साइकिल, रिक्शा, ठेला जैसे जो मिला उसी साधन से चल दिये कुछ ट्रक आदि से किसी तरह छिप कर  अपने गांव की ओर चल दिये।

मजदूरों के गृह राज्यों ने भी उन्हें वापस बुलाने  मुद्दे पर  हाँ ना करते हुये देर से निर्णय लिया। सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई बसों एवँ रेल से अभी भी मजदूरों का अपने वतन आना जारी है।  मजदूरों का पैदल  आने का सिलसिला अभी थम नहीं रहा है क्योंकि सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए साधन पर्याप्त नहीं है । ट्रेन और बस से आये  कुछ मजदूर यात्रियों का  कहना है कि उनसे किराया लिया गया तथा उनके भोजन आदि की भी उचित व्यवस्था नहीं हुई फिर भी हमें अपने घर पहुंचने का संतोष है। वापस आने के बाद सभी मजदूरों को कोरेंटीन किया जा रहा है साथ हीब कुछ मजदूर कोरोना संक्रमित भी मिल रहे हैं। इस बेबसी के मंजर को देखने और भोगने  के बाद ज्यादातर मजदूरों का यह कहना हैअब हम अपना गांव छोड़ कर नहीं जायेगें  यंही पर किस तरह गुजर बसर कर लेगें परंतु अब दुबारा  परदेश कमाने नहीं जायेगें क्योंकि इस बार तो किसी प्रकार ज़िंदा वापस आ गए  पर अगली बार वापस अपना गांव देख पायेंगे भी  की नहीं यह जरूरी नहीं है।

मजदूरों के अपने गाँव वापस आने के बाद अब इनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या होगी नये सिरे से जीवन शुरू करने की क्योकि ज्यादातर मजदूरों के पास बहुत कम ज़मीनें हैं इसलिये केवल खेती कर जीवन यापन कर पाना  मुश्किल है। गांवों में कल कारखाने , फैक्टरियाँ एवं लघुउधोग  भी नहीं हैं कि उनमें सभी मज़दूरों को काम मिल सके और खेती किसानी में केवल सीजन पर काम होता है  गांव में रोजगार के अवसर भी सीमित हैं इसलिए इन्हें यहां भी काम के लिए संघर्ष करना पड़ेगा । कुछ मजदूरों को मनरेगा में काम मिल सकता है परंतु सभी को मिल पायेगा इसमे संशय है। मजदूरों को एक संघर्ष से उबरने के बाद  अभी दूसरे संघर्ष से भी जूझना पड़ेगा जो उन्हें गांव ने स्थापित होने के लिए करना होगा। केंद्र सरकार द्वारा  जारी पैकेज से मजदूरों में कुछ राहत की आशा जगी है। प्रवासी से गांववासी बने मजदूरों के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को इन मजदूरों के  रोजगार  एवँ पुनर्वास के लिए ठोस रणनीति एवम कार्य योजना बना कर काम करना पड़ेगा रोजगार के नए अवसर तलाशने होंगे कुटीर ,लघुउधोग स्थापित करने होगें  और इन्हें गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराना होगा तभी इनके जीवन की स्थिति सुधरेगी और गाँव से शहरों की ओर पलायन रुकेगा । मजदूर जिस सपने को लेकर अपने गाँव, जमीन और वतन को वापस आये हैं वह सपना पूरा होगा और खुशहाल आत्मनिर्भर भारत का निर्माण हो सकेगा।

डॉ अनुरूद्ध वर्मा, लेखक स्वतंत्र लेखक हैं

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