तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
मिटते मिटाते लेख, जो बाँचे समय ने।
हैं समय के भेद गहरे, शून्य है क्या क्या छिपाये।
है जगत कितना अनूठा, किंतु हम कब जान पाये।।
था कहा गैगोलियो ने, है धरा फुटबॉल जैसी ।
सिद्ध न्यूटन ने किया, गति की जगत में रीति कैसी।।
बेंज़ ने दे कार कर दी पूर्ण गति की खूब हसरत।
वायु में उड़ने लगा, इंसान राईट की बदौलत।।
आइंस्टाइन ने दिया हम को नियम सापेक्षता का।
छू लिया फिर मनुज ने इक और स्तर सभ्यता का।।
था अपोलो इस धरा से चल दिया फिर चाँद छूने।
फिर बनाये ज्ञान के, विज्ञान के, हमने नमूने ।।
विश्व नासा और इसरो का समर्पण देखता था।
किंतु अणु परमाणु के भी ध्वंस अक्सर झेलता था।।
खोज इंटरनेट लिया, आखिर कहाँ इंसान पहुँचा।
चाँद के पश्चात मंगल पार मंगल यान पहुँचा।।
क्या धवन के योग, साराभाई का कोई बदल हैं।
अग्नि के ये पंख अद्भुत हैं, प्रखर प्रहरी अटल हैं।।
मैं समय के सिंधु तट पर आ खड़ा हूँ,
पढ़ रहा हूँ रेत पर,
कुछ कीर्ति गाते लेख, जो बाँचे समय ने।