श्रम का भीड़तंत्र : 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

कोरोना संक्रमण काल में पिछले दिनों राष्ट्रीय स्तर पर जिन बड़े चौंकाने वाले और एक सीमा तक भारतीय मानस को कंपकंपा कर रख देने वाले प्रश्नों ने जन्म लिया है, उनमें औद्योगिक समाज द्वारा श्रम की उपेक्षा और लॉक डाउन में भूख-प्यास से त्रस्त असंगठित श्रम समाज द्वारा आत्महत्या के द्वार पर दस्तक देने सरीखे दुसाहस का परिचय देना सबसे गंभीर मुद्दा है।

चीन के बाद आबादी की दृष्टि से विश्व में दूसरे सबसे बड़े देश भारत में ये स्थितियां एक बड़ा यक्षप्रश्न है और समय रहते इसका समुचित उत्तर ढूंढना इस समय हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय कर्तव्य है।हम एक ऐसे देश के नागरिक है जो आज विश्व के सबसे विकसित देशों और अर्थव्यवस्थाओं को भी चुनौती देने के मानक स्तर पर धीरे-धीरे पहुँचता जा रहा हेै औरअंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतवर्ष की बढ़ती धाक जहाँ एक ओर मित्र देशों को आश्वस्त कर रही है एवं दूसरी ओेर विपक्षियों की नींद उड़ा रही है। वहाँ हमारी असली शक्ति हमारा ‘भूरा सोना’ अर्थात हमारे श्रमिक‌ों का किसी जन सिंधु की तरह महानगरों से अपने-अपने परिवारों के साथ भूख और प्यास से तड़पते सैकड़ों मीलों की पैदल यात्रा को विवश हो सड़कों पर बिछ जाना हमारी सामाजिक चिटकन का एक ऐसा दर्पण है जो बिना कुछ कहे सब कुछ बयान कर रहा है।

भारतवर्ष के लगभग हर बड़े शहर की सड़कों पर यही दृश्य हैं। समझ में नहीं आता कि आखिर हम किस शक्ति के बदौलत स्वयं को दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का दिवा स्वप्न देख रहे हेैं। हम दुनिया के सबसे बड़े कृषि प्रधान देश हैं किंतु हमारे देश का किसान मानसून की अनिश्चितता और दलालों से पटी बाज़ार के चलते नित्य प्रति आत्महत्या करने को विवश है। हमारा स्वप्न औद्योगिक क्षेत्र में लंबी छलांग लगा कर न केवल स्वयं आत्मनिर्भर बनने बल्कि विश्व के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपनी बड़ी हिस्सेदारी सिद्ध करने का है किंतु हमारा श्रमिक पंद्रह दिन के लॉकडाउन मात्र में अपनी पत्नी व छोटे छोटे बच्चों के साथ भूखे प्यासे सैकड़ों मील की आत्मघाती पैदल यात्रा पर विवश है। इन चित्रों ने हमारी सामाजिक तस्वीर की उन गहरी दरारों को हमारे सामने ही नहीं वरन् समस्त विश्व के सम्मुख भी उपस्थित कर दिया जो हमारे दावों का खोखलापन साबित कर रहे हैं। आखिर हमारी अर्थव्यवस्था की नींव में कितना पानी भरा है, यह हमने देख ही लिया। क्या ऐसा नहीं लगता कि आज तक हम जिस मज़बूत आर्थिक किले का चित्र सबके सामने प्रस्तुत कर रहे थे, वह किसी जर्जर झोपड़ी पर जतन से चढ़ाया गया मुलम्मा ही था जो बारिश के एक हल्के से छींटे से ही धुल गया?

गाँवों में आज तक सामंती व्यवस्था का जीवित रहना, कृषि की श्रेष्ठ व नवीनतम तकनीकों से गरीब किसानों को परिचित कराने के प्रति शासकीय उपादानों की ग़ज़ब की उदासीनता, बाज़ार में हर स्तर पर व्याप्त दलालों की बहुस्तरीय पर्तें व गले-गले तक पहुँचा भ्रष्टाचार – एक गरीब किसान यदि अव्यवस्था के ऐसे खूनी दानवों से युद्ध में पराजित हो किसी पेड़ पर रस्सी से लटक कर अपनी जान न दे तो आखिर क्या करे? दूसरी ओर दसियों वर्षों से अपने गाँव घर से दूर दूसरों के लिये खून पसीना बहाने वाला एक गरीब श्रमिक पुराने हो चले श्रम कानूनों की उपस्थिति के बावजूद भी उसके लाभों से पूर्ण वंचित होकर, इतने वर्षों के बावजूद भी केवल पंद्रह दिनों तक काम से वंचित होने पर भूख प्यास से तड़पते हुये अपने परिवार के साथ जलती धूप में बोरिया बिस्तर सँभाले आत्मघाती सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र के लिये बाध्य हो जाता है तो हमारी अर्थव्यवस्था चकनाचूर होती दिखाई पड़ती है। किसी भी अर्थव्यवस्था का आधार ‘उत्पादन’ ही हेै और जब हमारा श्रमिक, हमारा मजदूर ही इतना हताश और विवश हेै तो हमारी तथाकथित श्रेष्ठ अर्थव्यवस्था हमारी आत्मश्लाघा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

एक बड़ा सवाल है लॉकडाउन के समय देश के हर महानगर एवं बड़े नगरों से घर वापसी के लिये श्रमिकों के जन सैलाब का फूटना, भूखी-प्यासी भीड़ का घर वापसी हेतु सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करना, रास्ते में हज़ारों जनपदीय व प्रांतीय अवरोधों को झेलना और अनेक मार्ग दुर्घटनाओं का शिकार होना और कभी वापस न लौटने की शपथ लेना और उससे भी बड़ा सवाल है कि श्रमशक्ति से वंचित अब इन महानगरों व बड़े नगरों को औद्योगिक कार्यवाही के संचाकन की हरी झंडी मिलने के बाद आखिर उत्पाद न कार्य शुरू कैसे हो। सवाल तो यह भी है कि देश भर में फैले श्रमिकों के अपने-अपने ग्रामों व जनपदों में एकत्रीकरण के पश्चात आखिर उन्हें समायोजित करने के लिये उस मात्रा व अनुपात में रोज़गार कहाँ से लाया जाये। वर्तमान ‌में स्थिति यह हेै कि जहाँ रोज़गार व रोज़गार के अवसर हैं, वहाँ श्रम शक्ति नहीं है और जहाँ श्रमशक्ति का जमावड़ा है, वहाँ रोज़गार नहीं है। किसी भी प्रांतीय सरकार के पास इस विषम स्थिति से निपटने हेतु फिलहाल कोई समुचित रोडमैप नहीं है।

‘जान है तो जहान हेै’ के मंत्र से बढ़ कर ‘जान भी जहान भी’ और फिर ‘आर्थिक आत्मनिर्भरता’ के महामंत्रों के उच्चारण क्या श्रमिकों की बिना समुचित व स्थायी व्यवस्था किये बगैर किसी प्रभाव को उत्पन्न करने में  सक्षम सिद्ध होंगे, यह गहन चिंतन का विषय है। इस स्थिति को हमें समस्या के दोनों किनारों पर जाकर परखना होगा। पहला किनारा है निजी ग्रामों व जनपदों में अनायास श्रमिकों व उनके परिवारों का जमावड़ा ।

पहला प्रश्न- क्या ऐसे ग्राम व जनपद आबादी का यह अनायास उत्पन्न भार वहन करने में समर्थ हैं? क्या श्रमिकों की इस तीव्र भूख-प्यास का उत्तर ऐसे अविकसित क्षेत्रों के पास उपलब्ध हैं? क्या ऐसे इलाकों में उपयुक्त रोज़गार हेतु संसाधन व संभाव्यता उपलब्ध है? एक सामान्य अध्ययन यह बताता है कि ऐसे ग्रामों व क्षेत्रों से रोज़गार हेतु पूर्व में हुआ पलायन केवल युवा वर्ग की कृषि के प्रति अरुचि अथवा अनास्था के चलते ही नहीं हुआ बल्कि ग्रामों में कृषि योग्य भूमि की कम होती उपलब्धता व उसपर नित्य प्रति बढ़ते भार के कारण भी हुआ था। पिता के पास थोड़ी सी भूमि थी जिसपर कृषि करने पर उसका चार पुत्रों वाले परिवार का जीवन निर्वाह तो संभव था किंतु उसके बाद उसके चारों पुत्रों के अपने-अपने परिवारों अर्थात चार परिवारों का जीवन निर्वाह उस भूमि के टुकड़े द्वारा कदापि संभव नहीं था इसलिये तीन परिवारों का पलायन तो होना ही था।

भारतीय गाँवों में आज भी आर्थिक विकास गूलर के फूल जैसा ही है और ऐसी स्थिति में क्या यह तथाकथित ‘घर वापसी’ पीछे छूट गये एक परिवार की रोटी-चटनी छीनना सदृश नहीं है? वस्तुत: अब रोज़गार तीन परिवारों के लिये नहीं बल्कि चारों परिवारों की आवश्यकता बन गया है। अनेकों प्रदेश आज भी पिछले कई दशकों से किसी औद्योगिक अभ्युदय का स्वप्न देख रहे हैं और प्रदेश सरकारों के विलासी बजटों में उन्हें आज तक केवल ठेंगा ही दिखाया गया है। कमाल तो यह है कि हमें नींव में पानी की उपस्थिति का पता तब चला जब पानी हमारे सर के ऊपर तैर रहा है।

हम सब अनुभव करते रहे हैं कि पिछले तीस-चालीस सालों से हम इस तैयारी व विश्वास  के साथ अपने बच्चों को शिक्षा दिलवा रहे हैं कि उन्हें अपनी जीविकोपार्जन हेतु जनपद से, प्रदेश से और कभी कभी तो देश से भी बाहर जाना है। यह मानसिकता जहाँ एक ओर अपने पड़ोसी पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का क्रूर सुख है वहीं दूसरी ओर अपने स्थानीय आर्थिक भविष्य की उड़ती धज्जियों का एक अवसादपूर्ण दृश्य भी है। प्रश्न यह भी है कि यह हमारी वैयक्तिक चूक तो है ही, हमारी गंभीर राजनैतिक चूक भी है जिसने तीन-चार दशकों में हमने तथाकथित विकास की जितनी सीढ़ियाँ चढ़ी थीं, एक साँप ने हमें एक झटके में ही उससे भी नीचे लाकर धरातल पर खड़ा कर दिया।

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