उर्दू शायरी में ‘ईद’

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

दरअसल “ईद” सिर्फ़ एक त्यौहार या पर्व ही नहीं है बल्कि ईद “दीपावली”, ” होली” एवं “क्रिसमस” की तरह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति भी है। ईद ज़िंदगी को सर्वश्रेष्ठ ढंग से जीने का सलीका है।भारतवर्ष में ‘ईद’ केवल मुसलमान भाई-बहनों का ही नहीं बल्कि सारे मुल्क का त्यौहार है।

‘ईद’ इस्लाम धर्म का मूल बिंदु है और यह अपने आप में इतने संदेश व पवित्र विचारधारायें समेटे हैं कि दुनिया का हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी धर्म, मज़हब अथवा पंथ से संबंधित हो, इससे प्रभावित हुये बिना नहीं रहता। ईद का नाम आते ही सबसे पहले ज़ह्न में जो तीन चीज़ें आती हैं, वे हैं – मीठी लच्छेदार सिंवई, भाईचारा और ज़क़ात (दान) और ये तीनों चीज़ें इसे और विशिष्ट बना देती हैं।

ईद की शुरुआत चाँद को देखने से होती है जो भाईचारे से गले मिलते हुये आर्थिक रूप से कमतर भाईयों को ज़कात देते हुये खुशियों व उमंग के साथ शीरी सिंवई सहित लाजवाब पकवानों के लुत्फ़ में डूब जाती है और पूरे विश्व में कम से कम इस एक दिन के लिये धर्म अपनी पूरी चमक व ऊर्जा के साथ उपस्थित रहता है।

उर्दू शायरी के दर्पण में ‘ईद’ की खूबसूरती को वस्ल (मिलन) और हिज्र (जुदाई) के चश्मों से अलग-अलग नज़रिये से देखा गया है और हर बार इसका अंदाज़ कुछ जुदा ही है। ईद एक ऐसा मौजू है जिस पर न केवल मुस्लिम शायरों ने बल्कि गैर मुस्लिम अदीबों ने भी जम कर अपनी कलम चलाई है जिससे यह सिद्ध होता है कि भारतवर्ष में ‘ईद’ केवल मुसलमान भाई-बहनों का ही नहीं बल्कि सारे मुल्क का त्यौहार है।

आईये, उर्दू शायरी के चश्में से इस खूबसूरत त्यौहार को इसके अलग-अलग अंदाज़ में परखने की कोशिश करते हैं।

 

किसी अज्ञात शायर ने क्या खूब कहा है –

 

ईद का चाँद तुमने देख लिया,

चाँद की ईद हो गयी होगी।”

 

दिलावर अली आज़र का यह अंदाज़ कितना खूबसूरत है –

 

उससे मिलना तो उसे ईद मुबारक कहना,

यह भी कहना कि मेरी ईद मुबारक कर दे।”

 

जलील निज़ामी की अपने महबूब को यह हिदायत नि:संदेह ईद और महबूब, दोनों की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती है और अनायास ही दिल बोल उठता है, वाह..वाह..

 

माह-ए-नौ देखने तुम छत पे न जाना हर्गिज़

शहर में ईद की तारीख़ बदल जायेगी।”

 

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़ बड़े ही आशावादी हैं कि उनकी तमन्ना ईद में ज़रूर पूरी होगी। यह रहा उनका अपने आप बोलता हुआ शेर –

 

अगर हयात है, देखेंगे एक दिन दीदार,

कि माह-ए-ईद भी आख़िर है इन महीनों में।”

 

जनाब अब्दुल सलाम फ़रमाते हैं –

 

ईद का दिन है गले मिल लीजे,

इख़्तिलाफ़ात हटा कर रखिये।”

 

‘इख़्तिलाफ़ात’ का अर्थ है ‘मतभेद’।

 

त्रिपुरारि एक गैर मुस्लिम शायर हैं लेकिन ईद की मस्ती से सराबोर हैं –

 

ऐ हवा तू ही उसे ईद मुबारक कहियो,

और कहियो कि कोई याद किया करता है।”

 

जनाब शाद लखनवी का यह खूबसूरत शेर बड़ी सफ़ाई से किसी की बेपनाह खूबसूरती की नुमाइंदगी करता है –

 

इश्क-ए-मिज़्गाँ’ में हज़ारों ने गले कटवाये,

ईद-ए-कुरबां में जो वो ले के छुरी बैठ गया।”

 

यहाँ पर ‘इश्क-ए-मिज़्गाँ’ का अर्थ ‘आँख की भवों का प्यार’ तथा ‘ईद-ए-कुरबां’ का अर्थ ‘कु़रबानी का त्यौहार ईद’।

 

ईद का वास्तविक अर्थ बड़ी ही गहराई से समझते हैं शायर सैफ़ी सरोंजी और तभी तो वे कहते हैं –

 

अपनी खुशियाँ भूल जा, सबका दर्द खरीद,

‘सैफ़ी’ तब जाकर कहीं, होगी तेरी ईद।”

 

किसी अज्ञात शायर का ईद पर यह बहुत खूबसूरत शेर तो देखिये भला –

 

ईद आई, तुम न अाये, क्या मज़ा है ईद का,

ईद ही तो नाम है इक दूसरे की दीद का।”

 

पूरे साल का दर्द इस एक ईद के मौके पर कैसे उभर कर बाहर निकलता है, इसकी बेहतरीन नुमाइंदगी जनाब क़मर बदायुनी का यह खूबसूरत शेर करता है –

 

ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम,

रस्म-ए-दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है।”

 

कभी कभी ईद तो ख़त्म होने को ही नहीं आती क्योंकि ईद खूबसूरती का ही दूसरा नाम है। कम से कम एक अज्ञात शायर तो यही समझता है तभी तोे उसने यह खूबसूरत शेर दुनिया की नज़र किया – 

 

ईद के बाद वो मिलने के लिये आये हैं,

ईद का चाँद नज़र आ‌ने लगा ईद के बाद।”

 

गुलाम भीक नैरंग की नज़र में महबूब से मिलन ही वास्तविक ईद है। वे कहते हैं – 

 

कहते हैं ईद आज है, अपनी भी ईद होती,

हमको अगर मयस्सर, जानाँ की दीद होती।”

 

कितनी मायूसी है शायर ज़फ़र इक़बाल के इस शेर में, ज़रा देखिये तो –

 

तुझको मेरी न मुझे तेरी ख़बर जायेगी,

ईद इस बार भी चुपके से गुज़र जायेगी।”

 

आंचलिक सुषमा के प्रतिनिधि शायर जनाब बेकल उत्साही की अपनी अलग ही परेशानी है। देखिये तो क्या कहते हैं वे – 

 

तुम बिन चाँद न देख सका, टूट गयी उम्मीद,

बिन दर्पन बिन नेैन के, कैसे मनाये ईद।”

 

एक अज्ञात शायर तो ईद के इस मुबारक मौके पर चाँद को भी चुनौती देने से नहीं चूकता –

 

देखा हिलाल-ए-ईद तो, आया तेरा ख़याल,

वो आसमाँ का चाँद है, तू मेरा चाँद है।”

 

बेख़ुद बदायुनी अपने महबूब को याद कर ईद के मौके पर फ़रमाते हैं –

 

हासिल उस महलक़ा की दीद नहीं’

ईद है और हमको ईद नहीं ।”

 

जनाब मुसहफ़ी गुलाम हमदानी साहब फ़रमाते हैं –

 

है ईद का दिन आज तो लग जाओ गले से,

जाते कहाँ हो जान मेरी आ के मुक़ाबिल।”

 

उनका एक और शेर मुलाहिज़ा फ़रमायें –

 

वादों पे ही हर रोज़ मेरी जान न टालो,

है ईद का दिन अब तो गले हमको लगा लो।”

 

मोहम्मद असदुल्लाह साहब ने तो ईद के अवसर पर सारी दुनिया को ही मुबारकबाद दे दी है –

 

महक उठी है फज़ा पैरहन की खुश्बू से,

चमन दिलों को खिलाने को ईद आयी है।”

 

ज़माना बहुत बदल गया है। शायद वो ईद की शोखियाँ आज गुम होने लगी हैं और ज़ह्न में मस्ती की जगह एक अनजाना सा डर बैठने लगा है। तभी तो एक अज्ञात शायर कह उठता है –

 

मिल के होती थी कभी, ईद भी दीवाली भी,

अब यह हालत है कि डर डर के गले मिलते हैं।”

 

उर्दू शायरी के बेमिसाल शायर जोश मलिहाबादी बँटवारे के समय भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गये थे लेकिन अपने इस फ़ैसले पर उन्हें ताज़िंदगी मलाल रहा। वे फ़रमाते हैं –

 

बादबाँ नाज़ से लहरा के चली बाद-ए-मुराद,

कारवाँ ईद मना काफ़िला-सालार आया।”

 

जनाब तश्ना आज़मी मंच और किताबों, दोनों के बड़े शायर हैं। लोग उन्हें शौक से सुनते भी हैं और पढ़ते भी हैं। आईये, देखें कि वे क्या फ़रमाते हैं – 

 

बहाने चाँद के आते, ज़रा सी दीद हो जाती।

तुम्हारी ईद से पहले हमारी ईद हो जाती।”

 

और एक खूबसूरत शेर यह भी –

 

मनाई होगी औरों ने, हमारी ईद बाक़ी है।

सनम तुझसे मुहब्बत की अभी तजदीद बाक़ी है।”

 

‘तजदीद’ का अर्थ ‘नवीनीकरण’ है।

 

जनाब सुहैल काकोरवी अपने आप में चलती फिरती‌ ज़िंदा शायरी हैं। बहुत बेहतरीन शायर और लखनऊ जैसे उर्दू शायरी के स्कूल में तो वे शायरी के पर्याय माने जाते हैं। वे फ़रमाते हैं –

 

आँखों का नूर दिल का उजाला हिलाले ईद,

तेरे हसीन चेहरे का जलवा हिलाले ईद।

 

बेशक है सबके वास्ते खुशियों का आज दिन,

तेरा हिलाले ईद न मेरा हिलाले ईद।”

 

‘हिलाल-ए-ईद’ का अर्थ है ‘ईद का चा़ँद’।

 

भाई विवेक भटनागर ग़ज़ल के वे युवा हस्ताक्षर है जिनमें चमक भी है और संभावना भी। बात को अलग पहलू से कहने का अंदाज़ उन्हें और भी विशिष्ट बना देता है। आइये, मिलते हैं इस युवा ग़ज़लगो से – 

 

ईद है, आइए गले मिल लें,

ऐसा मौका न जाने कब आए।”

 

एक शेर और – 

 

ईद कैसे हो हम ग़रीबों की,

ईद का चांद हो गए हैं वो।”

 

भाई मंजुल मयंक मिश्रा हिंदी पगडंडियों से सफ़र करता हुआ एक ऐसा नाम है जिसने तेज़ी से शायरी के राजपथ पर अपने कदम जमाये हैं। उनको‌ सुनना सदैव अच्छा लगता है –

 

चलो  मांगें  दुआ  सब  मिलके  आओ  ईद आई  है।

महब्बत  से   गले   सबको   लगाओ   ईद  आई  है।

 

तुम्हें  गुझिया ओ पापड़ हमने होली में खिलाया था,

दही  फुलके  सिवइँया  तुम  खिलाओ  ईद  आईहैं।

 

ईद बरस का सबसे खूबसूरत मौसम है। तीस रोज़ों के बाद यह इस तरह हाथ आता है जैसे हर साल कड़ी मेहनत से सैकड़ों फुट मिट्टी खोदने के बाद यह नायाब खज़ाना हमें हासिल होता हो। यह चाँद का त्यौहार है, यह मोहब्बत का त्यौहार है और यह गले लगने का त्यौहार है।

 

मैं ‘तरुण प्रकाश’ अपने कहे एक शेर से इस बात को इस तरह ख़त्म करना चाहूँगा –

 

जिसे मैं चाँद, तू औ’र वस्ल कहता,

ज़माना ‘ईद’ उसको कह रहा था।”

अमिताभ दीक्षित साहित्य, संगीत, कला व फिल्म की समेकित दुनिया के हस्ताक्षर हैं। साहित्य की लगभग हर विधा पर उनकी मज़बूत पकड़ है। उनके अंदाज़ में ‘ईद’ कुछ इस तरह से है –
“ख्वाबों के ईदगाह में माजी ने की नमाज़,
यादों से गले मिल लिए और ईद हो गयी ।”
और
“फ़ितरा न जानमाज़ न तकबीर न दुआ,
तुमने  गले लगाया मेरी ईद हो गयी।”

 

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