तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
भाग-2
अक्सर कचोटती है मन की यह हूक, हमें,
क्या धार समय की सिर्फ़ बहा ले जायेगी।
हम पुत्र अपाहिज कथनी के ही सिद्ध हुये,
या करनी हमसे भी इतिहास लिखायेगी।। (1)
क्या जीवन साँसों का है आना-जाना भर,
या नश्वर जीवन अमृत भी बन सकता है।
टूटे तारों सा होता है केवल जीवन,
अथवा सूरज सा अक्षत भी बन सकता है।।(2)
युग युग से हिम में देह जमी है जो अपनी,
क्या उसमें भी इक रोज़ हरारत जागेगी।
जो रिक्त सदा है रहा भावना के जल से,
क्या पत्थर में भी कभी मोहब्बत जागेगी।।(3)
क्या भटकी दुनिया कभी समझ यह पायेगी,
हम सभी बंधे हैं आने-जाने के क्रम से।
हम धरती के मालिक हैं, धरा हमारी है,
क्या मुक्त कभी हम होंगे इस शाश्वत भ्रम से।। (4)
हम सबका आना-जाना पूर्व सुनिश्चित है,
सबका है एक तरीका आने जाने का ।
हम सभी सृष्टि की रचनाएँ हैं मात्र यहाँ,
विधि के हाथों है साँचा हमें बनाने का।। (5)
ये मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे ही,
क्या गढ़ने को हैं सिद्ध धर्म की परिभाषा।
क्या अर्थ धर्म के कैद इन्हीं के ग्रंथों में,
क्या धर्म समझता है केवल इनकी भाषा ।।(6)
क्या रहता है भगवान इन्हीं सीमाओं में,
या व्याप्त सदा जन-जन में है, कण-कण में है।
क्या बँधा हुआ है व्यक्ति, वस्तु, स्थानों से,
या वह दुनिया के जीवन और मरण में है।।(7)
क्या हम हैं सिक्ख, ईसाई, हिंदू, मुसलमान,
या इससे पहले हम सारे मानव भी हैं।
क्या दया, प्रेम के सूत्र असंभव हैं हमको,
या करुणामय सहयोग कभी संभव भी हैं।।(8)
क्या मज़हब के अनुसार बनेगी यह दुनिया,
या दुनिया के अनुसार धर्म आवश्यक है।
क्या धर्म अचल है, जड़वत् है, स्थायी है,
या धर्म परिस्थिति जन्य, समय के सम्यक है। (9)
क्या पंडित, मौला, फादर या ग्रंथी हमको,
अपना- अपना ही धर्म सदा सिखलायेंगे।
या मानवता के हित में दुनिया जागेगी,
हम कर्म और फल की गीता को गायेंगे।। (10)
इस तरह प्रश्न था एक उठाया जीवन ने,
क्या धर्म नाम है इस नरभक्षी दानव का ?
क्या कल धरती पर शेष रहेगी मानवता ?
क्या मूल धर्म है दुनिया में हर मानव का?(11)
जीवन ने ही इसका उत्तर दे दिया हमें,
जो धर्म आत्मा से बिछड़ा वह धर्म नहीं।
जिसने केवल खाने खींचे हैं दुनिया में,
वः किसी दृष्टि से धर्मयुक्त है कर्म नहीं।। (12)
ये संप्रदाय, ये मज़हब, ये झंडे, नारे,
विकृतियों की हैं देन, स्वार्थ के लेखे हैं।
ऐसे कितने ही धर्मों के उत्थान-पतन,
अपनी आँखों से रोज़ समय ने देखे हैं।।(13)
जिनको खुद रच कर थोप दिया है मानव ने,
वे धर्म भला कितने दिन हैं रहने वाले।
केवल शाश्वत है धर्म एक इस दुनिया का,
जिसको मानवता कहते हैं कहने वाले।। (14)