उर्दू शायरी में ‘ताजमहल’

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

ताजमहल न केवल अपने आप में अनूठा है बल्कि सारी दुनिया को सदैव मोहब्बत का पैग़ाम देने वाला यह वह करश्मिाई शाहकार है जिसका आज तक कोई दूसरा विकल्प संभव ही नहीं हुआ।

 

ताजमहल अगर मोहब्बत की सबसे खूबसूरत निशानी है तो कुछ लोग इसे दौलत के बल पर एक अंहकारी द्वारा मोहब्बत करने वाले गरीब आशिकों के मुँह पर ज़ोरदार तमाचे की शक्ल में भी देखते हैं। कुछ लोग अगर दुनिया के सात अजूबों में शामिल इस बला की खूबसूरत इमारत को खूबसूरती की इंतहाँ मानते हैं तो कुछ लोग इसे दुनिया के सबसे बेहतरीन कारीगरों पर शर्मनाक अत्याचार के प्रतीक के रूप में भी इसे स्थापित करते  हैं। ताजमहल जितना खूबसूरत है, उतना ही रहस्यमयी भी। ताजमहल को आखिर क्या समझा जाये और किस नज़रिये से देखा जाये, यह आज भी एक बड़ा सवाल‌ है। लेकिन कुछ भी हो, ताजमहल बरसों से मोहब्बत की एक कामयाब तस्वीर है और दुनिया जितना हिंदुस्तान को जानती है, उतना ही ताजमहल को भी।

 

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने एक स्थान पर कहा है कि ताज मोहब्बत की आँख से गिरा वह आँसू है जो वक़्त के गालों पर ठहर गया। 

 

उर्दू शायरी में ताजमहल अनेकों दिलचस्प अंदाज़ में शायरों द्वारा बयां किया गया है जो न केवल उर्दू शायरी की चाशनी को‌ और मिठास बख्शते हैं बल्कि ताजमहल खुद भी एक ऐसी खूबसूरत व दिलचस्प प्रिज़्म के रूप में समय के पन्नों में दर्ज होता है जिसे‌ हज़ारों निगाहें अपने-अपने अंदाज़ में तोलती हैं। आइये, प्यार के इस खूबसूरत तोहफ़े को‌ परखने की कोशिश करते हैं जुदा-जुदा शोरा-ए-कराम के नज़रों से –

 

जब कभी ताजमहल‌ की बात होती है तो सबसे पहले जो नज़्म ज़ह्न में उभरती है, वह है मशहूर शायर शकील बदायुनी की यह खूबसूरत नज़्म –

 

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल, 

सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है।

इस के साए में सदा प्यार के चर्चे होंगे, 

ख़त्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है।‌।

 

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल,

ताज वो शम्अ है उल्फ़त के सनम-ख़ाने की,

जिस के परवानों में मुफ़्लिस भी हैं ज़रदार भी हैं, 

संग-ए-मरमर में समाए हुए ख़्वाबों की क़सम, 

मरहले प्यार के आसाँ भी हैं दुश्वार भी हैं,

दिल को इक जोश इरादों को जवानी दी है। 

 

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल, 

ताज इक ज़िंदा तसव्वुर है किसी शाएर का, 

उस का अफ़्साना हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं,

इस के आग़ोश में आ कर ये गुमाँ होता है,

ज़िंदगी जैसे मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं, 

ताज ने प्यार की मौजों को रवानी दी है। 

 

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल, 

ये हसीं रात ये महकी हुई पुर-नूर फ़ज़ा,

हो इजाज़त तो ये दिल इश्क़ का इज़हार करे, 

इश्क़ इंसान को इंसान बना देता है,

किस की हिम्मत है मोहब्बत से जो इंकार करे,

आज तक़दीर ने ये रात सुहानी दी है।”

 

शकील बदायुनी की इस मशहूर नज़्म को‌ हम एक ऐसी नज़्म कह सकते हैं जो उर्दू शायरी में उतना ही लोकप्रिय है जितना संसार में खुद ताजमहल। ‘ताजमहल’, ‘मोहब्बत’ व ‘दुनिया’ का इससे बेहतरीन समीकरण हो ही नहीं सकता। 1916 से 1970 के कालखंड में इस धरती पर उपस्थित रहे शकील बदायुनी ने फ़िल्मी गीतकार व शायर के रूप में खासी शोहरत हासिल की और अनेक कामयाब ग़ज़लों व नज़्मों के शायर की यह नज़्म उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में शुमार की जाती हेै जो इतने बरसों के बाद भी आम आदमी की ज़ुबान पर उसी ताजगी और शिद्दत से मौजूद है।

 

साहिर लुधियानवी उर्दू शायरी व फ़िल्मी दुनिया का एक और बड़ा नाम है जो ‘ताजमहल’ के हवाले से और भी प्रासंगिक‌ हैं। 1921-1980 के उनसठ वर्षीय जीवन में साहिर ने एक कहीं बड़ी ज़िंदगी जी‌ और अपनी बेहतरीन शायरी के बल‌ पर आम लोगों के दिलों पर राज़ किया। साहिर दुनिया के बेहतरीन मोहब्बत ‌करने वालों लेकिन अभावों से जूझते हुये आशिकों की नुमाइंदगी करते हैं। जहाँ शकील बदायुनी ने ‘ताजमहल’ को‌ मोहब्बत की निशानी के रूप‌ में देखा है, वहीं साहिर लुधियानवी इसे तंज़ की पीड़ा के रूप में देखते हैं। तभी तो अपनी इस मशहूर नज़्म के हवाले से वे फ़रमाते हैं –

 

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उलफत ही सही,

तुझ को इस वादी-ए-रँगीं से अक़ीदत ही सही,

मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।

 

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी,

सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ,

उस पे उलफत भरी रूहों का सफर क्या मानी,

 

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशरीर-ए-वफ़ा,

तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता,

मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,

अपने तारीक़ मक़ानों को तो देखा होता,

 

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है,

कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके,

लेकिन उनके लिये तश्शीर का सामान नहीं,

क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे,

 

ये इमारत-ओ-मक़ाबिर, ये फ़ासिले, ये हिसार,

मुतल-क़ुलहुक्म शहँशाहों की अज़्मत के सुतून,

दामन-ए-दहर पे उस रँग की गुलकारी है,

जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ून,

 

मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी,

जिनकी सानाई ने बक़शी है इसे शक़्ल-ए-जमील,

उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद,

आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ँदील,

 

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल,

ये मुनक़्कश दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़,

इक शहँशाह ने दौलत का सहारा ले कर,

हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़,

मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।”

 

उर्दू शायरी में जनाब क़ैफ़ी आज़मी की हैसियत एक स्कूल से कम नहीं है। मूल नाम अख़्तर हुसैन रिज़वी और जीवन खण्ड – 1919-2002. ताजमहल पर उनकी एक बहुत खूबसूरत नज़्म ‘वापस चल’ है। उन्होंने ताजमहल को एक अलग ही अंदाज़ में देखा है। जब ताजमहल की बात हो लेकिन उनकी इस खूबसूरत नज़्म का ज़िक्र न हो तो ऐसी हर बात और हर विमर्श अधूरा ही माना जायेगा। ज़रा इस खूबसूरत नज़्म का लुत्फ़ उठाइये – 

 

“दोस्त ! मैं देख चुका ताजमहल,

…वापस चल।

 

मरमरीं-मरमरीं फूलों से उबलता हीरा,

चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार,

ज़ेहन-ए-शाएर से ये करता हुआ चश्मक पैहम,

एक मलिका का ज़िया-पोश ओ फ़ज़ा-ताब मज़ार,

 

ख़ुद ब-ख़ुद फिर गए नज़रों में ब-अंदाज़-ए-सवाल,

वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह,

ख़ुश्क हो कर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब,

धूप में खोपड़ियां बजती हैं ताशों की तरह,

 

दोस्त ! मैं देख चुका ताजमहल,

…वापस चल।

 

ये धड़कता हुआ गुम्बद में दिल-ए-शाहजहां,

ये दर-ओ-बाम पे हंसता हुआ मलिका का शबाब,

जगमगाता है हर इक तह से मज़ाक़-ए-तफ़रीक़,

और तारीख़ उढ़ाती है मोहब्बत की नक़ाब,

 

चांदनी और ये महल आलम-ए-हैरत की क़सम,

दूध की नहर में जिस तरह उबाल आ जाए,

ऐसे सय्याह की नज़रों में खुपे क्या ये समाँ,

जिस को फ़रहाद की क़िस्मत का ख़याल आ जाए,

 

दोस्त ! मैं देख चुका ताजमहल,

…वापस चल।

 

ये दमकती हुई चौखट ये तिला-पोश कलस,

इन्हीं जल्वों ने दिया क़ब्र-परस्ती को रिवाज,

माह ओ अंजुम भी हुए जाते हैं मजबूर-ए-सुजूद,

वाह आराम-गह-ए-मलिका-ए-माबूद-मिज़ाज,

 

दीदनी क़स्र नहीं दीदनी तक़्सीम है ये,

रू-ए-हस्ती पे धुआँ क़ब्र पे रक़्स-ए-अनवार,

फैल जाए इसी रौज़ा का जो सिमटा दामन,

कितने जाँ-दार जनाज़ों को भी मिल जाए मज़ार,

 

दोस्त ! मैं देख चुका ताजमहल,

…वापस चल।”

 

क़तील शिफ़ाई उर्दू साहित्य की वह हस्ती हैं जिन्हें जाने और समझे बगैर उर्दू शायरी के क़ामयाब सफ़र को समझना न मुमकिन है। मौलिक नाम औरंगजेब खान और जीवन खण्ड 1919-2001. अविभाजित भारत के हरिपुर, हज़ारा क्षेत्र में जन्मे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बना। ताजमहल की खूबसूरती को कितनी सादगी से बयान करता है उनका यह मशहूर शेर – 

 

उफ़ वो मरमर से तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन, 

देखने वाले उसे ताज-महल कहते हैं।”

 

इस शेर में प्रयुक्त शब्द ‘शफ़्फ़ाक’ का अर्थ ‘चमकदार, पारदर्शी एवं निर्मल’ है।

 

जाँनिसार ‘अख्तर’ का नाम उर्दू शायरी में किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। उनका यह शेर बताता है कि वे ताजमहल को एक मक़बरा ही समझते हैं और ताजमहल का ख़याल ज़ह्न में केवल मृत्यु की तस्वीर खींचता है। क्योंकि ताजमहल मुमताज व शाहजहाँ की कब्रगाह है, इसलिये इसे मक़बरा कहना उचित ही है और यह ख़याल भी शायरी की रोशनाई में बहुत मक़बूल है –

 

मेरे ख्वाबों में कोई लाश उभर आती है,

बंद आँखों में कई ताजमहल जलते हैं।”

 

क़ैफ़ भोपाली एक प्रसिद्ध शायर हैं। भोपाल में 1917 में जन्मे इस शायर की मृत्यु 1991 में हुई। वे पाक़ीज़ा फ़िल्म के गीत ‘चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो’ के गीतकार के रूप में भी चर्चा में रहे। ताजमहल पर उनका यह खूबसूरत शेर पेश है –

 

एक कमी थी ताजमहल में,

हमने तेरी तस्वीर लगा दी।”

 

महशर बदायुनी कराची, पाकिस्तान के बाशिंदे थे और उनका जीवन वृत्त 1922 से 1994 तक है। वे भी ताजमहल के आशना थे और उसकी खूबसूरती पर फ़िदा। उनका यह मशहूर शेर आपकी नज़र –

 

अल्लाह मैं ये ताज महल देख रहा हूँ।

या पहलू-ए-जमुना में कँवल देख रहा हूँ।।”

 

जमील मलिक रावलपिंडी, पाकिस्तान में रहते थे और उनका जीवन काल 1928 से 2001 तक रहा। ताजमहल पर उनका यह शेर बताता है कि उनकी नज़रें बहुत गहरी थीं और वे हुस्न की चादर के पीछे उन दर्दनाक चेहरों को भी देख लेते थे जो इस खूबसूरत इमारत की नींव मे दफ़्न हैं। ज़रा उनका यह शेर तो देखिये –

 

कितने हाथों ने तराशे ये हँसी ताजमहल,

झाँकते हैं दर-ओ-दीवार से क्या क्या चेहरे।”

 

बाराबंकी शहर से वास्ता रखने वाले मशहूर शायर सागर आज़मी का जीवन काल 1944 से 2004 तक रहा। उर्दू शायरी के हवाले से एक लंबे समय तक उन्होंने अपने चाहने वालों के दिलों पर अपनी खूबसूरत शायरी से राज किया। वे अपनी मुमताज़ को ताजमहल से बहुत ऊँचा मानते थे और उसकी खूबसूरती और उसकी खूबसूरत आवाज़ के दीवाने थे। आइये, देखते हैं कि वे क्या फ़रमाते हैं –

 

तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा

ताज-महल बन जाए अगर मुम्ताज़ कहाँ से लाऊँगा

 

कृष्ण बिहारी ‘नूर’ उर्दू शायरी के उन चंद गैर मुस्लिम शायरों में शुमार किये जाते हैं जिन्होंने उर्दू शायरी को अपने लहू से सींचा है। लखनवी की सरज़मीं से सारी दुनिया में अपनी बेमिसाल शायरी का परचम लहराने वाले नूर वास्तव में उर्दू शायरी के नूर थे जो उनके जिस्मानी प्रकाश के बुझ जाने के बावजूद आज भी उनकी शायरी के रंग में जगमगा रहा है। महबूब के खूबसूरत जिस्म की तुलना ताजमहल के साथ इस तरह से करना तो केवल ‘नूर’ के बस का ही है –

 

ये जिस्म सबकी आँखों का मरकज़ बना हुआ।

बारिश में जैसे ताजमहल भीगता हुआ ।‌।”

 

सुहैल काकोरवी आज उर्दू शायरी के उस मुक़ाम पर हैं जिसकी ज़मीन से ऊँचाई परखते हुये अक्सर विद्वानों की टोपियाँ ही सर से लुढ़क जाती हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि वे साहित्य के ऐसे समंदर हैं जिनमें उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी, फ़ारसी की न जाने कितनी नदियाँ अपनी अनेकों विधाओं के साथ विलीन हो जाती है। न जाने, कैसे सँभालते होंगे सुहैल साहब हज़ारों लाखों ख़यालों व शिल्पों को एक साथ और उस पर तुर्रा यह कि साथ ही साथ वे सादगी की एक ऐसी बेहतरीन मिसाल भी हैं जिस पर कोई भी रश्क कर सकता है। शायरी तो जैसे छलकती है उनसे। आइये, ज़रा देखें तो कि वे ताजमहल पर क्या सोचते हैं – 

 

ताज रानाई-ए-मोहब्बत है।

इसलिये यह अमर हक़ीक़त है।।”

 

और यह भी –

 

“इसको तो चार चाँद लगाये फ़लक का चाँद,

यूँ फैलता है ताजमहल की वफ़ा का नूर।”

 

और इस उर्दू के शायर की बेहतरीन हिंदी का भी लुत्फ़ उठाते हैं –

 

मन का विस्तृत चित्र ताजमहल।

इसलिये है विचित्र ताजमहल।।

 

हुस्न कब भेदभाव करता है।

सारी दुनिया का मित्र ताजमहल।।”

 

तश्ना आज़मी उर्दू शायरी का एक बड़ा नाम है। अक्सर जो किताबों में पढ़े जाते हैं, वे तरन्नुम से दूर रहते हैं।‌ लेकिन मंचों पर जिनका तरन्नुम गूँजता हो और किताबों में जिनके बेहतरीन ख़याल ज़ह्न को बार-बार चौंकाते हों, एक ही शख़्स में ये दोनों योग्यताएं बहुत मुश्किल से मिलती हैं। ‘तश्ना’ एक ऐसे ही बेमिसाल शायर हैं और शाहजहाँ के ताजमहल को कितनी खूबसूरती से अाज के आम आदमी की ज़िंदगी से जोड़ते हैं –

 

दौर ए हाज़िर में घरौंदा भी बनाना मुश्किल।

और मुमताज़ मिरी ताजमहल मांगे है।”

 

लखनऊ की सरज़मीं पर अपने सेवाकाल में वरिष्ठ प्रशासनिक सेवायें देश को अर्पित करने के साथ-साथ एक कामयाब शायर को भी जीने वाले अनीस अंसारी उर्दू शायरी में एक चर्चित नाम है। ताजमहल की खूबसूरती का सच वे बहुत अच्छी तरह समझते हैं और इस बात की ताक़ीद उनकी नज़्म ‘ख़्वाबों के मुजरिम’ पुरज़ोर तरीके से करती है –

 

हम दोनों ने (मैंने और मेरी बेबी ने) सपना देखा

अपने दिल के ताजगंज में,

 

काश, प्यार का एक हसीन कुँवर 

ताजमहल बनाये

बेबी की आँखों के हीरे

होठों के याक़ूत

बदन का संगमरमर

मेरे दिल के शोख लहू का चूना गारा,

सब कुछ था,

फिर ताजमहल बन जाता

लेकिन जाने कब, क्यों, कैसे

बूढ़े वक़्त के शाहजहाँ को

इस सपने की ख़बर मिल गयी,

और समाज के मेमारों को हुक्म मिला

ताजमहल के मेमारों के हाथ काट दो।”

 

निहाल रिज़वी उर्दू शायरी में एक बड़ा मुक़ाम रखते हैं। उनके कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ताजमहल के वे मुरीद हैं और वह उनके सीने की धड़कनों में समाया हुआ है। आइये, ताजमहल के हवाले से उनसे मुलाकात करते हैं –

 

“ताज को सिर्फ़ इमारत जो समझते हैं वे लोग,

राज़-ए-महफ़ूम मोहब्बत से नहीं वाक़िफ़ हैं।”

 

और एक खूबसूरत शेर यह भी –

 

“कर सकेगा वही महसूस तेरे लम्स को ताज,

जिसके सीने में धड़कता हुआ एक दिल होगा।”

 

ताजमहल की बेपनाह खूबसूरती कभी कभी ज़ह्न में ही नहीं समाती और इस खूबसूरती को आँखों में भर लेने के बाद ताजमहल के सामने ही ऐसी शायरी की जा सकती है जैसी सूफ़ी परंपरा के शायर सैयद ज़िया अलवी ख़ैराबादी ने की –

 

यह है आगरा यहाँ ताज है,

यहाँ इश्क़ कितना दराज़ है।।

यह इमारतों की मिसाल है, 

यह मोहब्बतों का नयाज़ है।

 

जो लिखा है तूने ‘ज़िया’ यहाँ,

सभी लफ़्ज़ दिल में हुये नहाँ,

तेरी शायरी सरे ताज है, 

तेरी बात आईनासाज़ है।”

 

संजय मिश्र ‘शौक़’ उर्दू शायरी में चकबस्त, फ़िराक़ एवं नूर की परंपरा के उस्ताद शायर हैं। उर्दू शायरी और साहित्य को‌ गहराई से समझने की बेपनाह सलाहियतों से लबरेज़ इनकी शायरी वास्तव में करीने की शायरी है जो अपने आप में अपनी मिसाल खुद है। वे कहते हैं कि शायर तो कल्पनाओं में ताजमहल बनाता है। वह कोई ईंट पत्थर से इमारत नहीं बनाता है कि उसके हाथ काट देने पर किसी दूसरी वैसी ही खूबसूरत इमारत नहीं बन सकेगी। एक आम शायर भी एक ऐसा ही कारीगर है जो रोज़ नये ताजमहल बनाता है लेकिन वह उसके बेहतरीन ख़यालों के ताजमहल होते हैं –

 

हमारे हाथ न काटो कि हम तो शायर हैं। 

ज़मीं पे ताजमहल हमने कब बनाया है।।”

 

लखनऊ के एक और चर्चित शायर शोएब शारिक सिद्दीकी भी ताजमहल के आशिक हैं। वे फ़रमाते हैं –

 

फ़ितरते इश्क की जानिब से अता ताजमहल।

अर्श-ए-आज़म से खुदा देख रहा ताजमहल।।

इसपे हर दौर के शायर ने कहीं हैं ग़ज़लें,

ऐसा मुमताज़ के सदके में मिला ताजमहल।।”

 

अरविंद ‘असर’ बेहतरीन युवा शायर हैं और उनके कई मजमुये भी मंज़र-ए-आम पर आ चुके हैं। वे अपनी फ़िक्र के निराले शायर हैं। ताजमहल पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

जो दिला दे याद सबको ताज के सौंदर्य की,

उसके हाथों की मुझे कारीगरी से डर लगा।”

 

और उनका एक यह भी शेर –

 

हमने अपने बचपन से ही खूब सुना था ताजमहल।

एक हुआ था राजा कोई एक बना था ताजमहल।।”

 

मंजुल मयंक ‘मंज़र’ एक उभरते हुये शायर हैं। उनकी एक ख़ास किस्म की अदायगी जो‌ उन्हें सबसे अलहदा कर देती है। उनका अंदाज़ भी देखें –

 

बनाकर  ताज  जो  दी है निशानी एक आशिक़ ने। 

महब्बत की नहीं दुनिया में इससे बढ़ के अक्कासी। 

भले  ही  दो  महब्बत  के  दीवानें  दफ़्न  हैं इसमें, 

मगर  ज़िंदा  हैं  वो  रूहें  रहीं जो  इश्क़ की प्यासी।

 

मध्य प्रदेश के लोकप्रिय युवा हस्ताक्षर राज तिवारी हिंदी और उर्दू, दोनों में ही एक सी मज़बूत पकड़ रखते हैं। वे ताजमहल तो बनाना चाहते हैं लेकिन उनका ताजमहल उनकी सीमाओं और अभावों की भेंट चढं जाता है। दरअसल यह कहानी एक आम अदमी की कहानी है जो उनके इस खूबसूरत शेर से झांकती है – 

 

और कुछ हो या न हो ताज को देखे से, मगर

अपनी गुमनाम-सी हस्ती पे तरस आता है।”

 

अमिताभ दीक्षित हरफ़न मौला व्यक्ति हैं। साहित्य, संगीत व कला, तीनों में इनका कद बड़ा है। मोहब्बत को कितनी मोहब्बत से देखते हैं वे अपने इस शेर के माध्यम से 

 

एक ताजमहल अपनी, पलकों पे सजा रखना।

मैं लौट के आऊँगा, दरवाज़ा खुला रखना।।”

 

ताजमहल प्यार की बेमिसाल निशानी है। लेकिन अपने प्यार की खातिर ताजमहल न बनवा सकने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हमारी अपनी मोहब्बत का रंग गाढ़ा नहीं है। मेरा अपना मोहब्बत व ताजमहल पर एक शेर आपकी मोहब्बतों के हवाले –

 

इतनी शिद्दत से मुहब्बत में दखल रखते हैं,

कोट की जेब में हम ताजमहल रखते हैं।”

 

और ताजमहल के गुमनाम कारीगरों के दर्द को जीता मेरा एक और शेर इस आलेख को ख़त्म करते हुये मुझे ज़रूरी लग रहा है। शायद प्यार की इस खूबसूरत निशानी की एक कहानी यह भी है –

 

पढ़ रहे थे जब क़सीदे लोग हुस्न-ए-ताज पर,

मैं कटे हाथों को अपने देर तक देखा किया।

 

 

 

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