तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
भूल जायें
दर्द गुज़री रात के,
आइये, लूटे मज़े बरसात के।
सब बंधे हैं स्वार्थ की इक डोर से,
कुछ यहाँ से कुछ वहाँ उस ओर से।
गिद्ध है परिधान में अब हंस के,
लग रहे खरगोश आदमखोर से।।
अब भला
संबंध हैं किस बात के,
आइये, लूटे मज़े बरसात के।
हम न रंगों के फँसे हैं बंध में,
हम न झंडों के किसी प्रतिबंध में।
धर्म के ये अर्थ खारिज कर सदा,
बस, महकते आत्मा की गंध में।।
हम भला
किस धर्म के, किस जात के,
आइये, लूटे मज़े बरसात के।
हैं सफ़र में, बेसफ़र कोई नहीं,
सब इधर हैं, अब उधर कोई नहीं।
ज़िंदगी का एक पल भी है बहुत,
है पता ये, उम्र भर कोई नहीं।।
आ गये
घर लोग भूले प्रात के
आइये लूटे मज़े बरसात के।