एज़ाज़ क़मर, एसोसिएट एडिटर-ICN
नई दिल्ली। सामान्य व्यक्ति के लिए शब्दार्थ और भावार्थ मे कोई अंतर नही होता है, किंतु एक लेखक के लिये जिस लिखित शब्द को पढ़ने मात्र से उस शब्द का अर्थ स्पष्ट जाये तो वह उस अर्थ को शब्दार्थ कहता है और वह पंक्तियो मे छुपे उस शब्द के भाव को व्यक्त करने को भावार्थ कहता है,परन्तु जनसाधारण की भाषा मे अर्थ और व्याख्या के बीच की चीज़ (विषय-वस्तु) को भावार्थ कहते है,जैसे :- सूफी संतो द्वारा प्रेम शब्द का उपयोग भगवान के लिये किया जाता है, जबकि सामान्य व्यक्ति प्रेम शब्द का प्रयोग अपनी प्रेमिका के लिये करता है।इसी तरह स्वतंत्रता और स्वाधीनता मे भी सूक्ष्म अंतर है,क्योकि “स्वतंत्रता” को राजनीतिक, सामाजिक और नागरिक स्वतंत्रता का आनंद लेने के लिये स्वतंत्र होने की स्थिति के रूप मे परिभाषित किया जाता है।जबकि स्वाधीनता व्यक्ति को उसके अधिकार, विश्वास, अपने आप को अभिव्यक्त करने और बंधनो से मुक्त होने तथा अपने अनुसार की जिंदगी को चुनने की शक्ति देती है,उपरोक्त लिखित कठिन शब्दो के कारण स्वतंत्रता और स्वाधीनता की परिभाषा जनसाधारण के सर के ऊपर से निकल जाती है।इसलिये हम आम भाषा मे स्वतंत्रता और स्वाभिमान के बीच की चीज़ (विषय-वस्तु) को स्वाधीनता कहते है,क्योकि स्वतंत्रता तो एक वैधानिक घोषणा होती है,किंतु जब तक नागरिक संतुष्ट नही होता है तब तक उसे आज़ादी का एहसास (स्वाधीनता) नही होता है।
हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा समतामूलक, स्वतंत्रतामूलक और न्यायमूलक राष्ट्र है अर्थात विश्व का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है,किंतु फिर भी हम भारतीय अल्पसंख्यक भारत सरकार से “दंगा विरोधी कानून” (Anti-Communal Riots Act), “समान अवसर कानून” (Equal Opportunity Act), “संप्रदायिकता-विरोधी छुआछूत कानून” (Anti-Communal Untouchability Act), “संप्रदायिक न्यायिक जवाबदेही कानून” (Communal Judicial Accountability Act) और “पुलिस नियंत्रण कानून” (Police Control Act) जैसे नये कानूनो की मांग करते है,क्योकि भेदभाव के चलते हमे पूरी तरीके से संविधान की मूल भावना के लागू होने का एहसास नही होता है।
जब भी नागरिको को लगता है कि प्रशासन की नीतियो अर्थात व्यवहारिकता और लिखित संविधान मे अंतर हो गया है,तब निराश-हताश और क्रोधित जनता आंदोलन करके सविधान को पूरी तरह से लागू करने की मांग करती है,इसे वह स्वाधीनता की लड़ाई कहते है और वह संविधान की मूल भावना को व्यवहारिक पटल पर उतारने अथवा लागू करने की मांग करते है।सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक आंकड़े इस बात की ओर संकेत करते है,कि आज़ादी के सात दशको के बाद भी दलितो, पिछड़ो अल्पसंख्यको, विकलांगो और महिलाओ के साथ न्याय नही हो पाया है,क्योकि सत्ताधारियो की कथनी और करनी मे अंतर रहा है और यह वर्ग सत्ताधारियो के करीब पहुंचकर भी सत्ता को प्रभावित नही कर पाये है अर्थात संविधान को निष्पक्षता से पूरी तरह लागू नही करवा पाये है,जिसके परिणाम स्वरूप देश मे असंतोष पैदा होता रहा है।
आज़ादी की दूसरी लड़ाई अथवा स्वाधीनता के नाम पर स्वर्गीय जयप्रकाश द्वारा आपातकाल के विरुद्ध आंदोलन चलाया गया था,प्रशासन मे पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर अन्ना हज़ारे द्वारा चलाये गये आंदोलन को भी उनके समर्थक आज़ादी की दूसरी लड़ाई कहते है और उन्होने इस आंदोलन को “पूर्ण स्वराज्य” का नाम दिया था,छोटे-छोटे अंतराल के बाद देश मे अनेको आंदोलन होते रहे है जिसके परिणाम स्वरूप नये-नये नेताओ और दलो का जन्म होता रहता है।
महात्मा गांधी, बाबासाहेब अंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, और राम मनोहर लोहिया, काशीराम और अरविंद केजरीवाल के नाम सामाजिक न्याय के आंदोलनो से जुड़े हुये है,किंतु एक महापुरुष ऐसा भी था जिसने बिना शोर मचाये ख़ामोशी से भ्रष्टाचार मिटाने और सामाजिक न्याय देने की व्यवहारिक नीव रखी थी,किंतु युग प्रवर्तक स्वर्गीय श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का कोई नाम भी नही लेता है क्योकि उन्होने कभी भी प्रचार-तंत्र का सहारा नही लिया था।
मै मार्च 2000 मे एक बिहार के भूतपूर्व राज्यसभा सांसद (मुस्लिम) के साथ एक अखबार के कार्यालय मे जा रहा था,तभी उन्होने रास्ते मे गाड़ी रुकवाकर मुझसे कहा;कि “मै राजा साहब से दस मिनट के लिये मिलने जा रहा हूं किंतु अगर चर्चा शुरू हुई तो काफी समय लग सकता है इसलिये अगर तुम मेरे साथ चलो तो अच्छा होगा”,मेरा दिमाग़ अपने काम मे उलझा हुआ था और मुझे सांसद के इस कार्यक्रम के बारे मे पता भी नही था किंतु गाड़ी मे बैठे रहने के बजाय मैने उनके साथ जाना उचित समझा।हम दोनो राजा साहब के ड्राइंग रूम मे बैठकर चाय नाश्ता कर रहे थे,तब स्वर्गीय वी०पी० सिंह साहब वहा आये और बहुत गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया,वह बहुत व्यस्त थे और किसी कार्यक्रम मे जाने के लिये घर से निकलने वाले थे, किंतु उसके बावजूद भी उन्होने व्यक्तिगत रूचि लेते हुये मेरी पृष्ठभूमि के बारे मे इतने अधिक सवाल पूछे जिसकी मुझे आशा नही थी,मै खुशी से फूला नही समाया क्योकि एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री से मेरा इतना लंबा परिचय हुआ था।
राजा साहब शारीरिक रूप से बहुत कमजोर लग रहे थे कि जैसे कोई व्यक्ति बहुत लंबे सफर से चलकर आ रहा हो,किंतु उनके जज़्बे मे कोई कमी नही थी और उस समय वह राजबब्बर के साथ मिलकर झोपड़पट्टी के निवासियो के लिये सामाजिक कार्य कर रहे थे तथा आंदोलन चला रहे थे,मेरे साथ आये सांसद उसी आंदोलन से संबंधित कुछ कागज़ सौपने के लिये उनके घर गये थे,क्योकि वह भी इस आंदोलन से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुये थे।उनकी खड़ी नाक, बड़ी-बड़ी आंखे, खूबसूरत चेहरा, गोरा रंग, सर पर टोपी और जिस्म पर शेरवानी-पजामा वाली पोशाक मुझे किशोरावस्था मे बहुत आकर्षित करती थी,क्योकि उनका व्यक्तित्व मुझे किसी पठान नवाब अथवा अपने रिश्तेदारो जैसा लगता था,इसलिये बिना किसी स्वार्थ के मै उनका चुनाव प्रचार किया करता था।
मैने 1991 के लोकसभा चुनाव मे मुंबई मे उनकी पार्टी जनता दल के लिये बहुत मेहनत से प्रचार किया और दक्षिणी तथा मध्य मुंबई की चुनावी सभाओ मे जमकर भाषण दिये थे,जब जनता दल 1991 का चुनाव हार गया तब मुझे बड़ा दुख हुआ,फिर भी मै उनसे मिलने को उत्सुक रहता था और मंच साझा करने के अवसर खोजता रहता था।जिस महापुरुष से मै मिलने की कामना करता था उनसे संयोगवश मेरी मुलाकात हुई और उन्होने मुझसे भविष्य मे मिलने के लिये कहा,फिर मुलाकात का सिलसिला शुरू हुआ,किंतु मै अपनी परीक्षा और कार्य मे व्यस्त होने के कारण उनके समाज सेवा के कार्यक्रमो से जुड़ नही पाया था,इसी दौरान मेरे पिताजी का देहांत हो गया और माता जी बीमार हो गई,तभी 27 नवंबर 2008 को मुझे दुखद समाचार मिला कि वह पुण्यात्मा अपना नश्वर शरीर त्यागकर स्वर्गलोक के लिये प्रस्थान कर गई है।उलझे बाल, आड़ी-तिरछी पतलून, लाल-पीली कमीज़ और टूटे-फूटे जूते पहनने वाले मेरे जैसे अल्हड नौजवान से वह बहुत प्रेमपूर्वक बात करते थे और उन्होने “खान साहब” शब्द से संबोधित करके किसी रियासत का नवाब होने का मुझे एहसास करवाया, जबकि मैने उनके ठाट-बाट तथा सामंतवादी जीवन-शैली के बारे मे बहुत से किस्से-कहानियां सुनी थे,किंतु मैने कभी सपने मे भी नही सोचा था कि प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने वाला व्यक्ति इतना सहज और सरल हो सकता है,इसलिये मुझे आज भी उनकी आवाज़ सुनाई देती है जिसमे मज़लूमो, बेसहारो और गरीबो का दर्द भरा होता था।उन्होने “जन चेतना मंच” के नाम से एक समाज सेवी संस्था अपने दिल्ली स्थित निवास स्थान (1, तीन मूर्ति मार्ग) पर बनाई थी और यह समाज सेवी संस्था उनके विचारो और कार्यक्रमो को आगे बढ़ाती है,सौभाग्य से मै अंतिम बार उनके जन्मदिन पर 25 जून 2015 को उनके निवास स्थान पर हुये कार्यक्रम मे महापुरुष को श्रद्धांजलि देने के लिये सम्मिलित हुआ था,किंतु वी०पी० सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब देश मे ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जिससे हर नागरिक को स्वाधीनता का एहसास हो और वह स्वाभिमान के साथ अपना जीवन जी सके।
विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 को इलाहाबाद मे एक ज़मीदार भगवती प्रसाद सिंह के घर मे हुआ था,उन्हे 1936 मे मांडा के राजा बहादुर राय गोपाल सिंह ने गोद ले लिया फिर 1941 मे राजा की मौत के बाद वह मात्र दस वर्ष की आयु मे मांडा के 41वें राजा बने,उनकी शिक्षा देहरादून के कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल से हुई और उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कला तथा विधी (कानून) मे स्नातक की उपाधि प्राप्त करी फिर पुणे विश्वविद्यालय के फर्ग्यूसन कॉलेज से भौतिकी विज्ञान मे स्नातक की उपाधि अर्जित करी।
वी०पी० सिंह इलाहाबाद के उदय प्रताप कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट रहे फिर विश्वविद्यालय के छात्र संघ के उपाध्यक्ष चुने गये और वह अक्सर कहा करते थे कि “मै वैज्ञानिक बनना चाहता था किंतु राजनीति मुझे खींच लाई”,वी०पी० सिंह का विवाह 25 जून 1955 को उनके जन्म दिन पर सीता कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ और इन्हे दो पुत्र रत्नो की प्राप्ति हुई,1957 मे भूदान आंदोलन मे शामिल होकर अपनी सारी ज़मीने दान कर देने से उनके पारिवारिक रिश्ते खराब हो गये,उन्होने इलाहाबाद मे गोपाल इंटरमीडिएट कॉलेज की स्थापना करी।वह 1969 मे पहली बार यूपी विधानसभा पहुंचे फिर 1971 मे सांसद बने,1974 मे कॉमर्स मिनिस्ट्री मे राज्य मंत्री बने और 1977 तक इस पद पर रहे,आपातकाल के कारण 1977 मे कांग्रेस हार गई और बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी मे चले गये,किंतु वह कांग्रेस से जुड़े रहे जिससे उनकी छवि वफादार नेता की बन गई और उनका राजनीतिक सितारा चमकने लगा।1980 मे कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव जीता तो इंदिरा गांधी ने पार्टी के वफादार नेताओ को पुरस्कृत करना शुरू किया और उन्होने वी०पी० सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया,उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक ही रहा क्योकि उन्होने जनता से “डकैत-मुक्त प्रदेश” बनाने का वादा किया था,किंतु डकैतो द्वारा उनके भाई की हत्या कर देने के बाद उन्होने नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।इसके पश्चात्त वह 29 जनवरी 1983 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने फिर 31 दिसम्बर 1984 को वह भारत के वित्तमंत्री भी बने,इसी दौरान उन्होने सोने के स्मगलंगरो की कमर तोड़ दी और जब घोर पूंजीवादी औद्योगिक घरानो को भ्रष्टाचार तथा कर-चोरी के मामलो मे रंगे हाथो पकड़ना शुरू किया तब बिजनेस लॉबी और ब्यूरोक्रेट्स ने राजीव गांधी के कान भरकर उनका विभाग बदलवाकर जनवरी 1987 मे उन्हे रक्षा मंत्री बनवा दिया,उन्होने अपने वित्त मंत्री कार्यकाल के दौरान विदेशी कंपनी फेयरफैक्स से जासूसी करवाकर बिजनेस लॉबी और ब्यूरोक्रेट्स के विरुद्ध संवेदनशील सूचनाएं एकत्रित कर ली थी फिर रक्षा मंत्री के पद पर रहते हुये उन्हे जर्मनी मे तैनात भारतीय राजदूत ने एच.डी.डब्ल्यू. पनडुब्बी सौदे मे दलाली की सूचना दी,जिससे उनके और राजीव गांधी के बीच मे काफी तनाव बढ़ गया फिर उन्होने इस्तीफा देते हुये बोफोर्स तोप दलाली का मुद्दा उछालकर कांग्रेस छोड़ दी।
वी०पी० सिंह ने असंतुष्ट कांग्रेसियो के साथ मिलकर 2 अक्टूबर 1987 को अपना एक पृथक मोर्चा गठित किया फिर इस मोर्चे मे सात दलो को मिलाकर नये मोर्चे का निर्माण 6 अगस्त 1988 को हुआ और 11 अक्टूबर 1988 को राष्ट्रीय मोर्चे का विधिवत गठन कर लिया गया,इसी दौरान उन्होने इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव मे सुनील शास्त्री को हराया और 11 अक्टूबर 1988 को जयप्रकाश के जन्मदिन के अवसर पर जनता दल का गठन किया था,1989 के लोकसभा चुनाव मे उनके राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटे मिली और भाजपा (86 सांसद) तथा वामदलो (52 सांसद) की सहायता से 248 संसद सदस्यो का समर्थन पाकर वह 2 दिसंबर 1989 को प्रधानमंत्री बने,किंतु संप्रदायिक शक्तियो ने 10 नवंबर 1990 को उनकी सरकार गिरा दी और जब 1996 मे उन्हे दोबारा प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव दिया गया तब उन्होने राजनीति से संयास ले लिया।
विश्वनाथ प्रताप सिंह गुलिस्तान-ए-हिंद के सुर्ख़ गुलाब के फूल थे,जिसको हमारी कमज़ोर आंखे स्वार्थ रूपी अंधियारे मे काला गुलाब समझ बैठी,वह नायक थे या खलनायक?
वह सफल राजनेता थे या असफल?
वी०पी० सिंह के जीवन चरित्र का विश्लेषण करते हुये बुद्धिजीवी दो भागो मे बंट जाते है,एक वह समूह है जो उन्हे सफल राजनेता और नायक मानते है,दूसरा वह समूह है जो उन्हे असफल नेता और खलनायक मानते है।उनकी सबसे बड़ी सफलता यह थी कि वह महात्मा गांधी की तरह “वन मैन बाउंड्री” वाली तर्ज़ पर अकेले संप्रदायिक शक्तियो के सामने सीना तान कर डट गये थे और अपना राजपाट त्याग दिया था,फिर सियासत से किनारा कर लेने के बावजूद भी पीड़ितो के पक्ष मे आमरण अनशन के लिये बैठ गये,जिससे उनकी शुगर गिरकर 41 पर पहुंच गई और फिर उन्हे किडनी की बीमारी लगी गई जो उनकी मौत का कारण बनी।
वी०पी० सिंह ने मई 1980 मे बांदा की तिंदवारी विधानसभा सीट पर हुये उपचुनाव मे कांग्रेस केे उम्मीदवार राजेंद्र सिंह का बुलेट पर प्रचार करके राजनीतिक शुचिता और प्रशासन मे पारदर्शिता लाने शुरुआत कर दी थी,क्योकि मुख्यमंत्री होने बावजूद भीे सरकारी फायदे ना लेते हुये उन्होने कहा था; “कम से कम खर्च हो इसलिये दो पहियो पर प्रचार कर रहा हूं, चार पहियो पर नही”,फिर रक्षा सौदो मे हमेशा से चली आ रही दलाली और भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर एक नये राजनीतिक अध्याय का शुभारंभ किया।
वी०पी० सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करके संविधान के अनुच्छेद 340 को व्यवहारिक रूप दे दिया जो 26 जनवरी 1950 से संविधान मे तो मौजूद था किंतु व्यवहार मे लागू नही हुआ था,चूँकि इस अनुच्छेद मे सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गो के लिये विशेष प्रावधान किया गया है और मंडल कमीशन का गठन इसी अनुच्छेद के तहत हुआ है,इसलिये वी०पी० सिंह ने देश की आधी आबादी का भाग्य रातो-रात बदलते हुये भारत की तीन हज़ार से ज़्यादा पिछड़ी जातियो को एक वर्ग मे समेटकर उन्हे सत्ता का सबसे बड़ा दावेदार बना दिया,क्योकि बिखरी हुई इन जातियो को आरक्षण के साझा हित और राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने एकसूत्र मे बांध दिया।पहला ज़ोखिम भरा फैसला रियासत पर भरोसा करतेे हुये “ब्यूरोक्रेसी के पर नही कतरने” का था,क्योकि अधिकांश देशो मे रियासत ही भ्रष्टाचार की मलाई खाती है, इसलिये वह किसी भी परिवर्तनकारी नेता को बर्दाश्त नही करती है।
वी०पी० सिंह भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे विशेषकर रक्षा सौदो की दलाली को जिसमे ब्यूरोक्रेसी का बड़ा हिस्सा होता है,इसलिये उन्हे ब्यूरोक्रेसी पर कड़ी नज़र रखनी चाहिये थी,किंतु उल्टे उन्होने दरबारी कल्चर पैदा करके ब्यूरोक्रेट्स को चाटुकारिता करने का अवसर दिया,जिसका लाभ उठाते हुये ब्यूरोक्रेट्स ने पहले तो दलाली की जांच को धीमा करके विश्वनाथ प्रताप सिंह की छवि खराब करी फिर अवसर मिलते ही उनका तख्ता पलटवा दिया।मीडिया गुरूओ की मनुवादी मानसिकता को ना समझते हुये “भारतीय मीडिया को प्रगतिशील मान लेने की भूल” वी०पी० सिंह के पतन का दूसरा कारण बनी,यद्यपि उस समय मीडिया बहुत सीमित थी फिर भी सवर्णो का आधिपत्य था,जिन्होने क्षत्रिय अर्थात मांडा के राजा वी०पी० सिंह को घर-घर पहुंचाने मे बड़ी मेहनत की थी,फिर वी०पी० सिंह के लिये सवर्ण मध्यवर्गीय वोट बैंक को तैयार किया था।
मंडल-कमीशन के लागू होने के बाद मीडिया मे बैठे सवर्णो को अपने पेट पर लात लगती नज़र आई,इसलिये मनुवादी मीडिया ने मंडल विरोधी आंदोलनो को भड़काने और राम मंदिर आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने मे बहुत बड़ी भूमिका निभाई,फिर मीडिया ने अंतिम समय तक वी०पी० सिंह का पीछा नही छोड़ा और उनके राजनीतिक सन्यास की जमकर खिल्ली उड़ाई इसलिये वी०पी० सिंह कहते थे;”मैंने चुनावी राजनीति से संन्यास लिया है, अगर चुप होकर बैठ जाऊं तो क्या नागरिक होने की अपनी भूमिका निभा पाऊंगा?”।
वी०पी० सिंह यह समझ नही पाये कि “पिछड़े सत्ता मे भागीदारी चाहते है इसलिये उन्हे अपना जातिगत नेतृत्व चाहिये”,बल्कि वह मंडल कमीशन के माध्यम से पिछड़ो का आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्तर ऊपर उठाना चाहते थे,चूंकि वी०पी० सिंह शाही खानदान से थे और वह बड़े स्तर के राजनीतिज्ञ थे,इसलिये वह यह अंदाज़ा नही लगा पाये कि अभी भी पिछड़े सवर्णो की तरह राजनीतिक रूप से परिपक्व और वैचारिक रूप से स्वतंत्र नही हुये है।यद्यपि उन्होने कभी भी खुलकर इस विषय पर कुछ नही कहा फिर भी मुझे लगता है,कि उनके मन मे टीस थी कि पिछड़ो ने उनके बलिदान को नज़रअंदाज़ कर दिया,क्योकि उन्हे आशा रही होगी कि पिछड़े उनके पीछे लामबंद हो जायेगे परंतु पिछड़े वी०पी० सिंह को ठेंगा दिखाकर अपने जातिगत नेताओ के पीछे खड़े हो गये थे।
किताबो, पुराने समाचार पत्रो और पत्रिकाओ की प्रतिलिपि/कटिंग के द्वारा आप वी०पी० सिंह को समझ नही सकते है,वी०पी० सिंह की मनोस्थिति समझने के लिये आपको उनकी चित्रकला (पेंटिग्स) का अध्ययन करना होगा और कविताएं पढ़ना पड़ेगी,क्योकि उनकी रचनाएं उनके व्यवहार का प्रतिबंध है,वी०पी० सिंह जो ठान लेते थे वह काम करके रहते थे,
[“भगवान हर जगह है,
इसलिये जब भी जी चाहता है,
मै उन्हे मुट्ठी मे कर लेता हूँ,
तुम भी कर सकते हो,
हमारे तुम्हारे भगवान मे,
कौन महान है?
निर्भर करता है
किसकी मुट्ठी बलवान है?”]
मंडल कमीशन पर अपने निर्णय के लिये वह कहते थे;”गोल करने मे मेरा पांव जरूर टूट गया, लेकिन गोल तो हो गया”,किंतु जब एक बार वह आगे बढ़ जाते थे तो पलट कर नही देखते थे,
[” मै और वक्त
काफिले के आगे-आगे चले चौराहे पर..
मै एक ओर मुड़ा
बाकी वक्त के साथ चले गये”]
[“उसने उसकी गली नही छोड़ी,
अब भी वही चिपका है,
फटे इश्तेहार की तरह।
अच्छा हुआ मै पहले
निकल आया
नही तो मेरा भी वही हाल होता”।]
किंतु जीवन भर वह अंतर्द्वंद मे फंसे रहे,क्योकि शायद उन्हे ऐसा लगता था जैसे वह महाभारत के अर्जुन हो,
“कैसे भी वार करू उसका सर धड़ से अलग नही होता था,
धरती खोद डाली पर वह दफन नही होता था,
उसके पास जाऊँ
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था,
खिसिया कर दांत काटूँ,
तो मुँह मिट्टी से भर जाता था,
उसके शरीर मे लहू नही था,
वार करते-करते मै हांफने लगा
पर उसने उफ्फ नही की,
तभी एका-एक पीछे से,
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा,
तब पता चला
कि अब तक मै
अपने दुश्मन से नही,
उसकी छाया से लड़ रहा था,
वह दुश्मन जिसे अभी तक,
मैने अपना दोस्त मान रखा था।
मै अपने दोस्त का सर काटूँ,
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूँ”।]
एक चाणक्य की उपाधि वाला महापुरुष तब तक राजनीति से किनारा नही करता है,जब तक उसे वर्तमान राजनीतिक गंदगी से घिन ना आने लगे,”मुफ़लिस से अब चोर बन रहा हूँ, मै पर इस भरे बाज़ार से चुराऊँ क्या?
यहाँ वही चीजे सजी है, जिन्हे लुटाकर मैं मुफ़लिस बन चुका हूँ”।
जो व्यक्ति स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा हर-दिल-अज़ीज़ (लोकप्रिय) नेता होना चाहिये था, वह त्यागी महाऋषि एक अनजान मौत मरा क्योकि उसने व्यवस्था परिवर्तन करने की कोशिश करी थी,उसने भ्रष्ट नौकरशाहो और घोर पूंजीवादी (Crony Capitalist) उद्योगिक घरानो को रास्ते पर लाने (सुधारने) का प्रयास किया था,उसने हज़ारो सालो से पीड़ित, शोषित और वांछित मानवो को सामाजिक न्याय देने का दुस्साहस किया था।
अचार्य नारायण देव से लेकर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर तक जैसे महापुरुषो का अंतिम समय बहुत पीड़ादायक था अर्थात मौत से पहले अपनी राजनीतिक मौत मर चुके थे,किंतु काशीराम ने बाबा साहब अंबेडकर को राजनीतिक रूप से पुनर्जीवित कर दिया,इसलिये हमे यह याद रखना चाहिये,कि अगर वी०पी० सिंह नही होते तो काशीराम भी नही होते, मुलायम-लालू प्रसाद यादव भी नही होते, नीतीश कुमार भी नही होते और अरविंद केजरीवाल भी नही होते।जिस तरह महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियो से वज्र बनवाकर राक्षसो से देवताओ की रक्षा करी,ठीक उसी तरह वी०पी० सिंह ने अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति और त्याग से लोकतंत्र की रक्षा करके भारतीय राजनीति की दिशा और दशा बदलने की असफल कोशिश करी।
वी०पी० सिंह द्वारा उठाये गये कदमो के फलस्वरुप भारतीय समाज मे क्रांतिकारी परिवर्तन आये,एक तरफ तो सामाजिक न्याय के नाम पर पिछड़ी जातियां भारत की सबसे ताकतवर वोट-बैंक वाली जातियां बनकर समाज मे अपना प्रभुत्व स्थापित करने मे सफल हो गई अर्थात सत्ता के गलियारो मे दबंगई करने लगी,तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर अन्ना हज़ारे जैसे जादूगर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते हुये पुराने राजनीतिक मापदंड धराशयी करने और नये मापदंड स्थापित करने मे सफल हो गये।
जब भारतीय अल्पसंख्यक आर्थिक और शैक्षिक रूप से सक्षम होकर अपने मीडिया हाउस स्थापित करने मे सफल होगे, पिछड़े राजनीतिक रूप से परिपक्व होकर जातिगत राजनीति से ऊपर उठते हुये संसद मे अपनी (पिछड़ो) आबादी के हिसाब से आरक्षण पाने मे सक्षम होगे,जब दलित आरक्षण की बैसाखियो से आगे बढ़कर वोट-बैंक की राजनीति करने वाले नेताओ के चंगुल से निकलते हुये राष्ट्र की मुख्यधारा मे शामिल होगे,तब वी०पी० सिंह पुनर्जीवित हो जायेगे।
जब सभी धर्मो और जातियो के लोग (भारतीय) संकीर्ण मानसिकता और बांटने वाली राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र को एक सूत्र मे बांधने की कोशिश करेगे और भ्रष्टाचार मुक्त तथा पारदर्शी प्रशासन की स्थापना के लिये संघर्षरत होगे,तब सब एक-साथ चिल्ला-चिल्लाकर नारा लगायेगे,वी०पी० सिंह हमारी स्वाधीनता प्राप्ति के प्रेरक और प्रतीक है!क्योकि वी०पी० सिंह ने हमे स्वाभिमान से जीवन जीने का अधिकार दिलवाया,इसलिये उनका जन्मदिन भारत मे “स्वाभिमान दिवस” के रुप मे मनाया जाना चाहिए!