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क्या किसी एक शायर के चले जाने से शायरी के सफर को लगाम लग जाती है?
क्या मिर्ज़ा ग़ालिब के इंतेकाल से उर्दू का कारवां रुक गया?
क्या एक इंसान के गुज़र जाने से साझा विरासत तितर-बितर होकर बिख़र जाती है?
क्या महात्मा गांधी के निधन से हिंदू-मुस्लिम एकता खत्म हो गई?
ज़ाहिर सी बात है कि इन सभी सवालो के जवाब मे कहा जायेगा, कि “किसीे एक व्यक्ति के होने या ना होने से कोई असर नही पड़ता है और दुनिया चलती रहती है”,किंतु यह भी सच्चाई है कि एक व्यक्ति के ना होने से पूरा दौर (युग) बदल जाता है,क्योकि इतिहास मे अनेको उदाहरण भरे पड़े है जो यह साबित करते है कि अमुक व्यक्ति उस वक्त के लिये कितना ख़ास (महत्वपूर्ण) था,
[“उस सितमगर की मेहरबानी से,
दिल उलझता है ज़िंदगानी से,
ख़ाक से कितनी सूरते उभरी,
धुल गए नक़्श कितने पानी से,
हम से पूछो तो ज़ुल्म बेहतर है,
इन हसीनो की मेहरबानी से,
और भी क्या क़यामत आएगी,
पूछना है तेरी जवानी से,
दिल सुलगता है अश्क बहते है,
आग बुझती नही है पानी से,
हसरत-ए-उम्र-ए-जावेदाँ लेकर,
जा रहे है सरा-ए-फ़ानी से,
हाए क्या दौर-ए-ज़िंदगी गुज़रा,
वाक़िए हो गए कहानी से,
कितनी ख़ुश-फ़हमियो के बुत तोड़े,
तू ने गुलज़ार ख़ुश-बयानी से”]
12 जून 2020 के दिन मनहूस खबर आई कि आधुनिक उर्दू साहित्य का स्तंभ माने जाने वाले गुलज़ार देहलवी इस दुनिया से रुखसत हो चुके है,पांच दिन पहले उनकी कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव आई थी,लेकिन कमज़ोर सेहत और बढ़ती उम्र की वजह से यह मर्दे-मुजाहिद हार्ट-अटैक का शिकार हो गया।
[“उम्र जो बे-ख़ुदी मे गुज़री है,
बस वही आगही मे गुज़री है,
कोई मौज-ए-नसीम से पूछे,
कैसी आवारगी मे गुज़री है,
उन की भी रह सकी न दाराई,
जिन की अस्कंदरी मे गुज़री है,
आसरा उन की रहबरी ठहरी,
जिन की ख़ुद रहज़नी मे गुज़री है,
आस के जुगनुओ सदा किस की,
ज़िंदगी रौशनी मे गुज़री है,
हम-नशीनी पे फ़ख़्र कर नादाँ,
सोहबत-ए-आदमी मे गुज़री है,
यूँ तो शायर बहुत से गुज़रे है,
अपनी भी शायरी मे गुज़री है,
मीर के बाद ग़ालिब-ओ-इक़बाल इक सदा,
इक सदी मे गुज़री है”]
सफेद चूड़ीदार पायजामा, गुलाब के फूल लगी सफेद शेरवानी और सिर पर नेहरू टोपी यही इस महान शख्सियत की पहचान रही,वह हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब (समग्र-संस्कृति) के अलम-बरदार (ध्वजा-वाहक) थे,उन्हे फिरक़ा-परस्ती (संप्रदायिकता) से सख़्त नफरत थी क्योकि वह दिलो को तोड़ने के बजाय जोड़ना चाहते थे।
वह एक अज़ीम शायर, उसूलो और रिवायतो के ताबेदार, एक ज़हीन नक़्क़ाद, जदीद उलूम से आशना, तहज़ीबी और सक़ाफ़ती अदब की एक नुमाया अलामत थे,गुलज़ार देहलवी का गुज़र जाना उस आख़िरी क़िस्सागो का रुख़सत होना है,जिसकी कहानियो मे दिल्ली की तहज़ीब और ज़बान सांस लेकर ज़िंदा रहती थी।
[“हम जो गुज़रे उन की महफ़िल के क़रीब,
इक कसक सी रह गई दल के क़रीब,
सब के सब बैठे थे क़ातिल के क़रीब,
बे-कसी थी सिर्फ़ बिस्मिल के क़रीब,
ज़िंदगी क्या थी अजब तूफ़ान थी,
अब कहीं पहुँचे है मंज़िल के क़रीब,
इस क़दर ख़ुद-रफ़्ता-ए-सहरा हुए
भूल कर देखा न महमिल के क़रीब,
हाए उस मुख़्तार की मजबूरियाँ
जिस ने दम तोड़ा हो मंज़िल के क़रीब,
ज़िंदगी-ओ-मौत वाहिद आइना
आदमी है हद्द-ए-फ़ासिल के क़रीब,
ये तजाहुल आरिफ़ाना है जनाब
भूल कर जाना न ग़ाफ़िल के क़रीब,
तर्बियत को हुस्न-ए-सोहबत चाहिए
बैठिए उस्ताद-ए-कामिल के क़रीब,
होश की कहता है दीवाना सदा
और मायूसी है आक़िल के क़रीब,
देखिए उन बद-नसीबो का मआल
वो जो डूबे आ के साहिल के क़रीब,
छाई है ‘गुलज़ार’ मे फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
फूल है सब गुल शमाइल के क़रीब”]
[“अब तो सहरा मे रहेगे चल के दीवानो के साथ,
दहर मे मुश्किल हुआ जीना जो फ़र्ज़ानो के साथ,
ख़त्म हो जाएँगे क़िस्से कल ये दीवानो के साथ,
फिर इन्हे दोहराओगे तुम कितने उनवानो के साथ,
बज़्म मे हम को बुला कर आप उठ कर चल दिए,
क्या सुलूक-ए-नारवा जाएज़ है मेहमानो के साथ,
नफ़रते फैला रहे है कैसी शैख़-ओ-बरहमन,
क्या शुमार इन का करेगे आप इंसानो के साथ,
उन की आँखो की गुलाबी से जो हम मख़मूर है,
इक तअल्लुक़ है क़दीमी हम को पैमानो के साथ,
हर तरफ़ कू-ए-बुताँ मे हसरतो का है हुजूम,
एक दिल लाए थे हम तो अपना अरमानो के साथ,
कल तलक दानाओ की सोहबत में थे सब के इमाम,
आज कैसे सुस्त है यूँ शैख़ नादानो के साथ,
उन की आँखे इक तरफ़ ये जाम-ओ-मीना इक तरफ़,
किस तरह गर्दिश मे है पैमाने पैमानो के साथ,
आशिक़ो के दिल मे शब-फ़ानूस रौशन हो गए,
शमा का जीना है लाज़िम अपने परवानो के साथ,
गुलज़ार-ए-जहाँ मे गुल यगाने हो गए,
लह-लहाकर अब रहेगा सब्ज़ा बेगानो के साथ”]
मेरी उनसे चंद मिनटो की छोटी सी मुलाकात लगभग देढ़ दशक पहले हुई थी और उस वक़्त मुझे दिल्ली मे आये हुये थोड़ा सा ही अरसा हुआ था,मेरे एक परिचित जो उर्दू के विद्वान और पत्रकार थे उन्होने मेरा उनसे परिचय करवाया,तो मैने उर्दू मे उनके योगदान की प्रशंसा करते हुये कहा; कि “मै आपकी उर्दू से आपको मुसलमान समझा”, तो उन्होने पलटकर मुझसे कहा; कि “मै आपकी उर्दू से आपको मुसलमान नही समझा”,उनके जवाब से मै दंग रह गया, मानो जैसे काटो तो खून नही क्योकि मेरे पास कोई जवाब नही था और शायद मुझे बुरा भी लगा था।
वास्तव मे वह मेरे पैतृक निवास स्थान अर्थात पूर्व रियासत रामपुर की उर्दू मे योगदान के कारण बहुत इज़्ज़त करते थे,किंतु काफी समय तक पश्चिमी भारत मे रहने के कारण मेरी उर्दू निम्न स्तरीय हो गई थी और मेरा लहजा मुंबईया (बॉलीवुड) जैसा हो गया था जिसे उत्तर-भारतीय उर्दू के विद्वान अंडरवर्ल्ड (गुंडो) की भाषा मानते है,इसलिये उनको यह बात अर्थात मेरी भाषा पसंद नही आई थी क्योकि वह मुझसे बहुत अच्छी उर्दू बोलने की उम्मीद कर रहे थे,उस समय मै अपरिपक्व था लेकिन उन्होने मेरी आत्मा को झकझोर दिया था फिर मैने दोबारा से अपना उर्दू तलफ्फुज़ (उच्चारण) और लहजा सुधारा।
गुलज़ार साहब बुलंद अख़लाक के जिंदादिल इंसान थे,किंतु जिंदगी मे घटी कुछ घटनाये गुलज़ार साहब जैसे महान इंसान के लहजे मे भी कड़वाहट पैदा कर देती है,क्योकि गुलज़ार साहब ने अपने अज़ीज़ दोस्त जगदीश मेहता के जिस चेले “संपूर्ण सिंह कालरा” को ज़मीन से उठाकर आसमान पर बैठाने लिये भरपूर मेहनत करी थी,उस इंसान ने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ने के बाद उनकी तरफ एकबार पलटकर भी नही देखा और ऊपर से उनका तख़ल्लुस चुराकर “गुलज़ार” बन गया।
[“न सही हम पे इनायत नही पैमानो की,
खिड़कियाँ खुल गईं आँखो से तो मय-ख़ानो की,
आ नही सकता समझ मे कभी फ़र्ज़ानो की,
सुर्ख़-रू कैसे जबीने हुई दीवानो की,
ज़ुल्फ़ बिखराए सर-ए-शाम परेशान है वो,
क़िस्मते औज पे है चाक-गरेबानो की,
दास्ताँ कोहकन-ओ-क़ैस की फ़र्सूदा हुई,
सुर्ख़ियाँ हम ने बदल डाली है अफ़्सानो की,
आँखे तो भीग चुकी और न प्यार आ जाए और रूदाद सुने आप न दीवानो की,
मय-कदे आने से पहले का ज़माना तौबा,
ख़ाक छानी है हरम और सनम-ख़ानो की,
ज़ख़्म-ए-दिल को कोई मरहम भी न रास आएगा,
हर गुल-ए-ज़ख़्म मे लज़्ज़त है नमक-दानो की,
जाने कब निकले मुरादो की दुल्हन की डोली,
दिल मे बारात है ठहरी हुई अरमानो की,
ज़ख़्म पर हँसते है अश्को को गुहर कहते है,
अक़्ल मारी गई इस दौर मे इंसानो की,
कितने मोमिन नज़र आते है सनम-ख़ानो मे,
एक काफ़िर नही बस्ती मे मुसलमानो की,
जितनी तज़हीक तेरे शहर मे अपनो की हुई,
उतनी तौहीन न होगी कही बेगानो की,
रात बढ़-बढ़ के जो शमा पे हुए थे सदक़े,
सुब्ह तक ख़ाक न देखी गई परवानो की,
हरम-ओ-दैर की बस्ती मे है तमीज़-ओ-नफ़ाक़,
कोई तफ़रीक़-ए-मिल्लत देखी न दीवानो की,
लोग क्यूँ शहर-ए-ख़मोशाँ को खिंचे जाते है,
जाने क्या जान है इस बस्ती मे बे-जानो की,
रुख़ बदलते है दोराहे पे खड़े है सालार,
सई-ए-नाकाम तो देखे कोई नादानो की,
हाथा-छाँटी है अजब और अजब लूट-खसूट,
निय्यते और है शायद कि निगहबानो की,
पूछे ‘गुलज़ार’ से है वो बे-ज़बान-ए-सौसन,
तुम कहाँ बज़्म मे आए हो ज़बाँ-दानो की”]
[“उन की नज़र का लुत्फ़ नुमायॉ नही रहा,
हम पर वो इल्तिफ़ात-ए-निगारॉ नही रहा,
दिल-बस्तगी-ओ-ऐश का सामॉ नही रहा,
ख़ुश-बाशी-ए-हयात का सामॉ नही रहा,
ये भी नही कि गुल मे लताफ़त नही रही,
पर जन्नत-निगाह गुलिस्तॉ नही रहा,
हर बे-हुनर से गर्म है बाज़ार-ए-सिफ़लगी,
अहल-ए-हुनर के वास्ते मैदॉ नही रहा,
अपनी ज़बान अपना तमद्दुन बदल गया,
लुत्फ़-ए-कलाम अब वो सुख़न-दॉ नही रहा,
क्यूँ अब तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत से है गुरेज़,
क्या वो जुनून-ए-कूचा-ए-जानॉ नही रहा,
सीखा है हादसात-ए-ज़माना से खेलना,
हम को हिरास-ए-मौजा-ए-तूफ़ॉ नही रहा,
हर बैत जिस के फ़ैज़ से बैत-उल-ग़ज़ल बने,
अब वो सुरूर-ए-चश्म-ए-ग़ज़ालॉ नही रहा,
दीवानगी-ए-शौक़ के क़ुर्बान जाइऐ,
अब इमतियाज़-ए-जेब-ओ-गरेबॉ नही रहा,
पीर-ए-मुग़ॉ की बैअत-ए-कामिल के फ़ैज़ से,
अब शैख़ नाम का भी मुसलमॉ नही रहा,
उन की निगाह-ए-नाज़ का ये इल्तिफ़ात है,
चारागरो का ज़ीस्त पर एहसॉ नही रहा,
क्या हाल है तुम्हारा अज़ीज़ान-ए-लखनऊ,
तहज़ीब-ए-अहल-ए-दिल्ली का पुरसॉ नही रहा,
हर शय है इस जहान मे लेकिन ख़ुदा-गवाह,
‘गुलज़ार’ इस दयार मे इंसॉ नही रहा”]
[“ज़िंदगी राह-ए-वफ़ा मेजो मिटा देते है,
नक़्श उल्फ़त का वो दुनिया मे जमा देते है,
इस तरह जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा देते है,
वो जिसे अपना समझते है मिटा देते है,
एक जुल रोज़ हमे आप नया देते है,
वादा-ए-वस्ल को बातो मे उड़ा देते है,
ख़ुम-ओ-मीना-ओ-सुबू बज़्म मे आते आते,
अपनी आँखो से कई जाम पिला देते है,
हुस्न का कोई जुदा तो नही होता अंदाज़,
इश्क़ वाले उन्हे अंदाज़ सिखा देते है,
कोसने देते है जिस वक़्त बुतान-ए-तन्नाज़,
हाथ उठाए हुए हम उन को दुआ देते है,
मेरे ख़्वाबो मे भी आते है अदू के हमराह,
ये वफ़ाओ का मिरी आप सिला देते है,
हालत-ए-ग़ैर पे यूँ ख़ैर से हँसने वाले,
इस तवज्जोह की भी हम तुम को दुआ देते है,
शहर मे रोज़ उड़ाकर मेरे मरने की ख़बर,
जश्न वो रोज़ रक़ीबो का मना देते है,
दैर-ओ-काबा हो कलीसा हो कि मय-ख़ाना हो,
सब हर इक दर पे तुझी को तो सदा देते है,
इश्वा-ओ-हुस्न-ओ-अदा पर तेरी मरने वाले,
कितने मासूम यूँ ही उम्र गंवा देते है,
पए गुल-गश्त वो गुल-पोश जो आए ‘गुलज़ार’,
ज़िंदगी सब्ज़े के मानिंद बिछा देते है”]
[“मक़्सद-ए-हुस्न है क्या चश्म-ए-बसीरत के सिवा,
वज्ह-ए-तख़्लीक़-ए-बशर क्या है मोहब्बत के सिवा,
ख़ून-ए-दिल थूकते फिरते है जहां मे शायर,
क्या मिला शहर-ए-सुख़न मे उन्हे शोहरत के सिवा,
आज भी इल्म-ओ-फ़न-ओ-शेर-ओ-अदब है पामाल,
बा-कमालो को मिला कुछ न इहानत के सिवा,
हाथ मे जिन के ख़ुशामद का है गदला कश्कोल,
उन को एज़ाज़ भी मिल जाएंगे इज़्ज़त के सिवा,
रात दिन रंज है इस बात का सब को ख़ालिक़,
अर्सा-ए-हश्र मे क्या लाएं नदामत के सिवा,
ये मशीनो की चका-चौंद ये दौर-ए-आलात,
इस मे हर चीज़ मुक़द्दर है मुरव्वत के सिवा,
ग़ोता-ज़न हम रहे कसरत के समुंदर मे फ़ुज़ूल,
कौन ये प्यास बुझाए तेरी वहदत के सिवा,
क्या ज़माने मे दिया तू ने अक़ीदत का मआल,
हम को रंज-ओ-ग़म-ओ-अंदोह-ओ-मुसीबत के सिवा,
हम जो अपनाएं ज़माने मे तवक्कुल या रब,
बाब खुल जाएंगे हम पर तेरी रहमत के सिवा,
जब उतरती हों सर-ए-अर्श से आयात-ए-जुनूं,
कौन हो ख़ालिक़-ए-अश-आर मशिय्यत के सिवा,
कितने हातिम मिले ‘गुलज़ार’ ज़माने मे हमे,
वो कि हर चीज़ के वासिफ़ थे सख़ावत के सिवा”]
[“दिल-ए-दर्द-आशना का मुद्दा क्या?
किसी बेदाद की कीजिए दवा क्या?
हुआ इंसॉ ही जब इंसॉ का दुश्मन,
शिकायत फिर किसी की क्या गिला क्या?
बहार-ए-ताज़ा आई गुल्सितॉ मे,
खिलाए जाने गुल बाद-ए-सबा क्या?
वो कहते है नशेमन तर्क कीजिए,
चली गुलशन मे ये ताज़ा हवा क्या?
उठी इंसानियत यकसर यहां से,
यकायक ख़ू-ए-इंसॉ को हुआ क्या?
नही मालूम मुस्तक़बिल किसी को,
मराहिल पेश आएं जाने क्या क्या?
उजड़ कर रह गया दो दिन मे हे हे,
मेरे ‘गुलज़ार’-ए-हिन्दी को हुआ क्या?”]
उनके अशार (शब्द) आज भी नौजवानो की ज़बानो पर रवॉ होते है,यही उनके शेरो का कमाल है कि हर दौर और हर उम्र के इंसानो के दिल के तारो को झन-झना (बजा) जाते है।
[“एक काफ़िर-अदा ने लूट लिया,
उन की शर्म-ओ-हया ने लूट लिया,
इक बुत-ए-बेवफ़ा ने लूट लिया,
मुझ को तेरे ख़ुदा ने लूट लिया,
आशनाई बुतो से कर बैठे,
आशना-ए-जफ़ा ने लूट लिया,
हम ये समझे कि मरहम-ए-ग़म है,
दर्द बन कर दवा ने लूट लिया,
उन के मस्त-ए-ख़िराम ने मारा,
उन की तर्ज़-ए-अदा ने लूट लिया,
हुस्न-ए-यकता की रहज़नी तौबा,
इक फ़रेब-ए-नवा ने लूट लिया,
होश-ओ-ईमान-ओ-दीन क्या कहिए,
शोख़ी-ए-नक़श-ए-पा ने लूट लिया
रहबरी थी कि रहज़नी तौबा,
हम को फ़रमॉ-रवा ने लूट लिया,
एक शोला-नज़र ने क़त्ल किया,
एक रंगीं-क़बा ने लूट लिया,
हम को ये भी ख़बर नही ‘गुलज़ार’,
कब बुत-ए-बेवफ़ा ने लूट लिया,
हाए वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बू तौबा,
हम को बाद-ए-सबा ने लूट लिया,
उन को ‘गुलज़ार’ मै ख़ुदा समझा,
मुझ को मेरे ख़ुदा ने लूट लिया”]
[“पहले तो दाम-ए-ज़ुल्फ़ मे उलझा लिया मुझे,
भूले से फिर कभी न दिलासा दिया मुझे,
क्या दर्दनाक मंज़र-ए-कश्ती था रूद मे,
मै ना-ख़ुदा को देख रहा था ख़ुदा मुझे,
बैठा हुआ है रश्क-ए-मसीहा मेरे क़रीब,
कैसी बेबसी से देख रही है क़ज़ा मुझे,
उन का बयान मेरी ज़बाँ पर जो आ गया,
लहजे ने उन के कर दिया क्या ख़ुश-नवा मुझे,
जिन को रही सदा मेरे मरने की आरज़ू,
जीने की दे रहे है वही अब दुआ मुझे,
जाने का वक़्त आया तो आई सदा-ए-हक़,
मुद्दत से आरज़ू थी मिले हम-नवा मुझे,
हर बाम-ओ-दर से एक इशारा है रोज़-ऐ-शब,
नॉ मै वफ़ा को छोड़ सका नॉ वफ़ा मुझे,
दुनिया ने कितने मुझ को दिखाए है सब्ज़ बाग़,
उन से न कोई कर सका लेकिन जुदा मुझे,
ख़ुश्बू से किस की महक रहे है मशाम-ए-जॉ,
दामन से दे रहा है कोई तो हवा मुझे,
तस्वीर उस के हाथ मे लब पर मेरी ग़ज़ल,
देखा न एक आँख न जिस ने सुना मुझे,
फ़र्द-ए-अमल में मेरी हो शामिल सब उन के जौर
उन के किये की शौक़ से दीजिए सज़ा मुझे,
मेरी वफ़ा का उन को मिले हश्र मे सिला,
मिल जाएं उन के नाम के जौर-ओ-जफ़ा मुझे,
हर रोज़ मुझ को अपना बदलना पड़ा जवाब,
रोज़ इक सबक़ पढ़ाता है क़ासिद नया मुझे,
देखा तुम्हारी शक्ल मे हुस्न-ए-अज़ल की ज़ौ,
सज्दा तुम्हारे दर पे हुआ है रवा मुझे,
झोंका कोई नसीम का ‘गुलज़ार’-ए-नाज़ मे,
उन का पयाम काश सुनाए सबा मुझे”]
[“दिल ही दिल मे दर्द के ऐसे इशारे हो गये,
ग़म ज़माने के शरीक-ए-ग़म हमारे हो गये,
जो अभी महफ़ूज़ है तन्क़ीद है उन का शऊर,
हाल उन का पूछिए जो बे-सहारे हो गये,
बिन खिले मुरझा गई कलियां चमन मे किस क़दर,
ज़र्द-रू किस दर्जा हाय माह-पारे हो गये,
अम्न की ताक़त को कुचला सच को रुस्वा कर दिया,
दुश्मनो के चार-दिन मे वारे-न्यारे हो गये,
ये ज़माना किस क़दर बार-ए-गरां साबित हुआ,
अपने बेगाने हुये बेगाने प्यारे हो गये,
दुश्मन-ए-दीं दुश्मन-ए-जां दुश्मन-ए-अम्न-ओ-सुकूँ,
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे हो गये,
डूबने वालो से ज़ाइद खा रहा है उन का ग़म,
जिन को साहिल तेग़-ए-उर्या के किनारे हो गये,
अश्क-ए-ग़म मे नूर-ए-रहमत इस तरह शामिल रहा,
चाँद-तारो से सिवा ये चाँद-तारे हो गये,
हाय गुलज़ार-ए-जहां मे छा गई ग़म की घटा,
जो शगूफ़े थे चमन मे वो शरारे हो गये”]
[“बिठा के दिल मे गिराया गया नज़र से मुझे,
दिखाया तुरफ़ा-तमाशा बला के घर से मुझे,
नज़र झुका के उठाई थी जैसे पहली बार,
फिर एक बार तो देखो उसी नज़र से मुझे,
हमेशा बच के चला हूँ मै आम राहो से,
हटा सका न कोई मेरी रहगुज़र से मुझे,
हयात जिस की अमानत है सौंप दूँ उस को,
उतारना है ये क़र्ज़ा भी अपने सर से मुझे,
सुबू न जाम न मीना से मय पिला बे-शक,
पिलाए जा मेरे साक़ी यूंही नज़र से मुझे,
जो बात होती है दिल मे वो कह गुज़रता हूँ,
नही है कोई ग़रज़ अह्ले-ए-ख़ैर-ओ-शर से मुझे,
न दैर से न हरम से न मय-कदे से मिला,
सुकून-ए-रूह मिला है जो तेरे दर से मुझे,
किसी की राह-ए-मोहब्बत मे बढ़ता जाता हूँ,
न राहज़न से ग़रज़ है न राहबर से मुझे,
ज़रा तो सोच हिक़ारत से देखने वाले,
ज़माना देख रहा है तिरी नज़र से मुझे,
ज़माना मेरी नज़र से तो गिर गया लेकिन,
गिरा सका न ज़माना तिरी नज़र से मुझे,
ये रंग-ओ-नूर का ‘गुलज़ार’ दहर-ए-फ़ानी है,
यही पयाम मिला उम्र-ए-मुख़्तसर से मुझे”]
पेश है उनके दिल को छू लेने वाले कुछ बेशकीमती शेर :-
[“नज़र झुका के उठाई थी जैसे पहली बार,
फिर एक बार तो देखो उसी नजर से मुझे”]
[“हुस्न का कोई जुदा तो नही होता अंदाज़,
इश्क़ वाले उन्हे अंदाज़ सिखा देते है”]
[“हम से पूछो तो ज़ुल्म बेहतर है,
इन हसीनो की मेहरबानी से,
और भी क्या क़यामत आयेगी,
पूछना है तेरी जवानी से”]
[“ज़ख़्म-ए-दिल को कोई मरहम भी न रास आएगा’
हर गुल-ए-ज़ख़्म मे लज़्ज़त है नमक-दानो की”]
[“जाने कब निकले मुरादो की दुल्हन की डोली,
दिल मे बारात है ठहरी हुई अरमानो की”]
[“उम्र-भर की मुश्किलें पल भर मे आसाँ हो गई,
उन के आते ही मरीज़-ए-इश्क़ अच्छा हो गया”]
[“ख़ुदा ने हुस्न दिया है तुम्हे शबाब के साथ,
शुबु-ओ-ज़ाम खनकते हुए रबाब के साथ”]
[“वो कहते है ये मेरा तीर है जॉ ले के निकलेगा,
मै कहता हूं ये मेरी जान है मुश्किल से निकलेगी”]
बररे-सग़ीर (भारतीय उपमहाद्वीप) की आवाम के दिल मे उनके लिये जो इज़्ज़त और मोहब्बत है उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है,कि एक प्रोग्राम की सदारत (अध्यक्षता) कर रहे तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी ने अपने ख़िताब (संबोधन) मे कहा था; “जब मंच पर गुलजार देहलवी जैसे शायर मौजूद हो, ऐसे मे मेरा कुछ बोलना बेअदबी होगी”।
[“या मिला क़ौम को ख़ुद अपना निगहबॉ हो कर,
सौ तरह देख लिया हम ने परेशॉ हो कर,
काफ़िर-ए-इश्क़ ही अच्छे थे सनम-ख़ानो मे,
शान-ए-ईमॉ न मिली साहब-ए-ईमॉ हो कर,
नक़्स-ए-तंज़ीम से हो तर्क-ए-चमन क्या मा’नी,
हम को रहना है यही तार-ए-रग-ए-जॉ हो कर,
क्या हुआ गर कोई हिन्दू कि मुसलमॉ ठहरा,
आदमियत का नही पास जो इंसॉ हो कर,
हम बुझे भी तो बुझे मिस्ल-ए-चराग़-ए-सहरी,
और जो रौशन हो तो हों शम-ए-शबिस्तॉ हो कर,
दिल मे अहबाब के हम बन के असर बैठेंगे,
और उठेंगे इसी गुलशन से बहारॉ हो कर,
क्या गुलिस्तॉ मे नया हुक्म-ए-ज़बॉ-बंदी है,
बाग़बॉ भी हुआ सय्याद-ए-निगहबॉ हो कर,
सिदके निय्यत से अगर उस की चमन-बंदी हो,
फिर रहे क्यूँ न वतन मुल्क-ए-सुलैमॉ हो कर,
अब हम अपने लिए ख़ुद सूद-ओ-ज़ियॉ सोचेगे,
हम को जीना ही नही बंदा-ए-एहसॉ हो कर,
रश्क-ए-गुलज़ार-ए-इरम अर्ज़-ए-वतन जब होगी,
अपने बेगाने बसे सुम्बुल-ओ-रैहॉ हो कर”]
[“न सानी जब मज़ाक़-ए-हुस्न को अपना नज़र आया,
निगाह-ए-शौक़ तक ले कर पयाम-ए-फ़ित्ना-गर आया,
कहा ला-रैब बढ़कर इल्म-ओ-दानिश ने अक़ीदत से,
जो बज़्म-ए-अहल-ए-फ़न मे आज मुझ सा बे-हुनर आया,
सर-ए-महफ़िल चुराना मुझ से दामन इस का ज़ामिन है,
नही आया अगर मुझ तक ब-अंदाज़-ए-दिगर आया,
बहुत ऐ दिल तेरी रूदाद-ए-ग़म ने तूल खींचा है,
कभी वो बुत भी सुनने को ये क़िस्सा मुख़्तसर आया,
हमारी इक ख़ता ने ख़ुल्द से दुनिया मे ला फेंका,
अगर दर-पेश दुनिया से भी फिर कोई सफ़र आया,
मै ख़ुद ही बेवफ़ा हूँ बे-अदब हूँ अपना क़ातिल हूँ,
हर इक इल्ज़ाम मेरे सर ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर आया,
मुकद्दर कुछ फ़ज़ा ‘गुलज़ार’ दिल्ली मे सही लेकिन,
कही अहल-ए-ज़बाँ हम सा भी उर्दू मे नज़र आया”]
उनका जन्म 7 जुलाई 1926 को पुरानी दिल्ली के गली कश्मीरियान मे हुआ था,उनके पिता त्रिभुवन नाथ जुत्शी उर्फ “ज़ार देहलवी” दिल्ली यूनिवर्सिटी मे फारसी विभाग के प्रोफेसर थे और उर्दू मे योगदान के कारण उन्हे पुरानी दिल्ली मे “मौलवी साहब” के उपनाम से पुकारा जाता था जो उनके रुतबे (समाज मे सम्मान/स्थान) की गवाही देता है,
उनकी माता ब्रजरानी जुत्शी उर्फ “बेज़ार देहलवी” उर्दू की प्रसिद्ध कवित्री थी।उनका परिवार मूलत: कश्मीरी ब्राह्मण (पंडित) था जो दिल्ली मे बस गया था और फिलहाल वह नोएडा मे रहते थे,उन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय से कला और विधि मे स्नातक (एम.ए. और एल.एल.बी.) की उपाधि अर्जित की थी,वह 1960 से 1862 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कालेज मे उर्दू के प्रोफेसर रहे,भारत सरकार ने उर्दू शायरी और साहित्य मे उनकी सेवाओ के लिये उन्हे ‘पद्मश्री” से पुरस्कृत किया और 2009 मे उन्हे “मीर तकी मीर” पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
माता-पिता दोनो के शायरी से जुड़े होने की वजह से उन्हे शायरी विरासत मे मिली थी और उनके वालिदेन (अभिभावक) बाल्यकाल काल से ही उन्हे मेहमानो को कविता सुनाने के लिये प्रेरित करते और मुशायरे (काव्य गोष्ठी) तथा दूसरे कार्यक्रमो मे मंच पर कविता पढ़वाने का प्रयास करते थे,बालक की प्रतिभा को देखते हुये उर्दू के कई प्रसिद्ध शायरो ने उनके पिता को उनका तख़ल्लुस (उपनाम) रखने की सलाह दी,इसलिये 1933 मे उनके माता-पिता ने अपने घर पर उर्दू के प्रसिद्ध शायरो और बुद्धिजीवियो को अपने बेटे का उपनाम रखने के लिये दावत दी,फिर सर्वसम्मति से “गुल-ओ-गुलज़ार” नामक तख़ल्लुस (उपनाम) का चुनाव किया जो बाद मे बदलकर “गुलज़ार देहलवी” हो गया।
आनंद मोहन जुत्शी से गुलज़ार बनने के बाद से तो मानो उनके पर लग गये हो और वह आसमान मे बुलंद परवाज़ करने लगे हो,क्योकि जब वह कविता पाठ करते तो ऐसा समा बांधते कि सड़को पर चलती हुई भीड़ रुक जाया करती थी और बहुत बड़ा मजमा इकट्ठा हो जाता था,जब वह मैट्रिक की पढ़ाई पढ़ रहे थे तब उनकी चर्चा अरूणा आसिफ अली के सामने हुई तो वह उनके घर आकर गुलजार के माता-पिता से बोली कि “आप यह बच्चा हमे आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिये दे दीजिये”,फिर स्वतंत्रता प्राप्ति तक गुलज़ार स्वतंत्रता संग्राम के जलसो (सभाओ) और कार्यक्रमो मे अपनी हुब्बुल-वतनी (देशभक्ति) वाली नज़मो (कविताओ) से स्वतंत्रता सेनानियो मे जोश भरने का काम करते है।
पंडित जवाहरलाल नेहरू पुरानी दिल्ली मे रहने वाले कश्मीरी पंडितो से बहुत खुशी-खुशी मुलाकात करना पसंद करते थे,गुलजार उन चंद कश्मीरी पंडितो मे से थे जिन्हे जवाहरलाल नेहरू बहुत पसंद किया करते थे क्योकि वह उनकी शायरी के मुरीद (प्रशंसक) थे,नेहरू उनके अधिक से अधिक कार्यक्रमो मे सम्मीलित होने का प्रयास करते थे,वह हर वर्ष विजयादशमी के अवसर पर रामलीला ग्राउंड मे आयोजित रामलीला समारोह मे आते थे जिसके आयोजन और संचालन की ज़िम्मेदारी गुलज़ार साहब की ही होती थी।
एक शायर के लिये इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता है,कि 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली मे आज़ादी के जश्न पर हुये जलसे (जनसभा) को ख़िताब (संबोधित) करते हुये प्रधानमंत्री नेहरू ने गुलज़ार देहलवी की लिखी नज़्म को अपने खु़तबे (संबोधन/भाषण) मे पढ़ा हो,
[गुलजार देहलवी की वह ऐतिहासिक नज़्म यह है :-
“जरूरत है उन नौजवानो की हमको
जो आगोश मे बिजलियो के पले हो,
कयामत के सांचे मे अक्सर ढले हो,
जो आतिश फिजा की तरह भड़के,
जो ले सांस भी तो बरपा जलजले हो,
उठाए नजर तो बरस जाए बिजली,
हिलाए कदम तो बरपा जलजले हो,
दगा पीछे-पीछे हो खुद जिनके मंजिल,
जो दोनो जहां जीत कर चल पड़े हो,
खुदी को खुदा को जो बस मे लाए,
दिलो मे ऐसे लिए कुछ वलवले हो,
जरूरत है उन नौजवानो की”]।
हम इस काबिल नही कि उन्हे ख़िराजे तहसीन (श्रद्धांजलि) पेश करे,हम अपने दावे को सही साबित करने लायक भी नही है कि इंसान मरने के बाद कहां जाता है?
हम इतना तो दावा कर सकते है कि जब तक दुनिया मे उर्दू ज़बान ज़िंदा रहेगी,तब तक आनंद मोहन जुत्शी उर्फ गुलज़ार देहलवी का नाम अमर रहेगा और उनका हर लफ्ज़ उन्हे हर लम्हा जिंदा रखेगा।
[“फ़लाह-ए-आदमियत मे,
सऊबत सह के मर जाना,
यही है काम कर जाना,
यही है नाम कर जाना,
जहाँ इंसानियत वहशत के हाथो ज़ब्ह होती हो,
जहाँ तज़लील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना,
यूँ ही दैर-ओ-हरम की ठोकरे खाते फिरे बरसो,
तेरी ठोकर से लिक्खा था मुक़द्दर का सँवर जाना,
सुकून-ए-रूह मिलता है ज़माने को,
तेरे दर से बहिश्त-ओ-ख़ुल्द के मानिंद हम ने तेरा दर जाना,