तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
(श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद)
द्वितीय अध्याय (सांख्य योग)
(छंद 36-42)
श्रीकृष्ण : ( श्लोक 11-53)
तू जान गया जब इसको,
क्या अर्थ शोक का है फिर।
संवेगों को मत गति दे,
कर पुन: बुद्धि को स्थिर।।(36)
यदि फिर भी तू यह पाता,
यह जन्म मृत्यु के अंदर।
है जन्म सुनिश्चित इसका,
मरता है यह कालांतर ।। (37)
तो भी हे मित्र सुबाहु,
जो जन्मा, वह मरता है।
मरने वाला, हे अर्जुन,
फिर देह नयी धरता है।।(38)
इस जीवन और मरण में,
स्थान कहाँ संशय को।
क्यों शोकाकुल है मन में,
स्थान दे रहा भय को।।(39)
अदृश्य जीव था पहले,
अदृश्य पुन: वह होगा।
बस प्रकट मात्र जीवन है,
जिसको हमने है भोगा।।(40)
अदृश्य-दृश्य की कड़ियाँ,
ही है स्वरूप जीवन का।
फिर शोक कहाँ है समुचित,
स्थान कहाँ क्रंदन का।। (41)
आश्चर्य, अचंभा क्या है,
ज्ञानी कब दर्शन करता।
कब इसे बाँचता ज्ञानी,
कब ज्ञानी इसको वरता।।(42)
क्रमशः
-तरुण प्रकाश श्रीवास्तव
विशेष :गीत-गीता, श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद है तथा इसमें महान् ग्रंथ गीता के समस्त अट्ठारह अध्यायों के 700 श्लोकों का काव्यमय भावानुवाद अलग-अलग प्रकार के छंदों में कुल 700 हिंदी के छंदों में किया गया है। संपूर्ण गीता के काव्यमय भावानुवाद को धारावाहिक के रूप में अपने पाठकों के लिये प्रकाशित करते हुये आई.सी.एन. को अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।