एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
(The Jewish Fairies of Bollywood : A Tribute)
नई दिल्ली। पहली पत्नी सायरा से जन्मे पैगंबर इब्राहीम के मंझले पुत्र इसाक़ के बेटे याकूब (इज़रायल) के वंशजो को इज़रायली अर्थात यहूदी कहा जाता है,जब मनुष्य अनाज के एक-एक दाने के लिये संघर्ष करता था तब यहूदियो की जिंदगी मे रंग भरे होते थे,इसलिये “खुदा के चुने हुये लोग (मनुष्य)” होने के घमंड ने उन्हे मानव-जाति से अलग-थलग कर दिया।विरोधियो के निशाने पर आ जाने के बावजूद भी उनका आत्मविश्वास नही टूटा,बल्कि यहूदियो की अभिनव सोच और खोजी प्रवृत्ति मानव जाति को वित्त तथा विज्ञान के क्षेत्र मे नित नई उपलब्धियां प्रदान करती रही,इसलिये आधुनिक वित्त व्यवस्था अर्थात बैंकिंग का जन्मदाता यहूदियो को ही माना जाता है और द्वितीय विश्व युद्ध तक लगभग तीन चौथाई वैज्ञानिक अविष्कार यहूदी समुदाय की ही देन है। यद्यपि यहूदियो का समाज पुरुष-सत्तात्मक ही था और विवाहित महिलाओ का जीवन मुस्लिम महिलाओ से भी अधिक संघर्षपूर्ण था,किंतु सैकड़ो वर्षो के अपमान भरे नारकीय जीवन मे जब जीवन-मरण का प्रश्न पैदा होता है अथवा अस्तित्व बचाने का संकट सर पर खड़ा हो तो सांस्कृतिक बंधन टूट जाते है और यही यहूदी समाज मे हुआ,जिसके परिणाम स्वरूप महिला़ये पैसा कमाने के लिये घर से बाहर निकलकर काम करने लगी।किंतु जब महिलाये धीरे-धीरे आत्मनिर्भर होने लगी तब समाज मे बराबरी तथा स्वाभिमान का मुद्दा उभरने लगा और फिर “पहचान का संघर्ष” शुरू हो गया,क्योकि महिलाये पुरुषो से अधिक कमाने लगी थी इसलिये समानता की आड़़ मे सिगरेट तथा शराब पीने लगी तो समाज मे परिवर्तन की हवा के झोंके आने लगे,फिर थोड़े नख़रे दिखाने के बाद पुरुष सत्तात्मक समाज ने हालात से समझौता कर लिया और महिलाओ ने अवसर का लाभ उठाकर अपना सिक्का जमा दिया।
पुरुष सत्तात्मक समाज को चुनौती देती यहूदी महिलाये और बदली परिस्थितियां बॉलीवुड के लिये एक वरदान साबित हुई,क्योकि बॉलीवुड मे महिला कलाकारो विशेषकर अभिनेत्रियो का अकाल पड़ा हुआ था और इस कमी को यहूदी महिलाओ ने पूरा कर दिया,इसलिये आज भी बॉलीवुड यहूदी अभिनेत्रियो का ऋणी है क्योकि उन्होने आधार स्तंभ बन कर बॉलीवुड का चेहरा बदल दिया वरना आज भी बॉलीवुड की छवि “आर्ट फिल्मो” वाली होता है और कॉमर्शियल फिल्मे सिर्फ एक मरीचिका समान होती है।
बॉलीवुड मे यहूदी अभिनेत्रियो के आगमन से पहले पुरुष कलाकार महिलाओ की भूमिका भी अदा किया करते थे,क्योकि संभ्रांत/सम्मानित परिवारो की महिलाये फिल्मो मे काम (अभिनय) करना दुष्कर्म (पाप) समझती थी,बल्कि सिर्फ राजा-नवाब के दरबार मे नाचने-गाने वाली नर्तकी-गायिका ही फिल्मो मे काम करने का ज़ोख़िम लेती थी।फिर बॉलीवुड से जुड़े परिवारो की महिलाये अपने परिवार के पुरुष सदस्यो की सहायता के नाम पर फिल्मो मे अभिनय करने लगी,किंतु क्रांति तब आई जब कामकाजी महिलाये अधिक धन कमाने के लालच मे बॉलीवुड की तरफ दौड़ने लगी,क्योकि बॉलीवुड मे काम करने वाली अभिनेत्रियो का वेतन उस समय के मुंबई प्रेसिडेंसी के गवर्नर से भी अधिक होता है।
धुंदीराज गोविंद उर्फ दादा साहब फाल्के ने 1913 मे पहली पूर्ण मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी,हालांकि दादा साहब फाल्के बॉलीवुड मे सफलता की प्रतिमूर्ति माने जाते है,किंतु वह महिला अभिनेत्रियो की खोज मे “रेड लाइट एरिया” मे भटकते रहे परन्तु किसी वेश्या ने भी उनकी फिल्म मे अभिनय करना स्वीकार नही किया,इसलिये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उस समय किसी महिला का फिल्मो मे काम करना कितना बुरा माना जाता होगा।
सुलोचना (Ruby Myers)
पुणे मे वर्ष 1907 मे जन्मी रूबी मेयर्स चांद जैसे चमकते अंडाकार चेहरे, बिल्ली जैसी कुंजी आंखे, नुकीली नाक, संतरे की फांक जैसे होंठ, टमाटर जैसे लाल गाल, सुराही-दार गर्दन, किंतु मोटे-ताज़े जिस्म (हष्ट-पुष्ट शरीर) वाली ख़ूबसूरत महिला थी,जिनके रेशमी बाल और माथे पर पढ़ी हुई जुल्फे साक्षात किसी सांप-बिच्छू की तरह उन्हे देखने वाले पुरुष को डंक मारा करते थे,क्योकि उनकी खूबसूरती बेमिसाल थी और वह यूरेशियन सुंदरता की प्रतीक मानी जाती है,इसलिये यहूदी मूल की मुसलमान अभिनेत्री मधुबाला ही उनसे ज़्यादा खूबसूरत (सुंदर) मानी जाती है।वह एक निजी फर्म मे टेलिफोन ऑपरेटर हुआ करती थी तभी “कोहिनूर फिल्म कंपनी” के मालिक “मोहन भावनानी” की नज़र उन पर पड़ी और उन्होने उन्हे अपनी फिल्म के लिये ऑफर दिया लेकिन लोक-लाज के डर से सुलोचना ने अस्वीकार कर दिया किंतु बार-बार मनाने पर उन्होने फिल्म मे काम करना स्वीकार कर लिया,उसके बाद फिर उन्होने कभी पीछे मुड़कर नही देखा और मोहन भावनानी के साथ कई सफल फिल्मे देने के बाद उन्होने “इंपीरियल फिल्म्स कंपनी” के साथ भी काम किया।
उनकी मशहूर मूक फिल्मे “टाइपिस्ट गर्ल” (1926), “बलिदान” (1927), “वाइल्ड कैट ऑफ बॉम्बे” (1927), “माधुरी” (1928), “अनारकली” (1928) तथा “इंदिरा बी०ए०” (1929) थी,फिर उन्होने “माधुरी” (1932) से बोलती हुई फिल्मो मे वापसी करी और “अनारकली” फिल्म मे तीन बार काम किया,किंतु “वाइल्ड कैट ऑफ बॉन्बे” उनकी यादगार फिल्म थी जिसमे उन्होने आठ अलग-अलग किरदार निभाये थे।
सुलोचना 1920 के दशक मे प्रति माह पाँच हज़ार (5000) रूपये से अधिक का वेतन पाती थी जो उस समय मुंबई प्रेसिडेंसी के गवर्नर के वेतन से भी अधिक था,उनके पास शेवरले (Chevrolet) जैसी महंगी कारे थी और रोल्स रॉयस (Rolls Royce) जैसी महंगी कार खरीदने वाली पहली (शाही-परिवारो के अतिरिक्त) भारतीय थी,1973 मे उन्हे भारतीय फिल्मो मे विशेष योगदान देने के लिये “दादा साहब फाल्के पुरस्कार” से सम्मानित किया गया।