उर्दू शायरी में ‘धूप’: 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

धूप का ख़याल आते ही ज़ह्न में रोशनी और तपन भर जाती है। धूप रोशनी भी है और ज़िंदगी भी। धूप अगर जीवन के चमकदार पक्ष की वकालत करती है तो वह जीवन के जलते हुये सफ़र की साक्षी भी है। धूप के अनेकों रंग हैं और वैज्ञानिक तथ्य तो यह है कि जब सारे रंग एक साथ मिल जाते हैं तो ‘धूप’ बन जाती है।

 

उर्दू शायरी में इस बहुआयामी धूप को तरह-तरह से परिभाषित करने की कोशिशें हुई हैं लेकिन धूप है कि किसी एक खाने में बंधने का नाम ही नहीं लेती है। आख़िर धूप है क्या, उर्दू शायरी में इसे किन-किन नज़रियों से देखा गया है, यह बहुत दिलचस्प है।हम सबकी ज़िंदगी में धूप के कई मायने हैं। कभी यह खुशी की प्रतीक है तो कभी ग़म की। कभी इसे उजाले के रूप में देखा जाता है तो कभी जलन के रूप में। आइये, आज इसे शायरों की नज़रों से परखने की कोशिश करते हैं।

हसरत मोहानी एक बेहतरीन शायर के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। हिंदुस्तानी क्रांति को ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा देने वाले हसरत मोहानी को नयी नस्ल उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है’ के हवाले से जानती है। वर्ष 1875 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के‌ मोहान नामक स्थान पर जन्मे हसरत मोहानी का निधन वर्ष 1951 में हुआ। ‘धूप’ पर उनका यह शेर अपनी मोहब्बत के पुराने दिनों को अपने कलेजे से लगा कर जीने वाले हर  वयक्ति को बखूबी याद है  –

 

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए,

वो तिरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है।”

माहिर-उल-क़ादरी का जन्म 1906 में अविभाजित भारत में हुआ था तथा वर्ष 1978  में कराँची, पाकिस्तान में उनका निधन हुआ। धूप को कितनी खूबसूरती से उन्होंने हुस्न से जोड़ा है और उनका यह तसव्वर तो देखते ही बनता है –

 

नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है।

वो निकली धूप साया जा रहा है।।”

अख़्तर होशियारपुरी रावलपिंडी, पाकिस्तान के बाशिंदे थे जो वर्ष 1918 में जन्मे और जिनका इंतकाल वर्ष 2007 में हुआ। पाकिस्तान का प्रतिष्ठित सम्मान तमगा-ए-इम्तियाज़ भी उन्हें हासिल हुआ। धूप पर उनका यह शेर देखिये –

 

कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है,

इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ ।”

नासिर काज़मी वर्ष 1923 में अंबाला में जन्मे और भारत के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये। वे आधुनिक उर्दू शायरी के संस्थापकों में से एक थे। भारत व पाकिस्तान विभाजन का दर्द उनकी शायरी में झलकता है। वर्ष 1972 में उनका निधन हो गया। धूप के बाद शाम की ठंडी हवाओं का अपना ही मज़ा है। एक शेर देखिये – 

 

“सारा दिन तपते सूरज की गर्मी में जलते रहे,

ठंडी ठंडी हवा फिर चली सो रहो सो रहो।”

वर्ष 1927 में अहमदाबाद में जन्मे जनाब मोहम्मद अल्वी उर्दू शायरी में एक ऊँचा मुक़ाम रखते हैं। ख़ाली मकान (1963), आख़िरी दिन की तलाश (1967), तीसरी क़िताब (1978), चौथा आस्मान (1991) एवं रात इधर उधर रौशन (1995) उनके मशहूर दीवान हैं। उनकी शायरी में ‘धूप’ अपनी पूरी चमक के साथ खड़ी दिखाई देती है। आइये, ‘धूप’ के हवाले से उनसे मुलाकात करते हैं –

 

धूप ने गुज़ारिश की।

एक बूँद बारिश की।।”

 

और इस खूबसूरत शेर में तो पूरी एक तस्वीर समाई हुई है –

 

अल्वी’ ये मो’जिज़ा है दिसम्बर की धूप का,

सारे मकान शहर के धोए हुए से हैं।”

 

‘मो’जिज़ा’ का अर्थ है – चमत्कार ।

डा० बशीर बद्र का नाम उर्दू शायरी में बहुत ऊंचाई पे स्थित है। उनको अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन जाने का हुनर हासिल है और दुनिया को सबसे ज्यादा मशहूर और मकबूल शेर देने का कीर्तिमान भी उन्हीं के नाम है। धूप उनका भी प्रिय विषय है। वे कहते है –

 

मैं डर गया हूँ बहुत सायादार पेड़ों से,

ज़रा सी धूप बिछा कर क़याम करता हूँ।”

 

और एक शेर यह भी –

 

फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम,

जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा।”

डा० राहत इन्दौरी उर्दू शायरी के एक और बड़े और नामचीन शायर हैं। मंचों पर बहुत प्यार से सुने भी जाते हैं और अपने दीवानों के माध्यम से बड़े शौक से पढ़े भी जाते हैं। उनका अंदाज भी अलग और अदायगी भी। देखिये तो, किस अलग अंदाज में उन्होंने धूप को याद किया है –

 

धूप बहुत है मौसम जल थल भेजो न,

बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न।”

लखनऊ के उस्ताद शायर जनाब नसीम अख़्तर सिद्दिक़ी उर्दू शायरी का एक बड़ा नाम है। वे लखनवी‌ अंदाज़ की शायरी के अपने अाप में एक स्कूल थे। अपने इंतकाल के बाद भी वे अपने प्रशंसकों के दिलों में पूरी शिद्दत से ज़िंदा हैं। वे लफ़्ज़ों से चित्रकारी करते थे। ज़रा धूप का एक दृश्य देखें तो –

 

मैंने बहुत समझाया लेकिन मेरी बात न मानी धूप।

शाम ढली तो नीलगगन में डूब मरी दीवानी धूप।।

 

संगी साथी कोई नहीं हैं उस पर ये उफ़्तादे सफ़र,

पाँव के नीचे रेत का दरिया,सर पर रेगिस्तानी धूप।”

 

 

 

सुहैल काकोरवी उर्दू शायरी के ‘लिविंग लिजेंड’ हैं। जब किसी भी मौजू पर वर्तमान शायरी और तेवर की बात हो रही है तो वह बात बगैर सुहैल काकोरवी की शायरी को शामिल किये बिना पूरी ही नहीं हो सकती है। सुहैल काकोरवी धूप पर कुछ इस तरह से फ़रमाते हैं-

 

“वो हसीं रोशनी की रानाई,

उसका किरदार धूप जैसा है।”

 

यही नहीं, धूप पर तो एक मुक़म्मल ग़ज़ल कही है उन्होंने –

 

ये तर्ज़-ए-नौ है कौसेकज़ह बन गयी है धूप।

जलवों के सात रंगों में ज़ाहिर हुई है धूप।। 

 

बेदार है निज़ाम सुए इर्तिका हैं गुल, 

सारे चमन में हुस्न है ताज़ा खिली है धूप। 

 

इस सोच ने ही मेरे पसीने छुड़ा दिए, 

उस अतिशीं मिज़ाज से मिलने लगी है धूप।

 

हर रोज़ उस हसीन की है शान ही नयी,

महसूस करके देखिये हर दिन नयी है धूप।

 

उसका सुरूर सूरत-ए-बारिश बरस गया,

आगोशे अब्र में जो मज़े ले रही है धूप।

 

खुद जल रहा हूँ साया फराहम किये हूँ मैं,

मिल कर मेरे वजूद से ठंडी हुई है धूप ।

 

आ जा हमारा इश्क है निस्फुन नहार पर, 

सारे जहाँ में चारों तरफ भर गयी है धूप ।

 

बस इससे ही तो शरहे रूखे आफताब है, 

इर्फानो आगही की अलामत बनी है धूप। 

 

खुशबू शराब रंग से उसकी शिनाख्त है,

लेकिन रूखे बहार की ताबिंदगी है धूप। 

 

जब सारी कायनात करे आपकी सना,

तफसील इस सना की है ये आपकी है धूप। 

 

तुम शब् के साथ जश्न-ए-तमन्ना मनाओगे,

बस इतनी बात सुनके ही कुम्भला गयी है धूप। 

 

नर्मी पे है तो उसका तसव्वुर है नर्म छाँव,

गर वो बिगड़ गया तो वही आदमी है धूप।

 

इससे दिल-ए-सुहैल में अरमान जाग उठे, 

जज्बों के साथ वक़्त-ए-सहर जाग उठी है धूप।” 

 

उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं – ‘कौसे कज़ह’ – इन्द्र धनुष, ‘बेदार’- जागना, ‘सुए इर्तिका’- उन्नति की ओर, ‘फराहम’- उपलब्ध, ‘निस्फुन नहार’- आधा दिन, इर्फानो आगही- समझदारी और ज्ञान, ‘सना’- तारीफ

 

अहमद मुश्ताक़ वर्ष 1933 में जन्मे और वर्तमान में संयुक्त राज्य अमरीका में रहते हैं। वे पाकिस्तान के अपनी मौलिक क्लासिक पहचान रखते हैं और आधुनिक शायरी के नुमाइंदगी करते हैं। धूप के हवाले से उनके कुछ शेर –

 

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में,

क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया।

 

और एक यह शेर –

 

कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं होने पाती,

धूप देते हैं तो साया नहीं रहने देते।”

 

और यह शेर भी –

 

जहाँ डाले थे उस ने धूप में कपड़े सुखाने को, 

टपकती हैं अभी तक रस्सियाँ आहिस्ता आहिस्ता। 

 

और अंत में एक यह खूबसूरत शेर –

 

तिरे आने का दिन है तेरे रस्ते में बिछाने को, 

चमकती धूप में साए इकट्ठे कर रहा हूँ मैं।” 

शकेब जलाली का जन्म वर्ष 1934 में हुआ था लेकिन केवल बत्तीस वर्ष की आयु में 1966 में उन्होने खुदकुशी कर ली। वे एक मशहूर पाकिस्तानी शायर थे। धूप पर उन्होने क्या खूब कहा है –

 

जाती है धूप उजले परों को समेट के। 

ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के।।”

क्रमशः

 

 

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