अमिताभ दीक्षित, एडिटर-ICN U.P.
कहानी
अपनी गाड़ी वर्कशाप में देने के बाद, मैं चौराहे की ओर बस स्टडैण्ड की तरफ निकल गया। शायद इस गरज से कि बस या टैक्सी कुछ भी मिल जाये तो घर चला जाय। इस चिलचिलाती धूप में पैदल जाने से तो बेहतर ही होगा।
किस्मत अच्छी थी सामने ही एक घर की तरफ जाने वाली बस खड़ी दिख गई। मैं बेझिझक उसमें चढ़ गया। बस बिल्कुल खाली थी। शायद दो या चार सवारियाँ | मैं आगे से तीसरी सीट पर बाई तरफ बैठ गया। चश्मे के लेन्स पर माथे का पसीना जम आया था सो उसे उतारकर रुमाल से साफ करने लगा।
अचानक तीन-चार बच्चियाँ बस में चढ़ी। उन्हें बच्चियां तो क्या किशोरियाँ कहना ही ज्यादा उपयुक्त होगा। उनमें से ठीक मेरी सीट के सामने वाली सीट पर आ कर बैठ गई। मैंने तब तक कोई ध्यान नहीं दिया था। मैं असल में अपनी पिछली लिखी कहानी पढ़ रहा था। शायद कुछ सुधार के इरादे से। उसको खत्म करने के बाद जैसे ही आँखे ऊपर उठाईं सामने उनमें से एक का चेहरा दिखाई दिया। मैं जैसे स्तब्ध रह गया। जिस शख्स को मैं अभी कुछ दिन पहले चिता में राख़ होते देख आया हूँ उसे जीता जागता देखना अपने आप में एकदम सन्न कर देने वाली बात है। मैंने उसकी ओर देखा और देखता ही रह गया।
लगभग एक मिनट के वक्त में जाने कितनी ही पिछली यादें घूम गई मेरे जेहन में। फिर अचानक उससे नजरें मिली तो लगा कि मैं भी क्या हरकत कर रहा हूँ? क्या सोचती होगी वह मेरे बारे में। मेरी उम्र भी अभी कुछ ज्यादा नहीं और शक्ल से तो और भी कम नजर आती है इसलिये मेरे इस तरह घूरने पर मेरे बारे में कोई गलत राय कायम कर लेना स्वाभाविक ही है। मैंने ज़बरदस्ती उसके चेहरे पर से निगाहें हटा लीं। बैग से छोटी सी मैगजीन निकालकर उसे निरर्थक ही पलटने लगा। शायद ध्यान उधर से हटाने की कोशिश या बहाना था यह। लेकिन बार-२ सर ऊपर उठ जाता और निगाहें उसी तरफ मुड़ जाती।
आखिरकार जब, मैंने देखा कि बस चल दी है और वह लगातार खिड़की के बाहर देख रही है तो मै, अपना धूप का चश्मा चढ़ाकर, उसे देखने लगा। एक अजीब सा सुकून मिल रहा था मुझे उसे देखकर। लेकिन जब-जब भी वह नज़र घुमाती तो मैं अपनी निगाहें फेर लेता जिससे उसको बुरा न लगे। धीरे-२ बस अपना सफ़र तय करके उस स्टाप पर आ गई जहाँ मुझे उतरना था। लेकिन मैं तो शायद यह भूल ही चुका था। उसके अगले स्टाप पर उसकी सारी सहेलियाँ उतर गई लेकिन शायद उसे
आगे तक जाना था। आखिरकार बस जब टर्मिनल तक पहुँच गई तो उसके साथ मैं भी उतर गया। वह आगे वाले गेट से उत्तरकर थोड़ी दूर जा चुकी थी। मैं तेज कदमों से उसके नजदीक गया और बोल,“बेटी .. एक मिनट रुको” उसने आश्चर्यमिश्रित आग्नेय दृष्टि से मेरी ओर देखा लेकिन आगे चलती रही।
“बेटी… बस एक मिनट मेरी बात सुन लो” मैंने लगभग याचनापूर्ण स्वर में दोहराया।
“क्या है” उसने पूछा।
“सुनो…..! मैं लगातार तुम्हारी ओर देखता रहा.. मैं जानता हूं तुमने मेरे बारे में अच्छी राय नहीं बनाई होगी.. माफी चाहता हूँ उसके लिये” ……….मेरे गले में शब्द अटक रहे थे फिर भी मैंने कहना जारी रखा “उम्मीद है तुम माफ कर दोगी।.. लेकिन असली बात कुछ और है।“
“क्या बात है” अब तक उसके स्वर का तीखापन कुछ कम हो चल था।
“मेरे सबसे बडे भाईसाहब की एक बेटी थी… “बिल्कुल तुम्हारे बराबर…और अचरज की बात तो यह है कि “तुम्हारी कद काढी…चेहरा-मोहरा नैन नक्श सब बिल्कुल उसकी तरह हैं।” मै इतना कहकर चुप हो गया और अब तक आसमान में छा गये कुछ बादलों की ओर खमोशी से देखने लगा |
“तो क्या हुआ उसे” उसके स्वर में अब जिज्ञासा थी।
“उसका नाम मंजरी था। बचपने से ही वह मुझसे बडुत हिली थी। मुझे बहुत स्नेह था उसंसे। दस बरस पहले जब भाईसाहब की एक रोड एक्सीडेण्ट में मौत हो गई, तब से वह चौबीसो घण्टे मेरे पास रहती थी। वह अक्सर मेरे कमरे में बैठकर मेरी मेज पर पडे काग़जों पर तरह-तरह के कार्टून वगैरह बनाया करती थी। बहुत अच्छी आर्ट थी उसकी। उसके बनाये तमाम चित्र अब भी मेरे पास हैं।” मैं शान्त होकर फिर अतीत में खो गया।
फिर क्या हुआ” उसने मुझे अतीत से फिर वर्तमान में खींच लिया।
अब तक हम टहलते हुये सेक्टर तीन वाले चौराहे तक आ चुके थे।
“दो महीने पहले, अचानक एक दिन उसकी तबियत खराब हुई और तीसरे दिन सुबह उसकी मौत हो गई।” मैं इतना कहकर फिर चुप हो गया। वह भी पाँच-सात कदम चुपचाप मैरे साथ चलती रही। फिर अचानक उसने पूछा, “आपके पास उसका कोई फोटो है”,मैंने सोचा शायद उसे अब भी मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा है। संयोगवश उसके बचपन की एक फोटो अक्सर मेरे पर्स में रखी रहती थी जो आज भी थी। मैंने उसे वह फोटो निकल कर दिखा दी।
“ओह.. यह तो बिल्कुल वैसी लगती है जैसे मैं दस साल की उम्र में लगती थी ” वह लगभग आश्चर्यचकित हो गई।
“आपके पास उसका कोई ताजा फोटो नहीं है ” उसने पूछा
“नही” मैंने कहा “बस उसकी लाश के दो फोटो हैं जो घर पर है। ”
थोड़ी देर और हम आगे चलते रहे | अब उसके घर का गेट सामने था। उसने गेट खोला और मुझे बरामदे में आदरपूर्वक बैठाकर अन्दर चली गई। मैं भी मन्त्रमुग्ध सा बैठ गया और सामने लगी डूबते सूरज वाली सीनरी देखता रहा। वह पानी का ग्लास और प्लेट में कुछ ‘पेठे? के टुकड़े ले आई। सामने पड़ी बेंत की मेज़ पर दोनों चीजे रखकर बोली, “ लीजिये गर्मी बहुत है, कुछ लेकर पानी पी लीजिये। ”
मैंने एक ही सांस में सारा ग्लास खाली कर दिया।
“लीजिये न अंकल ” उसने प्लेट उठाकर मेरी ओर बढाते हुये जोर दिया। मैं मना न कर सका। पेठे का ढुकड़ा उठाकर कुतरने लगा।
“यह लीजिये मेरा फोटो ” …..उसने हाथ में एक पासपोर्ट साइज फोटो पकड़ा दिया।.. “ बिल्कुल रीसेन्ट फोटोग्राफ है ” उसे देखकर मेरी आँखों के कोर गीले हो गये। उसने भी शायद यह भाँप लिया। मैंने मन्त्रवत वह फोटो भी अपने पर्स में रख ली।
“अपना एड्रेस दे दीजिये। अगर आपको परेशानी न हो तो मैं आपसे मिलती रहँगी ”…. उसने जाने क्या सोचकर कहा।
मैंने अपना विजिटिंग कार्ड उसे दे दिया। फिर मैं उठकर चलने लगा। वह मुझे गेट तक विदा करने आई। आकर धीरे से बोली “ मुझे आप माफ कर दीजिये अकंल। मैंने आपके बारे में कुछ और ही सोच लिया था। ”
“कोई बात नही” मैने कहा और उसके सर पर हाथ फेरकर मैं अपने घर की ओर बस चार कदम ही बढ़ाये होगे कि पीछे से आकर उसने मुझे रोका “अंकल…एक मिनट ”
मैं पलटा, तो उसने मुझे बताया “अंकल मेरा नाम भी मंजरी है।”
इतना कहकर वह बगैर मेरी प्रतिक्रिया का इन्तजार किये उल्टे पैरों लौट गई।