मोहम्मद सलीम खान, एसोसिएट एडिटर-आईसीएन
सहसवान/बदायूं। इस संसार में समय-समय पर अनेक महान आत्माओं ने जन्म लिया है जिन्होंने मानवता की सेवा की खातिर अपना संपूर्ण जीवन विश्व समुदाय की भलाई में न्योछावर कर दिया।इस संसार में यदि कोई सबसे उत्तम एवं उत्कृष्ट (The greatest and exquisite job) कार्य है तो वह कार्य समाज सेवा है भूखे को खाना खिलाना नंगे को कपड़ा पहनाना भटके को रास्ता दिखाना संसार के सबसे उत्कृष्ट कार्य हैं। ईश्वर ने समय-समय पर इस संसार में ऐसी महान आत्माओं को भेजा जिन्होंने संसार की मोह माया को त्याग कर और अपने शरीर को बेपनाह कष्ट देकरऔर संसार के लोगों के द्वारा हंसी का पात्र बनकर उन्हीं लोगों की भलाई के लिए महान कार्यों को अंजाम दिया।
सर सैयद अहमद खान पंडित मदन मोहन मालवीय एनी बेसेंट सर अल्लामा इकबाल मदर टेरेसा राजा राममोहन राय जैसे ना जाने कितनी ही महान आत्माओं ने इस संसार में जन्म लिया और समाज में फैली हुई कुरीतियों को हमेशा हमेशा के लिए जड़ से खत्म किया तथा दिल लगाकर देश व समाज की सेवा की। आज मैं अपने इस लेख में एक ऐसे महान संत व दार्शनिक का उल्लेख कर रहा हूं जिन्होंने अपने ओजस्वी विचारों उत्कृष्ट कार्यशैली के द्वारा भारत का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया। उस महान व्यक्ति का नाम है नरेंद्रनाथ दत्त जिसको पूरी दुनिया स्वामी विवेकानंद के नाम से जानती है। स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक गुरु तथा समाज सुधारक थे स्वामी विवेकानंद ने पुरोहित वाद धार्मिक कर्मकांड तथा समाज में फैली हुई विसंगतियों को दूर करने का अथक प्रयास किया। वह हमेशा से युवाओं के प्रेरणा स्रोत रहे। इस लेख के माध्यम से आप स्वामी विवेकानंद केेे जीवन से जुड़े हुए तथ्य तथा विचारों के बारे में जानेंगे।
नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन 1863 को कोलकाता में हुआ था। स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त एक प्रसिद्ध वकील थे उनकी माता जी का नाम भुवनेश्वरी देवी था वह बहुत ही विनम्र स्वभाव की महिला थी। उनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित थे इसलिए वे अपने पुत्र नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद को अंग्रेजी पढ़ा कर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद बचपन से ही बहुत जहीन (बुद्धिमान) थे और ईश्वर को पाने की तीव्र इच्छा रखते थे। इस उद्देश्य से वह पहले ब्रह्म समाज में गए मगर वहां वह मत्मईन (संतुष्ट) नहीं हुए।
सन 1884 में उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई और उनके घर की सारी जिम्मेदारी स्वामी विवेकानंद के कंधों पर आ गई। घर की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी। गरीबी के हालात में भी स्वामी विवेकानंद बहुत मेहमान नवाज थे। घर आए मेहमान की खातिर तवाजो (अतिथि सत्कार) अपनी हैसियत से ज्यादा किया करते थे। घर आए मेहमान को वह खाना खिलाते और मेहमान को वह बिस्तर पर लेटाते और खुद जमीन पर लेटते थे।
स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने उनका नाम स्वामी विवेकानंद रखा और फिर उसके बाद नरेंद्रनाथ दत्त संपूर्ण विश्व में स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हो गए 11 सितंबर सन 1893 में अमेरिका के एक शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में आपने भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया। स्वामी विवेकानंद ने अपने ओजस्वी भाषण से संपूर्ण विश्व को सनातन धर्म की विशेषताएं बताकर तथा भारतीय संस्कृति से रूबरू करा कर विश्व पटल पर भारत के गौरव में चार चांद लगाए। स्वामी विवेकानंद ने समाज की सेवा करने के लिए रामकृष्ण परमहंस मिशन की स्थापना की।
रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद उनके पास तर्क करने के विचार से गए थे किंतु स्वामी परमहंस जी ने नरेंद्र को देखते ही पहचान लिया यह वही बालक है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार था। परमहंस जी की कृपा से इनको आत्म साक्षात्कार हुआ और जिसकी वजह से नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्यों सबसे अजीज और प्रिय शागिर्द (शिष्य) बन गए। दुनिया की मोह माया को त्याग कर नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद बन गए। स्वामी विवेकानंद ने अपना संपूर्ण जीवन अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की खिदमत (सेवा) में समर्पित कर दिया। अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन के अंतिम क्षणों में जब वह बहुत बीमार थे और कैंसर जैसी घातक बीमारी के कारण मुंह से रक्त थूक तथा बलगम आदि निकलता था इन सब की सफाई वे खूब ध्यान से करते थे। एक बार किसी शिष्य ने गुरु जी की सेवा करने में लापरवाही दिखाई तथा रक्त और बलगम को देखकर हिकारत (तिरस्कार) से मुंह फेर लिया यह देखकर स्वामी विवेकानंद को बहुत बुरा लगा और आपने उस सहपाठी को सेवा भाव का पाठ पढ़ाते हुए तथा अपने गुरु जी के प्रति प्रेम स्नेह दर्शाते हुए गुरुजी के बिस्तर के पास रखी हुई खून बलगम से भरी हुई थूक दानी उठाकर स्वयं पी गए।
आजकल के दौर में कॉन्वेंट एजुकेशन में पढ़ने वाले तरक्की याफ्ता (विकसित) आधुनिक दौर के हाई सोसाइटी को बिलॉन्ग करने वाले बच्चों को अपने बूढ़े मां-बाप को रात का खाँसना तक बुरा लगता है। मैंने शब्द कान्वेंट एजुकेशन विशेषकर इसलिए इस्तेमाल किया इन हाई प्रोफाइल एजुकेशन मॉल्स में एजुकेशन तो दी जाती है मगर संस्कार का बुरी तरह से अभाव है। यह बात सुनने में कड़वी तो जरूर लगेगी मगर यह किसी हद तक सत्य भी है ओर यह लिखने वाला भी जानता है और पढ़ने वाला भी। तालीम (शिक्षा) से कहीं ज्यादा जरूरत तरबियत (संस्कार) की होती है। यह स्वामी विवेकानंद के संस्कार ही थे जिसकेे कारण उन्होंने अपने गुरु परमहंस के रक्त और बलगम से भरी हुई थूकदानी उठाकर पी गए । अपने गुरु के प्रति ऐसे असीम प्रेम की अतुलनीय मिसाल बहुत ही कम मिलती हैं।
एक वाकया (घटना) मुझे याद आ रहा है। एक बूढ़ा बाप अपने एक पुत्र के साथ डॉक्टर साहब की क्लीनिक पर दवा लेने के लिए गया। उस व्यक्ति को दमा की शिकायत थी जिसकी वजह से उसे सांस लेने में बहुत दिक्कत हो रही थी और खांसी भी बहुत उठ रही थी। डॉक्टर साहब ने उस व्यक्ति की जांच पड़ताल करने के बाद उसे आश्वासन दिया कि बाबा आप ठीक हो जाएंगे। बातों ही बातों में डॉक्टर साहब ने उस व्यक्ति से पूछा बाबा आप के कितने बच्चे हैं। उस व्यक्ति ने कहां बेटा मेरे चार लड़के हैं डॉक्टर साहब ने मुस्कुराते हुए कहा वेरी गुड तो बाबा लड़के क्या करते हैं। उस बूढ़े पिता ने कहा डॉक्टर साहब मेरे 3 पुत्र तो पढ़ लिख कर कामयाब हो गए और तीनों पुत्र बहुत अच्छी सर्विस बाहर कर रहे हैं और अपने बीवी बच्चों के साथ मस्ती की जिंदगी गुजार रहे हैं। यह सबसे छोटा पुत्र ही नालायक निकला जो पढ़ लिख नहीं पाया और गांव में रहकर खेती-बाड़ी में मेरा हाथ बटाता है और घर पर रहकर मेरी सेवा कर रहा है। इस घटना से मैं अपने पाठकों को क्या संदेश देना चाहता हूं यह मुझे बताने कीआवश्यकता नहीं है। ऐसी घटनाएं हमारे देश में एक नहीं हजारों की तादात में घटित हो रही है। हमें अपने बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त अवश्य करवाना चाहिए। इस दौर में अनपढ़ व्यक्ति नेत्रहीन व्यक्ति के बराबर है मगर साथ ही साथ हमें अपने बच्चों के संस्कार (etiquette) पर भी पैनी नजर रहना चाहिए।
11 सितंबर सन 1893 मैं शिकागो अमेरिका में एक विश्व धर्म परिषद हो रही थी। स्वामी विवेकानंद उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे थे। उस समय यूरोप तथा अमेरिका के लोग पराधीन भारत वासियों को बहुत ही हिकारत की निगा (हीन दृष्टि)से देखते थे। जिस समय स्वामी विवेकानंद ने अपना ओजस्वी भाषण भाइयों और बहनों से संबोधित करते हुए शुरू किया तो सभा में उपस्थित लगभग 7000 लोगों ने 2 मिनट तक तालियां बजाकर उनका अभिवादन किया और उनका भाषण सुनकर वहां उपस्थित विद्वान लोग अचंभित रह गए। फिर तो अमेरिका में स्वामी विवेकानंद की काबिलियत का डंका बज गया और वहां उनके भक्तों का एक बहुत बड़ा समुदाय बन गया। स्वामी विवेकानंद 3 वर्षों तक अमेरिका में रहकर वहां के लोगों को भारतीय संस्कृति की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। स्वामी विवेकानंद को इस बात पर यकीन था कि अध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्न अनाथ हो जाएगा। हर वर्ष 12 जनवरी को उनकी जयंती पर राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वामी विवेकानंद हिंदू शास्त्रों वेदों उपनिषदों पुराणों तथा भागवत गीता आदि के ज्ञान वाले बुद्धिमान व्यक्ति थे।
लेख के अंत में, मैं अपने सम्मानित पाठकों को स्वामी विवेकानंद के उन महान और ओजस्वी विचारों से (great quotes) अवगत कराना चाहूंगा जिनके द्वारा नवयुवक आज भी प्रेरणा लेते हैं।
1– उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना कर लो।
2– खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।
3– सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है फिर भी हर एक सत्य ही होगा।
4– बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का एक बड़ा रूप है।
5– दिल और दिमाग के टकराव में हमेशा दिल की सुनो।
6– किसी दिन आपके सामने कोई समस्या ना आए आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं।
7– एक समय में केवल एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें झोंक दो बाकी सब भूल जाओ।
8– जब तक जीना तब तक सीखना अनुभव सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
9– दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़ा होकर दृढ़ता पूर्वक कार्य करना चाहिए।
10– जो सत्य हैं उसे साहस पूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो– उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं इस बात पर ध्यान मत दो।
4 जुलाई सन 1902 को स्वामी विवेकानंद ने अंतिम सांस ली और इस नश्वर दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए रुखसत हो गए परंतु उनके द्वारा दिए गए उपदेश और उत्कृष्ट विचारों के द्वारा वह आज भी हमारे हृदय में जीवित हैं। इस लेख में यदि कोई त्रुटि हो तो उसके लिए लेखक अपने सम्मानित पाठकों से क्षमा चाहता है।