प्रो. प्रदीप कुमार माथुर
नई दिल्ली। आज पाकिस्तान गंभीर संकट से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री इमरान खान चाहे कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें करें और चाहे चीन से मिलकर भारत के विरुद्ध विश्व में अपना वर्चस्व दिखाने का दावा करें लेकिन वह मन ही मन समझते हैं कि वह उस जर्जर और कमजोर देश के नेता हैं जिसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग रहा है। पाकिस्तान में आर्थिक और राजनीतिक संकट तो है ही पर यह वैचारिक संकट वर्ष 1970-71 के संकट से भी बड़ा है जब पाकिस्तान विभाजित हुआ और पूर्वी पाकिस्तान ने अलग होकर बांग्लादेश के रूप में जन्म लिया। जैसा सब जानते हैं कि बांग्लादेश के युद्ध में पाकिस्तान को भारत के हाथों बहुत बुरी तरह पराजित होना पड़ा था।
देश का विभाजन और युद्ध में शर्मनाक पराजय पाकिस्तान के लिए एक बहुत बड़ी त्रासदी थी, पर उससे उभरकर पाकिस्तान ने एक प्रभावशाली राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाई और परमाणु ऊर्जा का विकास कर विश्व के परमाणु शस्त्र वाले कुछ गिने-चुने राष्ट्रों में शुमार हो गया। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण पाकिस्तान विश्व की बड़ी शक्तियों जैसे अमेरिका, रूस, चीन और भारत का महत्वपूर्ण केंद्र बिंदु है। लेकिन आज पाकिस्तान के सामने आर्थिक और राजनीतिक संकटों से भी बड़ा संकट है, और वह वैचारिक संकट है जो उसकी स्थापना और उसकी सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है।मजे की बात यह है कि वर्तमान रूप में पाकिस्तान के वैचारिक अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले उसके विरोधी शत्रु न होकर उसके अपने बुद्धिजीवी और प्रबुद्ध नागरिक है। पाकिस्तान का सत्ता विरोधी मीडिया मुखर रूप से प्रश्न कर रहा है कि अस्तित्व में आने के बाद 73 वर्ष में पाकिस्तान ने क्या किया और आज उसकी इतनी बुरी हालात क्यों है।
आज आर्थिक विकास और सामाजिक सामंजस्य के मुद्दों को लेकर भारत भी संघर्षरत है। लेकिन पाकिस्तान के तमाम बुद्धिजीवियों और मुखर मीडिया की नजरों में भारत ने आशातीत सफलता प्राप्त की है और पाकिस्तान बहुत पीछे रह गया है, जबकि दोनों देश एक साथ ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद से स्वतंत्र हुए थे। पाकिस्तान में कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना के दो राष्ट्रवादी सिद्धांत पर भी प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं जिसके कारण पाकिस्तान अस्तित्व में आया।
यह भी कहा जा रहा था कि पाकिस्तान की परिकल्पना चाहे जैसी भी रही हो और अखंड भारत के विभाजन का निर्णय चाहे जैसा भी रहा हो अस्तित्व में आने के बाद पाकिस्तान को धार्मिक कट्टरता और भारत से शत्रुता के मार्ग पर नहीं चलना चाहिए था, क्योंकि इससे पाकिस्तान का बहुत नुकसान हुआ है और इसी कारण पाकिस्तान के हुक्मरान राष्ट्र निर्माण के गंभीर मसलों पर ध्यान नहीं दे सके जिसका खामियाजा पाकिस्तान की वर्तमान पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। इसी पृष्ठभूमि में आज पाकिस्तान में बुद्धिजीवी वर्ग अपने राष्ट्र की परिकल्पना को पुनः परिभाषित करने की मांग उठा रहा है जिसका एक बहुत बड़ा आयाम यह भी है कि भारत और भारतीय संस्कृति का अंध विरोध समाप्त किया जाए और भारतीय उपमहाद्वीप की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सम्मान किया जाए। प्रबुद्ध पाकिस्तानी जनमानस और मीडिया में उठते इन तमाम प्रश्नों को मूर्तरूप दिया है वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार, कूटनीतिज्ञ और राजनीतिक सलाहकार हुसैन हक्कानी ने जो अब पाकिस्तानी शासनतंत्र के कोप से बचने के लिए अमेरिका में रहते हैं। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के सलाहकार रहे और संयुक्त अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रहे, और किसी समय पाकिस्तानी व्यवस्था की आंख का तारा रहे हक्कानी साहब ने अपनी पुस्तक रीइमेजिंग पाकिस्तान में पाकिस्तान की वैचारिक परिकल्पना को पुनः परिभाषित करने की बात कही है।
हक्कानी साहब का कहना है कि जन्म के 73 साल बाद आज पाकिस्तान एक अस्थिर अर्ध-सत्तावादी राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य है जो संवैधानिक व्यवस्था या कानून के शासन के तहत खुद को लगातार चलाने में विफल रहा है। वह कहते हैं कि अर्ध-सत्तावादी राज्य वह जगह है जहां आपके पास स्वतंत्रता के कुछ तत्व हैं, इसलिए यह सोवियत संघ या नाजी जर्मनी की तरह नहीं है, लेकिन इसमें एक अभिजात वर्ग है जो देश को चलाता है और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से परिवर्तन करने की अनुमति नहीं देता है। मीडिया को स्वतंत्रता का भ्रम है लेकिन वास्तव में स्वतंत्र बहस नहीं है और यह एक राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य है क्योंकि राज्य का एक अंग सेना है और वह पूरी तरह से देश पर हावी है।
पाकिस्तानी राष्ट्रवाद को दो महत्वपूर्ण विशेषताओं से परिभाषित किया गया है। एक यह है कि पाकिस्तान मुसलमानों की भूमि है और दूसरा यह है कि पाकिस्तान भारत से अलग है। मुसलमानों की एक अंतर्निहित अक्षमता थी कि वे हिंदुओं के साथ रहें। पाकिस्तान के राष्ट्रवाद में लोगों को यही सिखाया जाता है। इसलिए पाकिस्तानी स्कूल के पाठ्यक्रम में सिंध के इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं है, बलूचिस्तान के इतिहास के बारे में भी इसमें कुछ भी नहीं है। कारण यह है कि सिन्ध और बलूचिस्तान का इतिहास दो-राष्ट्र सिद्धांत पर आधारित वैचारिक राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं करता है।
भारत में बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं इसलिए पाकिस्तान के मुसलमानों को भारत से अलग कर दिया गया है। तर्क यह है कि हमने एक राज्य बनाया है और यह राज्य हमेशा भारत की घेराबंदी की स्थिति में है। इसलिए पाकिस्तान में सेना का प्रभुत्व होना अनिवार्य है। पाकिस्तान को एक सेना विरासत में मिली और सेना के आकार से मेल खाने के लिए खतरा बढ़ा। शायद यही कारण है कि पाकिस्तान एक अर्ध-सत्तावादी राष्ट्रीय सुरक्षा राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया।
पाकिस्तान को एक नए राष्ट्र बनाने के पीछे क्या विचारधारा या सोच थीॽ पाकिस्तान को इस्लामिक देश क्यों बनाया जा रहा हैॽ इस्लामिक देश कैसा होना चाहिएॽ इस्लामिक राज्य की प्रकृति क्या होगीॽ इस्लामिक राज्य बनाने के पीछे मकसद क्या हैॽ केंद्र सरकार और प्रांतों के बीच क्या संतुलन होना चाहिएॽ क्या भारत से शत्रुता आवश्यक हैॽ जैसे कई अहम सवाल थे जिनका जबाव पाकिस्तान के जनमानस को पाकिस्तान के निर्माण के समय पता हेना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्यवश इन सावलों के जबाव कहीं नहीं मिले जिसके कारण पाकिस्तान को भारत जैसा संविधान नहीं मिला। आजादी के दो साल के भीतर भारत को अपना संविधान मिल गया। पाकिस्तान भी ऐसा कर सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया।
पाकिस्तान एक इस्लामिक राज्य है या फिर इसे मुसलमानों का राज्य कहना पर्याप्त है। इसके बाद एक अहम सवाल यह है कि अगर यह एक इस्लामिक राज्य है तो इस्लाम एक ही है फिर चाहे वह काले बंगाली हों या फिर यूरोप के गोरे हों इसलिए यह एक केंद्रीकृत राज्य नहीं होना चाहिए। साथ ही इस पर बहस क्यों नहीं होनी चाहिए।पाकिस्तान में सबसे पहले एक संवैधानिक निर्णय लेने की जगह सेना को राजनीति में हस्तक्षेप करने में सक्षम बनाया गया। इसके बाद भारत के साथ दुश्मनी ने भी सेना को और सशक्त बनाया। यदि पाकिस्तान भारत के साथ वैचारिक रूप से लगातार युद्ध कर रहा है तो उसे सैन्य रुप से मजबूत होने की जरूरत है। पाकिस्तान की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों में एक और समस्या भी आई दो राष्ट्र के सिद्धांत को प्रतिपादित और पाकिस्तान की मांग करने वाले अधिकांश मुस्लिम लोगों नेता उत्तर प्रदेश और बिहार से थे विभाजन के बाद जब वह लोग पाकिस्तान गए तब उन्होंने पाया कि पंजाब और सिंध में उनका कोई जनाधार नहीं था इसलिए जनप्रिय बनने और अपनी सार्थकता बनाए रखने के लिए उन्होंने धार्मिक कट्टरता का ही सहारा लिया।
पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ते असंतोष पाकिस्तानी सेना के दमन और वर्ष 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश के निर्माण ने दो राष्ट्रवादी सिद्धांत के वैचारिक आधार पर कुठाराघात किया। यह स्पष्ट हो गया था कि राष्ट्र निर्माण का आधार धर्म नहीं हो सकता। आशा थी कि इसके बाद विभाजित पाकिस्तान की राजनीति में धार्मिक विचारधारा का महत्व कम होगा। पर हुआ इसका ठीक उल्टा ही। अपना वर्चस्व बढ़ाने और भारत से शर्मनाक हार पर मुंह छिपाने के अपने प्रयास में प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी धर्म का सहारा लिया। उन्होंने शिमला समझौते के बाद भी भारत से 1000 वर्षीय युद्ध की बात कही। इसके साथ ही उन्होंने मुसलमानों को गैर-मुस्लिम घोषित करने वाला कानून भी पास करवाया।
स्वभाव और आचरण से उदारवादी भुट्टो राजनीतिक सुरक्षा तथा तात्कालिक लाभ लेने के लिए कट्टरपंथियों की गोद में चले गए। इस तरह से पाकिस्तान ने आधुनिक और प्रगतिशील राष्ट्र के निर्माण का एक सुनहरा अवसर फिर से गवा दिया। भुट्टो एक जनप्रिय नेता थे लेकिन वह काफी हद तक पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश बनने के लिए उत्तरदायी थे। यदि वह वर्ष 1970 के पाकिस्तानी आम चुनाव में बहुसंख्यक दल के रूप में उभरे पूर्वी पाकिस्तान के अवामी लीग के अध्यक्ष शेख मुजिबुर रहमान को प्रधानमंत्री बनने देते तो शायद ना बंगालियों का सैन्य दमन होता और न ही बांग्लादेश अस्तित्व में आता। शायद यह अपराध बोध ही भुट्टो की राजनीतिक असुरक्षा का एक कारण था। दूसरा कारण प्रभावशाली पंजाबी-पठान सैन्य तंत्र के बीच उनका सिंधी होना था, जो भारत विभाजन के समय तक मुंबई में ही रह रहे थे।
भुट्टो अकेले ऐसे नेता नहीं थे जो धार्मिक प्रतीकों से खेलकर अपना जनाधार बढ़ाकर आधुनिक पाकिस्तान का निर्माण करना चाहते थे। इस्लाम को राष्ट्र निर्माण का आधार मानने की पहली भूल तो पाकिस्तान के संस्थापक कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने ही की थी। जिन्ना की धर्म कर्म में कोई रुचि नहीं थी और वह नाम मात्र के ही मुस्लिम थे। लेकिन धर्म और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग करके पाकिस्तान के सभी नेता कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों के हाथो खेल गए। आज प्रधानमंत्री इमरान खान भी यही गलती कर रहे हैं जिसका नुकसान उन्हें भुगतना पड़ेगा।
आज पाकिस्तान का प्रबुद्ध वर्ग वह तमाम असुविधाजनक प्रश्न कर रहा है जिसका वहां के सत्तारुढ़ वर्ग के पास कोई जवाब नहीं है। विदेशों में बसे पाकिस्तानी मूल के व्यक्ति तथा वहां कार्यरत पाकिस्तानी नागरिक भी इस बात से आहत है कि पाकिस्तान को हिकारत की नजर से देखा जाता है। भारत से तुलना करने पर पाकिस्तान के लोगों का नैराश्य भाव और भी बढ़ जाता है।
मूल समस्या यह है कि पाकिस्तान की परिकल्पना के बाद नए राष्ट्र निर्माण की दिशा में न तो कोई चिंतन हुआ और न ही कोई गंभीर प्रयास हुआ। धर्मांधता, धार्मिक उद्देग, जोश, हिंदू विरोध, टकराव और हिंसा ने पाकिस्तान की नींव तो अवश्य रख दी। पर इसे राष्ट्र का रूप देने के विषय पर कोई गंभीर अध्ययन नहीं किया गया। पाकिस्तान की स्थापना के 15 वर्ष बाद पाकिस्तान का पहला संविधान आया जो कि बार-बार बदला गया। जिसके कारण न तो विकास का मार्ग बन सका और न ही किसी संस्थागत ढांचा को निर्माण हो सका। परिणामस्वरुप उपनिवेशवादी ब्रिटिश राज की संस्थाओं का ही सहारा लिया गया, जो कि एक नए राष्ट्र को चलाने में सक्षम नहीं थी। भूमि सुधार और शिक्षा जैसे अहम मुद्दों को नकारा गया तथा आर्थिक विकास का कोई रोडमैप भी नहीं बनाया गया। सेना और हथियारों पर सीमित संसाधनों का बहुत बड़ा भाग व्यय किया गया। इस तरह से अर्थव्यवस्था की यह अनदेखी करने का परिणाम आज सबके सामने है।
पाकिस्तान वैश्विक समुदाय का एक बड़ा और महत्वपूर्ण राष्ट्र है। जनसंख्या, क्षेत्रफल, सैन्य बल, प्राकृतिक संसाधन तथा भौगोलिक स्थिति की महत्ता के कारण पाकिस्तान की गिनती आसानी से विश्व के दस बड़े राष्ट्रों में की जा सकती है। इसलिए पाकिस्तान की त्रासदी सारे विश्व के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर विश्व के तमाम प्रबुद्ध वर्ग को चिंतन करने की आवश्यकता है। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में पुन: परिभाषित करना संभव है।पहली बात तो यह है कि यह कार्य खुद पाकिस्तान को ही करना होगा। यदि किसी बाहरी प्रबुद्ध राजनीतिक विश्लेषक, शोधकर्ता व अध्ययनकर्ता की उपइस कार्य में जरुरत है तो पाकिस्तान के सत्तारूढ़ वर्ग को सहायता की मांग खुद ही उनसे करनी होगी। पर क्या पाकिस्तान के सत्ताधारी वर्ग के अंदर इस बात की कोई चेतना है कि सही वैचारिक आधार ना होने के कारण आज राष्ट्र भटकाव की स्थिति में है।
आज पाकिस्तान का प्रबुद्ध वर्ग यह समझ रहा है कि विकास की दौड़ में पीछे रहने की वजह वैचारिक शून्यता और भटकाव है। मीडिया सेमिनार और व्याख्यान मालाओं में यह बात बेबाकी और जोरदार ढंग से कही जाती है। लेकिन यह वर्ग अभी बहुत छोटा है और पाकिस्तान के जनमानस पर इसका प्रभाव बहुत ही सीमित है।
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प्रो. प्रदीप कुमार माथुर आई. सी.एन. ग्रुप के एडवाइजर & चीफ कंसल्टिंग एडिटर है।स्वतंत्र लेखन में रत वरिष्ठ पत्रकार/संपादक प्रोफेसर प्रदीप माथुर भारतीय जनसंचार संसथान (आई. आई. एम. सी.) नई दिल्ली के पूर्व विभागाध्यक्ष व पाठ्यक्रम निदेशक है। वह वैचारिक मासिक पत्रिका के संपादक व् नैनीताल स्थित स्कूल ऑफ इंटरनेशनल मीडिया स्टडीज (सिम्स) के अध्यक्ष है।