गीत-गीता : 16

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

(श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद)

द्वितीय अध्याय (सांख्य योग)

(छंद 71-77)

 

श्रीकृष्ण : ( श्लोक 55-72)

 

जिस भाँति कवच के नीचे,

कच्छप सब अंग सिकोड़े।

मद, काम, विषय से वैसे,

स्थिर मति मन को मोड़े।।(71)

 

विषयों से दूरी रख भी,

आसक्ति नहीं जाती है।

पर परम सत्य अनुभव कर,

मति स्थिर रह पाती है।।(72)

 

आसक्ति न जब तक अर्जुन,

संपूर्ण नष्ट होती है।

विद्वान पुरुष का भी मन,

यह विषयों में खोती है।।(73)

 

इसलिये विषय वश में कर,

जो ध्यान मुझे करता है।

मति उसकी ही स्थिर है,

जो मुझे चित्त धरता है।।(74)

 

विषयों के चिंतन से नित,

आसक्ति प्रकट होती है।

अतृप्त कामनायें ही,

मति क्रोध कुटिल बोती है।।(75)

 

फिर क्रोध जनित मन मूरख,

स्मृति को है हर लेता।

फिर ज्ञान नष्ट होकर के,

सब तेजहीन कर देता।।(76)

 

जो राग द्वेष से वंचित,

जिसके वश में अंतर्मन।

वह साधक है आनंदित,

विषयों में कर के विचरण।।(77)

 

क्रमशः

 

विशेष :गीत-गीता, श्रीमद्भागवत गीता का काव्यमय भावानुवाद है तथा इसमें महान् ग्रंथ गीता के समस्त अट्ठारह अध्यायों के 700 श्लोकों का काव्यमय भावानुवाद अलग-अलग प्रकार के छंदों में  कुल 700 हिंदी के छंदों में किया गया है। संपूर्ण गीता के काव्यमय भावानुवाद को धारावाहिक के रूप में अपने पाठकों के लिये प्रकाशित करते हुये आई.सी.एन. को अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है.

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