एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
नई दिल्ली। सुंदरता़, बुद्धि तथा वीरता जैसे गुण अगर किसी महिला मे हो तो वह रज़िया सुल्तान या इंदिरा गांधी बन जाती है, यद्यपि वह ना तो रज़िया सुल्ताना की तरह वीर, साहसी तथा क्रांतिकारी महिला थी,ना ही वह इंदिरा गांधी की चतुर राजनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक थी,किंतु जितना सुंदर उनका चेहरा था उतने सुंदर उनके विचार भी थे अथवा उनके अंतर्मन के अंदर दया-करूणा तथा अमानवीय व्यवस्थाओ को बदलने के लिये परिवर्तन की सरिता बहती रहती थी।
मातृभूमि के लिये उनका समर्पण देखते ही बनता था क्योकि उनकी हर सांस मे “दिल्ली पाइंदाबाद” का नारा गूंजता था,इसलिये वह स्वयं दिल्ली-तहजी़ब (संस्कृति) की जीता-जागती प्रतिमा बन गई थी और वह जिधर जाती तो उनके साथ-साथ दिल्ली की संस्कृति भी भ्रमण करती थी,लेकिन वह संकट के समय मे भी घबराये बिना संघर्ष करती थी किंतु उनका कला प्रेम उनके हृदय को बेहद कोमल बना देता था और वह हर कमज़ोर तथा पीड़ित व्यक्ति के साथ खड़ी नज़र आती है।
दिल्ली शान-पहचान माने जाने वाली समाजसेविका (एक्टिविस्ट) लेखिका, पत्रकार (स्तंभकार तथा पूर्व संपादक), पाक-शास्त्री, फिल्म निर्माता तथा सूफी-साध्वी “सद्दो बाजी” उर्फ सादिया देहलवी का 5 अगस्त, 2020 को मेटास्टेटिक स्तन कैंसर (metastatic breast cancer) के साथ दो साल की लंबी जंग लड़ने के बाद इंतेकाल (निधन) हो गया,उनका मेदांता अस्पताल मे इलाज चल रहा था इसलिये जब बुधवार को अचानक उनकी तबियत बिगड़ी तो उन्हे वसंत कुंज स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ लिवर एंड बाइनरी अस्पताल मे भर्ती करवाया गया किंतु जब वहां डॉक्टरो ने बताया कि कैंसर एडवांस स्टेज मे है तो अब उनको बचाया नही जा सकता है तब शाम को परिजन उन्हे घर लेकर आये थे फिर रात मे उनका निधन हो गया और गुरुवार को उन्हे सदर बाज़ार के शमसी कब्रिस्तान मे सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया।
प्रख्यात कवि (शायर) तथा उर्दू के स्तंभ माने जाने वाले अंतरराष्ट्रीय विद्वान प्रोफ़ेसर मुज़फ्फर हनफी साहब के वरिष्ठ पुत्र और एक दर्जन से अधिक ऊर्दू किताबो के लेखक इंजीनियर फिरोज़ मुज़फ्फर ने सादिया देहलवी को ख़िराजे तहसीन (श्रद्धांजलि) पेश करते हुये कहा; “उनका अख़लाक़ और शराफत बेमिसाल थी क्योकि बहुत बडे़ ख़ानदान से ताल्लुक रखने के बावजूद भी वह सादगी से जीवन व्यतीत करती तथा बनावट से दूर रहती थी, आजकल थोडे़ से रूपये-पैसे पाकर इंसान उछलने लगते है किंतु कई पीढ़ियो से धनवान होकर भी वह निर्धन लोगो से घनिष्ठ सबंध बनाये रखती थी और अपने ताल्लुकात वाले ग़रीबो के सुख-दुख मे भी लगातार शामिल होती थी।
उन्होने बताया मेरी उनसे अंतिम बार चर्चा सी.ए.ए. तथा एन.आर.सी. के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान हुई थी और आखिरी बार मुलाकात लाजपत नगर मे शॉपिंग के दौरान हुई थी जहां मै अपनी पत्नी के साथ गया था और लंबी बीमारी के बावजूद भी वह साइकिल पर सवार होकर शॉपिंग करने के लिये आई थी, सादिया देहलवी के जुझारू व्यक्तित्व के बारे मे बताते हुये इंजीनियर फिरोज़ मुज़फ्फर ने कहा; कि “वह ह्यूमन-राइट्स (मानवाधिकारो) की हिफाज़त (रक्षा) के लिये इतनी ज़्यादा क़ुरबान (समर्पित) थी कि छोटे से छोटे जलसे-धरने-प्रदर्शन मे शामिल होती थी और इसलिये समाज सेवा के लिये सदैव तैयार रहने वाला उनका संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व उन्हे एक वीरांगना तथा आदर्श महिला बनाता था” अर्थात सरल शब्दो मे कहे तो वह 21वीं शताब्दी की रज़िया सुल्तान थी।
फिरोज़ मुज़फ्फर ने संस्कृति और साहित्य मे उनके योगदान की चर्चा करते हुये कहा कि “वह दरगाहो, देहली की तहजी़ब, खानदानी रवादारी तथा महफिलो (दावतो) का अहतमाम वकतन-फवकतन करती रहती थी इसलिये वह आख़िरी वक्त तक दिल्ली की तहज़ीब ख़ासकर उर्दू ज़बान को बचाने के लिये कुर्बानी देती रही, अल्लाह उनकी मगफिरत फरमाए और उनके दरजात बुलंद करे! आमीन या रब्बुल-आलमीन”।
सादिया देहलवी का परिवार 17 वीं शताब्दी मे दिल्ली आया था और उनके दादा हाफिज़ युसुफ देहलवी ने 1938 मे विश्व प्रसिद्ध उर्दू पत्रिका “शमा” की शुरुआत की थी इसलिये पत्रिका के नाम पर ही उनके आवास (11, सरदार पटेल मार्ग, चाणक्यपुरी, दिल्ली) को लोग शमा कोठी कहकर बुलाने लगे फिर सादिया के पिता युनूस खान देहलवी ने 13 साल की उम्र मे ही बच्चो के लिये उर्दू पत्रिका खिलौना शुरू करी,किंतु यूनुस देहलवी ने बड़े होकर अपने भाइयो इदरीस देहलवी तथा इलियास देहलवी के साथ मिलकर पत्रकारिता के क्षेत्र मे क्रांति ला दी और समाज को बहुत पत्रिकाओ (सुषमा, खिलौना, बानो, शबिस्तान, मुजरिम, दोषी आदि) से परिचित करवाया जिसके कारण (1943 से लेकर 1994 तक) देहलवी परिवार उर्दू पत्रकारिता तथा साहित्य जगत का नेतृत्व करता रहा,इसलिये इन पत्रिकाओ के योगदान की चर्चा करते हुये भारत-रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के पौत्र तथा मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय हैदराबाद (तेलंगाना) के चांसलर फिरोज़ अहमद बख़्त कहते है कि “मैने मदरसे या किसी संस्थान से उर्दू की कोई विधिवत शिक्षा नही ली है बल्कि घर पर इन पत्रिकाओ के माध्यम से ही उर्दू सीखी है”,यद्यपि उर्दू मेरी (लेखक) भी मातृभाषा है किंतु मैने भी कभी विधिवत रूप से उर्दू की कोई शिक्षा नही ली है बल्कि माता तथा मौसियो के द्वारा पढ़े जाने वाले समाचार पत्रो-पत्रिकाओ के माध्यम से ही उर्दू सीखी है।
सादिया देहलवी का जन्म 16 जून 1957 को दिल्ली मे हुआ था और इनका बचपन चाणक्यपुरी मे सरदार पटेल मार्ग पर स्थित शमा कोठी मे बीता था फिर वह शिमला के आयरिश कान्वेंट बोर्डिंग स्कूल मे शिक्षा प्राप्त करके पुन: दिल्ली वापस आ गई थी,किंतु 18 वर्ष की आयु मे ही वह बाल पत्रिका बानो के संपादन का कार्यभार संभाल कर लेखन तथा पत्रकारिता मे निपुणता प्राप्त करने लगी थी परन्तु फिर उनकी जिंदगी मे ठहराव आया क्योकि छोटी उम्र मे उनकी शादी कोलकाता के मशहूर समाजसेवी तथा मोहम्मद जान हायर सेकेंडरी स्कूल के संस्थापक खान बहादुर मोहम्मद जान के बेटे मोहम्मद उस्मान से हुई लेकिन बहुत जल्दी वह दोनो अलग हो गये फिर 1990 मे उन्होने पाकिस्तान के नागरिक रज़ा परवेज़ से शादी करी और 1992 मे उनके बेटे अरमान देहलवी का कराची मे जन्म हुआ,चूँकि कुछ समय कराची मे रहकर वह अपने बेटे अरमान को साथ लेकर वापस भारत आ गई थी इसलिये 12 साल बाद उनके पति ने ईमेल के माध्यम से उनको तलाक दे दिया और यह भारत मे इलेक्ट्रॉनिक साधन के माध्यम से प्रथम तलाक का मामला था जो एक बहुचर्चित मुद्दा बना था।फिर 1980 तथा 1990 के दशक मे फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली आधुनिक विचारो की महिला ने अपने आपको सूफीवाद के आध्यात्मिक रंगो मे रंग लिया और इस्लामिक सूफीवाद की चिश्तिया परंपरा का अनुसरण करते हुये साधना करने लगी जिसके कारण उन्होने कई बेहतरीन किताबे लिखकर विश्व को भारतीय उपमहाद्वीप के सूफी-संतो विशेषकर दिल्ली के सूफी-संतो की विशिष्ट परंपराओ से परिचित करवाया लेकिन मै दिल्ली की महिला सूफी-संतो के ऊपर लिखे गये उनके लेख को आज भी बार-बार पड़ता हूँ,किंतु सूफीवाद पर उनकी पहली पुस्तक “सूफीज्म: द हार्ट ऑफ इस्लाम” (इस्लाम का ह्रदय : सूफीवाद) 2009 मे हार्पर कॉलिंस इंडिया द्वारा प्रकाशित हुई थी जिसने उन्हे सुर्खियो मे ला दिया था और फिर उनकी सूफीवाद पर शोध-अनुसंधान तथा लेखन की यात्रा अंतिम समय तक चलती रही परन्तु उनकी अन्य पुस्तक “द सूफी कोर्टयार्ड : दरग़ॉज़ अॉफ दिल्ली” (The Sufi Courtyard : Dargahs of Delhi) जो 2012 मे दिल्ली की दरगाहो पर लिखी गई थी उस किताब को अपार लोकप्रियता मिली थी,लेकिन सूफीवाद मे उनकी श्रद्धा दूसरे लेखको की तुलना मे कई गुना अधिक थी और वह अक्सर कहती थी कि उनके बेटे का जन्म छह (6) रजब को हुआ है जो हज़रत ख़्वाजा साहब के उर्स का दिन होता है अर्थात उनका बेटा ख़्वाजा साहब के आशीर्वाद का परिणाम है इसलिये उसके अंदर एक महान संगीतज्ञ बनने के गुण विद्यमान है।
चूँकि मै अपने मित्रो मे अकेला सूफीवाद का समर्थक था इसलिये उनसे लगभग 2 दशक पहले मेरी मुलाकात पूर्व राज्यसभा सांसद तथा अभिनेता दिलीप कुमार जी के पॉलीटिकल पी.ए. असरार अहमद ने यह कहकर करवाई थी कि “सद्दो बाजी से तुम्हारे विचार अवश्य मिलेगे”,लेकिन हम दोनो राजनीतिक रूप से परस्पर विरोधी विचारो के मानने वाले होने के कारण (अध्यात्मिक दर्शन पर एकमत होने के बावजूद भी) विपरीत दिशाओ मे यात्रा करते रहे,क्योकि पेन-इस्लॉमिक विचारधारा का समर्थक होने के कारण मेरा सरदार पटेल से वैचारिक मतभेद रहा है लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जन्मदाता सूफीवाद का पैरोकार (अनुगामी) होने के कारण मेरा झुकाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ रहा है,परन्तु सादिया देहलवी का झुकाव धर्मनिरपेक्ष तथा वामपंथी राजनीतिक पार्टियो की तरफ था और उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सिर्फ दिल्ली की सीमाओ तक ही सीमित था जबकि मेरा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एक ही अंग मानता है क्योकि पैगंबर हज़रत आदम स्वर्ग से श्रीलंका मे ही उतरे थे इसलिये मै इस्लाम की जन्मस्थली श्रीलंका को मानते हुये पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को पुण्य-भूमि मानता हूं तथा इसे “पवित्र आत्माओ का निवास स्थल” (पाकिस्तान) समझता हूँ।
मीना कुमारी, दिलीप कुमार, राज कपूर, नर्गिस, सायरा बानो, देव आनंद, धर्मेंद्र, वाहिदा रहमान, कमाल अमरोही, महबूब खान, के. आसिफ जैसी बॉलीवुड से जुड़ी शख्सियते और इस्मत चुगताई, कैफी आज़मी, सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, कृष्ण चंदेर आदि लेखक अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अक्सर शमा कोठी मे आया करते थे,इसलिये शमा कोठी दिल्ली मे सितारो (Celebrities) के आकर्षण का केंद्र बनी रहती थी और वहां रोज़ाना दिल्ली के परंपरागत लज़ीज़ खानो की दावते चलती रहती थी,लेकिन मुग़लई खानो (Cuisine) के अतिरिक्त शमा कोठी अपनी भव्यता के कारण भी प्रसिद्ध थी और इसे दिल्ली का ताजमहल कहा जाता था हालांकि खुद सादिया देहलवी को विश्वास नही था किंतु शमा कोठी के आर्किटेक्ट सतीश गुजराल ने जब उन्हे यह बताया तब उन्हे इस पर विश्वास हुआ।
नात-ख़ॉनी, मुशायरा, कव्वाली और सूफी महफिले हमेशा शमा कोठी मे होती रहती थी और बाद मे परोसे जाने वाले लज़ीज़ मुगलई व्यंजन मे कबाबो का ज़ायका बेमिसाल होता था,सादिया खुद भी कमाल की मेहमान नवाज़ थी और जब वह 40 कमरो की शमा कोठी छोड़कर 2002 मे चार कमरो के अपार्टमेंट मे निज़ामुद्दीन (ईस्ट) आकर रहने लगी तब वह अपने हाथ से मेहमानो को वेज-नॉनवेज डिशेज बनाकर खिलाने लगी,अपनी इस पाक-कला (Gastronomy Cooking) मे महारत के चलते उन्होने दिल्ली वालो का दिल जीतने के इरादे से 1979 मे अपनी मां ज़ीनत कौसर के साथ दिल्ली के चाणक्यपुरी मे “अल कौसर” रेस्तरां खोला था और प्रिय पारिवारिक कबाबो से दिल्ली वालो को परिचित करवाया था,फिर 2017 मे उन्होने दिल्ली की पाक-शैली के इतिहास अथवा दिल्ली शहर के ज़ायको पर “जैस्मीन एंड जिन्स : मेमोरिज एंड रेस्पी ऑफ माय देहली” नाम की एक किताब लिखी थी जिसमे शामी कबाब, हरिमिर्च-कीमा, बेसन की रोटी, आम की चटनी वगैरह को तैयार करने की विधि विस्तार से समझाई गई है।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षो मे उनका रुझान फिल्मो तथा टीवी धारावाहिको की पटकथा लिखने की तरफ हुआ इसलिये उन्होने 1995 मे टी.वी. धारावाहिक “अम्मा एंड फैमिली” (Amma & Family) की पटकथा लिखी और स्वयं निर्माता बनी जबकि उनके भाई वसीम देहलवी इसके निर्देशक बने और भाभी हिमानी ने अभिनय किया,उसके बाद 1998 मे वह टीवी सीरीज “नॉट ए नाइस मैन टू नो” (Not a nice men to know) मे सहयोगी निर्माता (एसोसिएट प्रोड्यूसर) बनी फिर 2001 मे उन्होने धारावाहिक “जिंदगी कितनी खूबसूरत है” मे एक अभिनेत्री के रूप मे अभिनय किया,उनके द्वारा संपादकीय चित्रात्मक पुस्तक (Pictorial Book) “दिल्ली : 22 सूफी-संतो की
डेवढ़ी/द्वार” (Delhi: The Threshold of Twenty-two Sufis) एक बेहतरीन कृति है।
अपनी खानदानी रिवायत को निभाते हुये वह एक मुजाहिदीन की तरह उर्दू को बचाने के लिये समाजसेवी संस्था “बज़्म-ए-उर्दू” (Bazm-e-Urdu) को चला रही थी,चूँकि उन्हे दिल्ली की संस्कृति से बहुत प्रेम था इसलिये उन्होने एक थिएटर ग्रुप की स्थापना का प्रयास भी किया ताकि फरहतुल्लाह बेग (Farhatullah Baig) के नाटक “दिल्ली की आख़िरी शमा” (The Last Candle of Delhi) का लगातार मंचन किया जा सके,अंत मे विश्व प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह से उनके संबंधो की चर्चा किये बगैर लेख अधूरा रहेगा क्योकि खुशवंत सिंह उन्हे अपनी एक प्रेरणा स्रोत बेटी मानते थे जो हमेशा उनका हौसला-अफज़ाई करती थी और वह एक पिता की तरह उनका कन्यादान करना चाहते थे इसलिये सादिया की दूसरी शादी उन्ही के घर (सुजान सिंह पार्क) मे हुई थी और कामना प्रसाद के साथ निकलकर वह तीनो लोग “रेख़ता” के माध्यम से ऊर्दू की शमा को रौशन करने का प्रयास करते थे।
यद्यपि मेरा वर्तमान सूफीवादी भारतीय लेखको से गंभीर मतभेद रहा है क्योकि वह बुनियादी उसूलो अथवा मूलभूत सिद्धांतो (Basic Principles) को समझाने के बजाय सजावटी तथ्यो की चर्चा करते है जिससे जनसाधारण मे यह संदेश जाता है कि सूफीवाद का मतलब सभी समुदायो का साथ मे मिलकर प्रेमपूर्वक खाना-पीना और नाचना-गाना है अर्थात मौज-मस्ती करना ही इबादत है,जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है क्योकि सूफीवादी इस्लाम के अनुसार मनुष्य के दो शरीर होते है जिसमे से पहला वह जिस्म (Body) होता है जिसमे हमारे अंग विद्यमान होते है फिर वह मृत्यु के साथ नष्ट हो जाता है किंतु दूसरा आध्यात्मिक शरीर होता है जिसके अंगो को द्वार (लतीफा) कहते है लेकिन यह अमर होता है अथवा आत्मा सदैव इसमे वास करती है,इसलिये सूफी धर्मगुरु “भौतिकवादी जीवन त्यागकर ज़िक्र (नाम जपना) तथा मुराग़बा (ध्यान लगाना) करने की तालीम देते है” अथवा साधना-आराधना करने की शिक्षा देता है,ताकि साधक सृष्टि के निर्माता को प्रसन्न करके उसकी अनंत शक्ति (Energy) को प्रकाश पुंजो तथा तरंगो के माध्यम से अपने (मनुष्य) शरीर मे जन्म से मौजूद सात अध्यात्मिक द्वारो (लतीफा) के मार्ग से प्रवेश कराकर अध्यात्मिक शरीर के अंदर उस ऊर्जा को आत्मसात (Assimilation) किया जा सके,फिर जिससे आत्मा ऊर्जावान होकर ब्रह्मांड मे स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने लगे अर्थात अपनी गति बढ़ा सके जिसे हम टाइम-ट्रैवलिंग कहते है।
सुनने पढ़ने मे यह बात हास्यपद लगती है किंतु सूफीवाद का ब्रह्माण्ड विज्ञान (Sufi-Cosmology) इसका ही प्रशिक्षण देता है,क्योकि जिस तरह जादूगर एक डिब्बे के अंदर से दूसरा डिब्बा और दूसरे के अंदर से तीसरा डिब्बा निकालकर बहुत सारे (एक के अंदर एक) डिब्बे दिखाता है,ठीक उसी तरह से सृष्टि के निर्माता आदिशक्ति/ख़ुदा (अल्लाह) ने छह (6) ब्रह्मांड बनाये है अर्थात हमारे ब्रह्मांड के ऊपर पाँच (5) ब्रह्मांड है जो एक के अंदर एक डिब्बे वाली प्रक्रिया के तहत कार्य कर रहे है,जिनके नाम हाहूत (Haahoot), याहूत (Yaahoot), लाहूत (Lahoot), जबरूत (Jabroot), मलाकूत (Malakoot), नासूत (Nasoot) है जबकि सातवां आलम (ब्रह्मांड) हमारे मस्तिष्क मे मौजूद पीनियल-ग्रंथि के अंदर है।
सनातन-धर्म मे कुंडली जागरण के लिये शरीर के अंदर सात द्वार (आठवां शरीर से बाहर) खोजने की परंपरा है जबकि इस्लामिक सूफीवाद मे इस द्वार को “लतीफा’ कहा जाता है और सनातन-धर्म के सात (7) द्वारो को मात्र दो (2) द्वारो (दरवाज़ो) मे ही सीमित कर दिया जाता है, मूलाधार को “लतीफा नफ्स” कहा जाता है और तीसरी आंख वाले स्थान को “लतीफा अना” कहा जाता है बाकी पाँच (5) दरवाजे़ / लतीफे (क़ल्ब, सिर्री, इख़फा, खफी, रूह) सीने मे होते है,हर लतीफे का अलग-अलग रंग होता है क्योकि सातवां जहान (ब्रह्मांड) मस्तिष्क मे ही माना जाता है और चूँकि हमारे आसमान का रंग नीला है इसलिये “लतीफा अना” का रंग भी नीला माना जाता है लेकिन “ज़िक्र” (नाम) तथा “मुराग़बा” (ध्यान) इस दरवाजे़ की चाबी होती है इसलिये नीले रंग के प्रकाश मे बैठकर और नीले रंग के प्रकाश-पुंज (कल्पना) पर ध्यान लगाकर यह दरवाज़ा खोलने का प्रयास किया जाता है।
मस्तिष्क के बीचो-बीच का स्थान जो तीसरी आंख के समानांतर है वह इस ध्यान का केंद्र होता है,जब नीले रंग से बदलकर कोई दूसरे रंग का प्रकाश दिखाई देने लगता है तो वह दरवाजा खुला हुआ माना जाता है,फिर इसके तीसरे तथा आखिरी पर्दे के पीछे जो प्रकाश होता है उसे ही “नूर का दीदार” (ब्रह्मदर्शन) अथवा सातवां आलम (जहान) कहा जाता है।पाठक लतीफा खोजने की कोशिश करे या ना करे?
सूफी कॉस्मोलॉजी पर विश्वास करे या ना करे?
किंतु सूफीवाद के बुनियादी उसूलो को समझकर सदिया देहलवी को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते है,क्योकि वह एक श्रद्धालु सूफी साध्वी थी और उन्होने अपना जीवन सूफीवाद के प्रचार-प्रसार मे लगा दिया,इसलिये मै भी उनका एहसानमंद हूं कि उन्होने मेरे जैसे सूफीवादी लेखको के लिये पृष्ठभूमि तैयार करके हमारा काम आसान कर दिया।
अल्लाह उनकी मग़फिरत फरमाए और उन्हे जन्नतुल-फिरदौस मे आला मुक़ाम अता फरमाएं।
आमीन या रब्बुल आलामीन!