तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
‘राहत इंदौरी नहीं रहे’।
रोज़मर्रा की आम ख़बरों की तरह शायद यह भी एक आम ख़बर की तरह ज़ह्न से सरसराती हुई निकल जाती अगर इस ख़बर के कुछ ख़ास मायने नहीं होते। एक दिन इस फ़ानी दुनिया से हर शख़्स को जाना है लेकिन ‘राहत इंदौरी का अनायास चले जाना’ निश्चित रूप से एक ख़बर से ज़्यादा है। चार लफ़्जों के इस जुमले के पीछे की सांय-सांय यह कह रही है कि ‘ग़ज़लों का वह दौर ख़त्म हुआ जब वे उर्दू शायरी के आंगन में फूलों से बंदूकों में भी तब्दील हुई।’ वह काल-खण्ड अपनी आख़िरी हिचकी के साथ चिरनिद्रा में सो गया जब ग़ज़लों की ख़ु्श्बू बारूद भी बनी थी और जिसने जनमानस को थपकियाँ देकर सुलाया नहीं था बल्कि सोते हुये जनमानस को झंझोड़ कर जगाने का प्रयास किया था। शायद उर्दू इतनी नुकीली, इतनी पैनी कभी नहीं हुई थी।
डॉ राहत इंदौरी उर्फ़ राहत कुरैशी वर्ष 1950 में इंदौर में जन्मे और उर्दू साहित्य की एक-एक सीढ़ी चढ़ते हुये अपनी शायरी की बदौलत जिस ऊँचाई पर पहुँचे जहाँ पहुँच पाना हर साहित्यकार का सपना होता है। वर्तमान में यदि हिंदुस्तान के सबसे चर्चित व प्रासंगिक पाँच शायरों की फ़ेहरिश्त बनाई जाये तो उर्दू शायरी से मोहब्बत करने वाले शायद ही किसी शख़्स की कोई ऐसी फ़ेहरिश्त हो जिसमें उनका नाम न शामिल हो। और यदि ऐसी कोई फ़ेहरिश्त मिलती भी है तो फिर यह पड़ताल भी ज़रूरी होगी कि राहत इंदौरी से उस व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत मतभेद तो नहीं हैं।
राहत इंदौरी की शायरी में ग़ज़लों का वह चेहरा भी है जिसके लिये ग़ज़ल को ‘ग़ज़ल’ कहा जाता है अर्थात उर्दू की एक खा़स मिठास भरे महकते हुये अलफ़ाज़ों के बहुत ही ज़हीन सलीके का खूबसूरत सफ़र जहाँ ग़ज़ल अपनी शीतलता भरी हरारत के साथ दिल की गहराइयों में आहिस्ता-आहिस्ता उतरती है और कानों में थरथराती ज़ुबान से कहती है कि मैं हूँ दुनिया की सबसे खूबसूरत शय, और साथ-साथ उसका वह रुख़ भी जहाँ ग़ज़ल पिघले हुये सीसे सी दिमाग़ के दरवाज़े पर दस्तक देती हुई कहती है कि मैं तुम्हारे तरकस के वे तीर हूँ जो किसी को भी चीर देने के लिये पर्याप्त पैने भी हैं और ज़हर बुझे भी। फ़ूलों को शोले बनाने का अगर यह फ़न किसी में था तो पहली बार इसे हिंदी ग़ज़लों को स्थापित करने वाले शायर दुष्यन्त कुमार में मौजूद पाया गया जो ‘ये सारा जिस्म थक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा’ जैसी धारदार ग़ज़लें कह कर दुनिया को बता गये कि ग़ज़लें सिर्फ़ खुशबू ही नहीं बिखेरती हैं, ये धमाके भी कर सकती है और हंगामें भी खड़े कर सकती है और उसके बाद यह जादू अगर कहीं और पाया गया तो वह सिर्फ़ और सिर्फ़ राहत इंदौरी में ही दिखा।
राहत इंदौरी अपनी दोनों ही भूमिकाओं में फ्रेम में पूरी तरह सलीके से जड़े दिखाई देते हैं – कहीं भी न कोई ढिलाई और न ही कोई अधूरापन। वे एक ऐसी तस्वीर थे जो दोनों ही फ्रेम्स और फार्मेट्स में बिल्कुल फिट बैठने के लिये बनी थी।
मोहब्बत के मुखर पैरोकार राहत इंदौरी बेझिझक व शर्तहीन मोहब्बत की वकालत करते थे। उनका यह शेर देखिये –
‘फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो।
इश्क़ खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार कहै।।’
और यह शेर भी उनकी इसी अदा की नुमांइदगी करता है –
‘किसने दस्तक दी, दिल पे, ये कौन है।
आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है।।’
और उनका यह शेर भी खुद ब खुद ऐलान करता है कि इसके कारीगर का मोहब्बत का अपना ही बड़ा कारखाना है –
‘रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है।
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है।।’
और यह शेर भी –
‘मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना,
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था।’
राहत इंदौरी ने उम्र के उस हिस्से पर भी खूब कहा जहाँ मोहब्बत जवान होती है और सपने खुले आसमान में अपने आप को साबित करने के लिये अपने पंखों को तोलते हैं। ज़िंदगी एक ऐसा सफ़र हैं जहाँ हर मोड़ के अपने ही मायने हैं, अपने ही क़ायदे हैं। कच्ची उम्र की तपन और ज़माने के बर्फ़ीले उसूल जब टकराते हैं तो ऐसे ही अशआर नुमायाँ होते हैं –
“मोड़ होता है जवानी का सँभलने के लिए,
और सब लोग यहीं आ के फिसलते क्यूं हैं।
नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से,
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं।’
और यह शेर भी –
“इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है।
नींदें कमरों में जागी हैं ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं।।”
राहत इंदौरी की शायरी आधुनिक मुद्दों से भी मजबूती से बात करती है। जदीद शायरी का जो तेवर राहत जी की शायरी में दिखाई देता है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। वे एक आम अादमी से एक आम आदमी की ज़ुबान में गुफ़्तगू करते हैं। एक आम अादमी की तड़प और बेबसी उनकी शायरी में बखूबी दिखाई देती है। जैसे उनका यह शेर –
“ऐसी सर्दी है कि सूरज भी दुहाई मांगे।
जो हो परदेस में वो किससे रज़ाई मांगे।।”
और एक शेर यह –
“आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो।
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो।।”
और इस शेर का तो क्या कहना –
“उस आदमी को बस इक धुन सवार रहती है,
बहुत हसीन है दुनिया इसे ख़राब करूं।”
राहत इंदौरी की शायरी का एक विभाग चुनौतियों का भी है। अक्सर उनकी शायरी ताल ठोंक कर चुनौतियां भी देती दिखाई पड़ती हैं। पंजे लड़ाने की शौक़ीन उनकी शायरी के ये तेवर तो देखते ही बनते हैं –
“तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो।
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो।।”
और एक ये शेर –
“जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे।
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे।”
व्यवस्था के खिलाफ़ आग उगलती उनकी शायरी की अपनी पहचान है। वह नश्तर की तरह प्रहार करती है और हमें देर तक सोचने के लिये मजबूर करती है। हर व्यवस्था में ख़ामिया भी हैं और ख़ासियत भी। साहित्यकार संपूर्ण समाज का प्रतिनिधि है और उसका यह हक़ भी है और ज़िम्मेदारी भी कि वह अपने साहित्य के माध्यम से ऐसी अव्यवस्थाओं के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाये और परिवर्तन के लिये संघर्ष करे। राहत इंदौरी की शायरी में यह हुनर है और उन्होंने इसे बखूबी इस्तेमाल भी किया है। उनकी एक ग़ज़ल के कुछ ऐसे ही अशआर देखें –
“झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो।
सरकारी एलान हुआ है सच बोलो।।
घर के अंदर तो झूठों की एक मंडी है,
दरवाज़े पर लिखा हुआ है सच बोलो।
गुलदस्ते पर यकजहती लिख रक्खा है,
गुलदस्ते के अंदर क्या है सच बोलो।
गंगा मइया डूबने वाले अपने थे,
नाव में किसने छेद किया है सच बोलो।”
और कुछ और अशआर –
“ये सर्द रातें भी बनकर धुआँ उड़ जाएं।
वह इक लिहाफ़ मैं ओढूँ तो सर्दियाँ उड़ जाएँ।
खुदा का शुक्र है मेरा मकां सलानत है,
हैं इतनी तेज़ हवाएं कि बस्तियाँ उड़ जाएं।
बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर,
वो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएं।”
और एक यह शेर –
“अपने हाकिम की फकीरी पे तरस आता है,
जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे।”
और यह शेर भी –
“कॉलेज के सब बच्चे चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिए,
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है।”
यह शेर भी देखें –
“मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को,
समझ रही थी की ऐसे ही छोड़ दूंगा उसे।”
और यह भी –
“नये किरदार आते जा रहे है,
मगर नाटक पुराना चल रहा है।”
राहत इंदौरी के वे अशआर जो उन्हें राहत इंदौरी बनाते हैं, वे उनके नुकीले तंज़ हैं। अपनी शायरी के एक बड़े कैनवास में उनके अंगारों जैसे ये अशआर दूर तक फ़िज़ाँ को सुलगाने की कुव्वत रखते हैं लेकिन ढेर सारे सवाल भी उठाते हैं और उन्हें एक हद तक विवादित भी बनाते हैं। उदाहरणार्थ –
“एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे,
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के।”
या ये अशआर –
“जो आज साहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे,
किरायेदार हैं, ज़ाती मकान थोड़ी है।
सभी का खून है शामिल यहाँ की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।”
उनके साहित्य में इन जैसे अशआरों को प्रायः आम हिंदुस्तानी ने एक विशिष्ट नज़रिये से देखा और इस नज़र ने राहत इंदौरी के अंदर छिपे शायरी के विराट वट को अपनी संपूर्णता तक फलने-फूलने का अवसर नहीं दिया। मेरी दृष्टि में उनके अंदर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर भारतीय का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता थी लेकिन उन्होंने अपनी इस शेली के माध्यम से अपने आप को किसी हद तक समेट लिया।
डॉ राहत इंदौरी न केवल अपनी शायरी को स्वयं जीते थे बल्कि शायरी मात्र उनकी ज़ुबान से ही नहीं, पूरे जिस्म से बात करती थी। शायरी संवाद भी हो सकती है, यह बात पहली बार उन्होंने ही न केवल समझी बल्कि बखूबी साबित भी की। वे शायरी की दुनिया के पहले अभिनेता थे और एक शेर कैसे अपने सबसे असरदार ढंग से दुनिया के सामने रखा जा सकता है, यह उनसे बेहतर कोई नहीं जानता था।
इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हुये हैं जो ज़िंदगी भर नंबर एक रहे और जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके पीछे दूर-दूर तक कोई भी नंबर दो नहीं पाया गया। डॉ राहत इंदौरी भी ताउम्र एक ऐसे सिंहासन पर बैठे जिस पर उनके बाद बैठने की क़ाबिलियत दूर-दूर तक किसी में दिखाई नहीं पड़ती और यह सिंहासन शायद अब हमेशा खाली रहेगा।
अभी उनमें बहुत शायरी बाकी थी, अभी उर्दू साहित्य को उनसे बहुत कुछ हासिल होना था कि अनायास ही मृत्यु ने उन्हें हम सबसे छीन लिया। हम सब आश्चर्यचकित हैं और सदमे में हैं लेकिन फ़क़ीरी अंदाज़ से सराबोर कलम के इस सिपाही को जन्नत में भी अपनी इस आनन फ़ानन की मौत पर शायद कोई आश्चर्य नहीं हो रहा होगा क्योंकि वे तो ज़िंदा रहते ही कह गये थे –
“ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था।
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था।।”
आदरणीय डॉ राहत इंदौरी जी, आप एक बेमिसाल शायर थे। कुछ लोगों के आपसे वैचारिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन दुनिया में शायद ही कोई उर्दू शायरी से मोहब्बत करने वाला ऐसा शख़्स होगा जिस पर आपके बेमिसाल हुनर का जादू न तारी हो। मैं तो आपके तमाम अशआरों के साथ आपका यह शेर भी सदैव याद रखना चाहूँगा जो मेरे दिल के बहुत करीब है –
“ऐ ज़मीं इक रोज़ तेरी ख़ाक में खो जायेंगे, सो जायेंगे,
मर के भी रिश्ता नहीं टूटेगा हिंदुस्तान से, ईमान से।”