एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
नई दिल्ली। मेरा परिवार ब्रिटिश दौर की ऐसी मुसलमान रियासत से ताल्लुक रखता है जहां की 90% आबादी मुस्लिम हुआ करती थी और उर्दू शायरी से मोहब्बत का यह हाल था कि ठेले-रिक्शे वाले भी आला-दरजे (उच्च-कोटि) के शेर लिखने-पढ़ने की सलाहियत रखते थे लेकिन मेरे पिताजी शायरी तथा शायरो को सख्त नापसंद करते थे क्योकि उनका मानना था कि मुसलमानो के पिछड़ेपन के लिये जि़म्मेदार कला से जुड़े विषय है क्योकि जब मुसलमान विज्ञान से जुड़े शीर्षको पर शोध-अनुसंधान करते थे तब विज्ञान का मध्यकालीन स्वर्णिम इतिहास मुसलमानो ने ही लिखा था इसलिये मुसलमानो को दोबारा से विज्ञान पढ़कर अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करना चाहिये हालांकि अब ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उनकी इच्छा को अधिकतर मुस्लिम देश पूरा करने का प्रयास कर रहे है और देर से ही सही लेकिन पाकिस्तान-तुर्की-ईरान जैसे देश हथियार बनाने के क्षेत्र मे तेज़ी से आगे बढ़कर अमेरिकी गुंडागर्दी तथा इज़रायली आतंकवाद से मुकाबला करने का प्रयास कर रहे है।
मेरे पिताजी को विज्ञान का इतना जुनून था कि वह मौलवी की पढ़ाई पढ़ने के बाद सिविल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा करके नक्शा-नवीसी (ड्राफ्ट्समैन) का काम करने लगे जबकि वह अरबी-फारसी साहित्य तथा इल्मे-जफर (अंक ज्योतिषी) जैसे विषयो पर बहुत अच्छी पकड़ रखते थे फिर जब तक उनका अपने परिवार के ऊपर दब-दबा रहा तब तक वह अपने भतीजो-भांजो को साइंस (विज्ञान) की पढ़ाई पढ़ने के लिये मजबूर करते रहे और परिवार की लड़कियो को भी विज्ञान पढ़ने के लिये प्रेरित करते थे,लेकिन मेरे बचपन की एक घटना है कि मेरे एक रिश्तेदार अरब से वी.सी.आर. तथा मुशायरे की कैसेट लेकर आये थे और वह अपने घर पर मेरे पिताजी को वीडियो कैसेट दिखा रहे थे तभी मै उस कमरे से कुछ सामान लेने गया किंतु उत्सुकता वश ठहर कर टीवी पर उस मुशायरा को देखने लगा तो पिताजी ने मुझे शयन-कक्ष से भगा दिया परन्तु एक दशक के बाद जब मैने मुंबई मे टी.वी. पर एक मुशायरा देखा तो मैने उस शायर को पहचान लिया जिसको छुप-छुपकर मेरे पिताजी देख-सुन रहे थे और पाठको यह जानकर हैरानी होगी कि वह राहत इंदौरी जी थे तथा उनकी लोकप्रियता को समझाने के लिये मुझे अपनी व्यक्तिगत कहानी लिखना पड़ी।
मेरी माताजी एक धार्मिक महिला थी इसलिये उन्होने बचपन मे मुझे नात-हम्द (भजन) के साथ कुछ दूसरे धार्मिक शेर भी याद करवा दिये थे जिनमे मोमिन खान मोमिन का शेर [तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नही होता], मौलाना मोहम्मद अली जौहर साहब का शेर [क़त्ले हुसैन असल मे मरगे यज़ीद है, इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद] और नासिर जहां का गाया हुआ मरसिया अर्थात शोक गीत [घबराएगी ज़ेनब, घर जाकर किसे पायेगी ज़ेनब] शामिल है और जब जवान हुआ तो वीर-रस से जुड़े कुछ शेर याद कर लिये जिसमे मुख्यता अल्लामा इकबाल के शेर हुआ करते थे फिर मंजर भोपाली की ग़ज़ल [ताकते है तुम्हारी और खुदा है हमारा] गुनगुनाने लगा था लेकिन परिपक्व होने पर माँ [मुनव्वर राणा की ग़ज़ल] और मातृभूमि से जुड़े शेरो की पंक्तियां बहुत शौक़ से पढ़ने लगा,लेकिन जब एक मुशायरे मे राहत इंदौरी साहब को पढ़ते हुये सुना तो मै उनकी शायरी का आशिक हो गया और हमेशा उनसे दुआ सलाम करने के मौके तलाशता रहता था लेकिन 2014 मे दिल्ली के लाल कि़ले पर हुये मुशायरे के कारण मेरी हसरत पूरी हुई क्योकि 10 वर्षीय वनवास के बाद उन्हे (राहत साहब) लाल कि़ले के मुशायरे मे बुलाया गया था जबकि वहां पर मुझे मेरे मित्र तथा मटिया महल विधानसभा से आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी रहे (बाद मे भाजपा के प्रत्याशी बने) शकील अंजुम ने बुलाया था और जब वह व्यस्त हो गये तो मै बोर होकर इधर-उधर घूमते हुये मंच के पीछे शायरो के लिये बने ख़ेमा-नुमा टेंट मे पहुंचा तो मेरी नज़र नाश्ता कर रहे राहत इंदौरी साहब पर पड़ी हालांकि मेरा उनसे पहले से परिचय था लेकिन उस दिन मैने अपना पूरा परिवारिक परिचय करवाया तो वह बहुत खुश हुये,उन्होने मुस्कुराते हुये कहा कि खान साहब आप क्या सवाल पूछना चाहते है? लेकिन कैंची की तरह चलने वाली मेरी ज़बान उस वक्त बंद हो गई और मेरे मुंह से एक शब्द भी नही निकला और ऐसा लगता था जैसे अगले कुछ पलो मै रोने लग जाऊगा फिर मैने अपनी भावुकता पर नियंत्रण करने का असफल प्रयास करते हुये कांपते लहजे मे कहा कि मै आपके साथ एक फोटो खिंचवाना चाहता हूं तो उन्होने फौरन मेरे साथ एक सेल्फी (फोटो) खिंचवाई हालांकि मैने बड़े-बड़े राजनेताओ और अधिकारियो के साक्षात्कार (इंटरव्यू) किये थे जिनमे कई भूतपूर्व प्रधानमंत्री भी शामिल है लेकिन मै कभी फोटो खिंचवाना पसंद नही करता था परंतु राहत इंदौरी मेरे हीरो थे इसलिये दिलीप कुमार साहब के बाद पहली बार मैने किसी सेलिब्रिटी से फोटो खिंचवाने की गुज़ारिश करी थी और आज भी मै इतना भावुक हूं कि मेरे पास उनके लिये लिखने को शब्द नही है जबकि मै लंबे-लंबे स्मरण लिखने के लिये अपने साथियो मे प्रसिद्ध हूं।
मंगलवार को उनके एकाउंट से ट्वीट करके बताया गया था कि उनको (राहत इंदौरी) कोरोना के कारण अस्पताल मे एडमिट किया गया है इसलिये उन्हे डिस्टर्ब ना किया जाये लेकिन 11 अगस्त 2020 की शाम लगभग 5 बजे शायरी के क़द्रदानो के लिये एक दुखद समाचार आया कि राहत इंदौरी की मृत्यु हो गई है फिर उनके अकाउंट से दोबारा ट्वीट हुआ कि आज रात 9.30 बजे छोटी खज़रानी (इंदौर) कब्रिस्तान मे राहत साहब को दफनाया जायेगा और रात 10:45 बजे उनकी तदफीन हो गई,हालाकि रविवार रात खांसी-बुखार और घबराहट होने की मामूली सी तकलीफ पर वह जांच के लिये सी.एच.एल. अस्पताल गये थे किंतु सी.टी. स्कैन मे निमोनिया आया तो डॉक्टरो ने भर्ती होने की सलाह दी फिर उसी रात को उन्हे कोविड हॉस्पिटल अरबिंदो मे भर्ती करवाया गया जहां उन्हे कोरोना संक्रमण होने की पुष्टि हुई थी जबकिअरबिंदो मेडिकल कॉलेज के चेयरमैन डॉ. विनोद भंडारी ने बताया कि उनकी तकलीफ शुगर बढ़ जाने के कारण थी और डॉक्टरो ने इस पर नियंत्रण कर लिया था परन्तु मंगलवार दोपहर डेढ़ बजे उन्हे हार्ट अटैक आया फिर सी.पी.आर. देने पर कुछ सुधार हुआ लेकिन 2 घंटे बाद दूसरा अटैक आ गया जिसके कारण उन्हे बचाया नही जा सका,हालांकि उनके बेटे सतलज इंदौरी का कहना है कि अकेलेपन की वजह से वह घबरा गये होगे और घबराहट मे उन्हे हार्ट-अटैक आ गया होगा इसलिये उनकी कैफियत (मनोस्थिति) समझाने के लिये उनके बेटे ने उनका कोरोना काल मे लिखा गया एक शेर भी मीडिया से साझा किया है [“हुक्म था कि घर की दीवारो से बाते कीजिए, सख्त मुश्किल काम था, हम दर्द-ए-सर से मर गए’] तथा उनकी अंतिम कविता भी मीडिया को बताई;
[“नए सफ़र का जो ऐलान भी नही होता,
तो ज़िंदा रहने का अरमान भी नहीं होता,
तमाम फूल वही लोग तोड़ लेते है,
जिनके कमरो मे गुलदान भी नहीं होता,
ख़ामोशी ओढ़ के सोई है मस्ज़िदे सारी,
किसी की मौत का ऐलान भी नही होता,
वबा ने काश हमे भी बुला लिया होता
तो हम पर मौत का अहसान भी नही होता”]।
जब सुबह उन्हे खाना खिलाया जा रहा था तब वे बोले, “डॉक्टर साहब मुश्किल लग रहा है कि ठीक हो पाऊंगा” लेकिन डॉक्टरो ने उनकी हिम्मत बढ़ाते हुये समझाया कि आप बहुत जल्द ठीक हो जाएंगे जबकि वह बहुत हिम्मत वाले आदमी थे और जब 2008 मे बाबा सदन शाह के उर्स के मौके पर हुये मुशायरे मे उन्हे मंच पर ही हार्ट-अटैक हो गया था तब भी उन्होने हिम्मत नही हारी थी फिर तबीयत मे मामूली सा सुधार होने के बाद वह उत्तर प्रदेश के ललितपुर शहर से ट्रेन मे बैठकर भोपाल होते हुये अपने घर वापस आ गये थे,चूँकि क्रांतिकारी विचारो (मजदूरो तथा गरीबो के कल्याण) के कारण उनकी ज़िंदादिली-हिम्मत का कोई जवाब नही था इसलिये आपातकाल लागू करने वाली सरकार से लेकर बहुसंख्यक तुष्टिकरण करने वाली वर्तमान सरकार तक उनसे खुश नही होती थी लेकिन वह जनता के दिलो पर राज करते थे और उनका अंदाजे-बयां कुछ अलग ही था कि वह जब गंभीर बाते करते-करते बीच मे हंसी की कुछ पंखुड़ियां बिखेर देते तब रंज-ओ-गम को भूलकर दर्शक (श्रोता) ठहाके लगाने लगते थे फिर वह अपने शेरो तथा गज़लो से ऐसा समा बांध दिया करते थे कि इंसान ज़िंदगी भर उस मुशायरे को ना भूले,मगर रात-रात भर मुशायरा मे शामिल होने के बावजूद भी वह जनता से कहते थे कि अगर रात-भर जागकर शायरी सुनोगे तो काम कैसे करोगे और जब तक काम नही करोगे तो तरक्की कैसे करोगे? इसलिये अपने हालात को बदलो क्योकि जब तक हम खुद प्रयास नही करेगे तब तक हमारी स्थिति नही बदलेगी अर्थात वह एक धार्मिक मुसलमान होने के बावजूद वामपंथी विचारो से प्रेरित लगते थे क्योकि उन्होने अपने जीवन मे बहुत संघर्ष किया था जिसके कारण उनकी जीवनी पर कई उपन्यास लिखे जा सकते है तथा फिल्मे बनाई जा सकती है।
“मै जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पैशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना”, उनके इस शेर पर चर्चा करते हुये तथा उनको श्रद्धांजलि देते हुये भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के पौत्र तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवादी नेता फिरोज़ अहमद बख़्त ने कहा कि वह सच्चे देशभक्त थे और उनकी हर सांस मे “हिंदुस्तान जिंदाबाद” की ध्वनि गूंजती थी”,वास्तव मे उन्हे अपनी मातृभूमि हिंदुस्तान से बड़ी मोहब्बत थी और वह मरने के बाद भी हिंदुस्तान से अटूट संबंध बनाये रखना चाहते थे इसका परिचय उनकी कविताओ मे मिलता है [“दो गज़ सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है, ऐ मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया”] लेकिन अगर राष्ट्रवाद का लबादा ओढ़े हुये कोई फासीवादी उनकी सांस्कृतिक विरासत और देशभक्ति पर कोई प्रश्न करे तो यह उन्हे पसंद नही था [“सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी मे,
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है”]।
वह क्रांतिकारी विचारो वाले स्वाभिमानी व्यक्ति थे इसलिये राजनीतिक तथा औद्योगिक घरानो मे उनके नाम मात्र मित्र होते थे;
[“काली रातो को भी रंगीन कहा है मैने,
तेरी हर बात पे आमीन कहा है मैने,
तेरी दस्तार पे तन्क़ीद की हिम्मत तो नही,
अपनी पा-पोश को क़ालीन कहा है मैने,
मस्लहत कहिए उसे या कि सियासत कहिए,
चील-कव्वो को भी शाहीन कहा है मैने,
ज़ाइक़े बारहा आँखो मे मज़ा देते है,
बाज़ चेहरो को भी नमकीन कहा है मैने,
तूने फ़न की नही शजरे की हिमायत की है,
तेरे एज़ाज़ को तौहीन कहा है मैने”],
[“जो मंसबो के पुजारी पहन के आते है,
कुलाह तौक़ से भारी पहन के आते है,
अमीर-ए-शहर तेरी तरह क़ीमती पोशाक,
मेरी गली मे भिखारी पहन के आते है,
यही अक़ीक़ थे शाहो के ताज की ज़ीनत,
जो उँगलियो मे मदारी पहन के आते है,
हमारे जिस्म के दाग़ो पे तब्सिरा करने,
क़मीज़े लोग हमारी पहन के आते है,
इबादतो का तहफ़्फ़ुज़ भी उन के ज़िम्मे है,
जो मस्जिदो मे सफ़ारी पहन के आते है”],
[“सवाल घर नही बुनियाद पर उठाया है,
हमारे पाँव की मिट्टी ने सर उठाया है,
हमेशा सर पे रही इक चटान रिश्तो की,
ये बोझ वो है जिसे उम्र-भर उठाया है,
मेरी ग़ुलैल के पत्थर का कार-नामा था,
मगर ये कौन है जिस ने समर उठाया है,
यही ज़मी मे दबाएगा एक दिन हम को,
ये आसमान जिसे दोश पर उठाया है,
बुलंदियो को पता चल गया कि फिर मैने,
हवा का टूटा हुआ एक पर उठाया है,
महा-बली से बग़ावत बहुत ज़रूरी है,
क़दम ये हमने समझ सोच कर उठाया है”],
[“बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते,
एक सच के लिए किस किस से बुराई लेते,
आबले अपने ही अँगारों के ताज़ा है अभी,
लोग क्यूँ आग हथेली पे पराई लेते,
बर्फ़ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है,
हम उसे साथ न लेते तो रज़ाई लेते,
कितना मानूस सा हमदर्दो का ये दर्द रहा,
इश्क़ कुछ रोग नही था जो दवाई लेते,
चाँद रातो मे हमे डसता है दिन मे सूरज,
शर्म आती है अँधेरो से कमाई लेते,
तुम ने जो तोड़ दिए ख़्वाब हम उन के बदले,
कोई क़ीमत कभी लेते तो ख़ुदाई लेते”],
[“यूँ सदा देते हुए तेरे ख़याल आते है,
जैसे काबे की खुली छत पे बिलाल आते है,
रोज़ हम अश्को से धो आते है दीवार-ए-हरम,
पगड़ियाँ रोज़ फ़रिश्तो की उछाल आते है,
हाथ अभी पीछे बंधे रहते है चुप रहते है,
देखना ये है तुझे कितने कमाल आते है,
चाँद सूरज मेरी चौखट पे कई सदियो से,
रोज़ लिक्खे हुए चेहरे पे सवाल आते है,
बे-हिसी मुर्दा-दिली रक़्स शराबे नग़्मे,
बस इसी राह से क़ौमो पे ज़वाल आते है”],
[“ये ख़ाक-ज़ादे जो रहते है बे-ज़बान पड़े,
इशारा कर दे तो सूरज ज़मीं पे आन पड़े,
सुकूत-ए-ज़ीस्त को आमादा-ए-बग़ावत कर,
लहू उछाल कि कुछ ज़िंदगी मे जान पड़े,
हमारे शहर की बीनाइयो पे रोते है,
तमाम शहर के मंज़र लहू-लुहान पड़े,
उठे है हाथ मेरे हुर्मत-ए-ज़मीं के लिए,
मज़ा जब आए कि अब पाँव आसमान पड़े,
किसी मकीन की आमद के इंतिज़ार मे है,
मेरे मोहल्ले मे ख़ाली कई मकान पड़े”]।
उन्हे अपने बुजुर्गो और उनकी तहजी़ब तथा विरासत से बहुत मोहब्बत थी;
[“जब कभी फूलो ने ख़ुश्बू की तिजारत की है,
पत्ती पत्ती ने हवाओ से शिकायत की है,
यूँ लगा जैसे कोई इत्र फ़ज़ा मे घुल जाए,
जब किसी बच्चे ने क़ुरआँ की तिलावत की है,
जा-नमाज़ो की तरह नूर मे उज्लाई सहर,
रात भर जैसे फ़रिश्तो ने इबादत की है,
सर उठाए थी बहुत सुर्ख़ हवा मे फिर भी,
हम ने पलको से चराग़ो की हिफ़ाज़त की है,
मुझे तूफ़ान-ए-हवादिस से डराने वालो,
हादसो ने तो मेरे हाथ पे बैत की है,
आज इक दाना-ए-गंदुम के भी हक़दार नही,
हम ने सदियो इन्ही खेतों पे हुकूमत की है,
ये ज़रूरी था कि हम देखते क़िलअो के जलाल,
उम्र भर हम ने मज़ारो की ज़ियारत की है”],
[“शहर क्या देखे कि हर मंज़र मे जाले पड़ गए,
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए,
मैं अँधेरो से बचा लाया था अपने-आप को,
मेरा दुख ये है मेरे पीछे उजाले पड़ गए,
जिन ज़मीनो के क़बाले है मेरे पुरखो के नाम,
उन ज़मीनो पर मेरे जीने के लाले पड़ गए,
ताक़ मे बैठा हुआ बूढ़ा कबूतर रो दिया,
जिस मे डेरा था उसी मस्जिद मे ताले पड़ गए,
कोई वारिस हो तो आए और आ कर देख ले,
ज़िल्ल-ए-सुब्हानी की ऊँची छत मे जाले पड़ गए”]।
वह युवाओ मे बहुत लोकप्रिय थे;
[“मेरे अश्को ने कई आँखो मे जल-थल कर दिया,
एक पागल ने बहुत लोगो को पागल कर दिया,
अपनी पलको पर सजा कर मेरे आँसू आप ने,
रास्ते की धूल को आँखों का काजल कर दिया,
मैने दिल देकर उसे की थी वफ़ा की इब्तिदा,
उस ने धोका दे के ये क़िस्सा मुकम्मल कर दिया,
ये हवाएं कब निगाहे फेर लें किस को ख़बर,
शोहरतो का तख़्त जब टूटा तो पैदल कर दिया,
देवताओ और ख़ुदाओ की लगाई आग ने,
देखते ही देखते बस्ती को जंगल कर दिया,
ज़ख़्म की सूरत नज़र आते है चेहरो के नुक़ूश,
हम ने आईनो को तहज़ीबो का मक़्तल कर दिया,
शहर मे चर्चा है आख़िर ऐसी लड़की कौन है,
जिस ने अच्छे-ख़ासे इक शायर को पागल कर दिया”],
“जनाज़े पर मेरे लिख देना यारो,
मोहब्बत करने वाला जा रहा है”
उपरोक्त रोमांटिक पंक्तियां लिखी तो युवाओ के लिये गई थी लेकिन वह उनके दिल की असलियत को बयान करती है क्योकि वह देश के नौजवानो, ग़रीबो तथा मज़दूरो से जीवन भर प्रेम करते रहे।
राहत साहब का जन्म इंदौर मे 1 जनवरी 1950 को कपड़ा मिल के एक साधारण कर्मचारी रफत-उल्लाह कुरैशी और मकबूल-उन-निसा बेगम के यहाँ हुआ था और वह उन दोनो की चौथी संतान थे,उनकी प्रारंभिक शिक्षा नूतन स्कूल इंदौर मे हुई फिर उन्होने इस्लामिया करीमिया कॉलेज (इंदौर) से 1973 मे अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करके 1975 मे बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय (भोपाल) से उर्दू साहित्य मे एम.ए. किया और 1985 मे मध्यप्रदेश-भोज (मुक्त) विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य मे “ऊर्दू मे मुशायरा” शीर्षक से पी.एच.डी. की उपाधि अर्जित करी फिर इसके बाद उनके मार्गदर्शन मे कई छात्रो ने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त करी क्योकि उन्होने 16 वर्षो तक इंदौर विश्वविदायालय के उर्दू सकांय मे उर्दू अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं दी थी,लेकिन उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नही थी इसलिये 10 साल से भी कम उम्र मे उन्होने अपने ही शहर मे मालवा मिल इलाक़े के पास साइन-बोर्ड की दुकान मे एक साइन-चित्रकार (पेंटर) के रूप मे काम करना शुरू कर दिया था और चित्रकार के तौर पर बहुत कम उम्र मे वह इतने प्रसिद्ध हो गये थे कि उनके द्वारा चित्रित बोर्डो को पाने के लिये ग्राहको को महीनो तक इंतजार करना भी स्वीकार था और आज भी इंदौर की दुकानो पर उनके द्वारा पेंट किये कई साइनबोर्ड्स को देखे जा सकता है।
वर्ष 1972 मे जब उन्हे पता चला कि उनके मामा एक मुशायरा कमेटी के सदस्य है और शीघ्र मुशायरा होने वाला है तब उन्होने अपनी माताजी से सिफारिश करवाकर उस मुशायरे मे सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त किया और उस वक्त उनकी आयु मात्र 19 वर्ष थी फिर उन्होने प्रसिद्धि पाने के लिये जोड़-तोड़ करते हुये अपने कुछ साथियो को तालियां बजाने तथा वाह-वाही करने के लिये अग्रिम पंक्ति मे बिठा दिया किंतु अपनी बारी आने पर वह माइक पर जाते ही नर्वस हो गये तब उनकी खूब हूटिंग (मज़ाक बना) हुई इसलिये उन्हे अपनी गलती पर शर्म आई और उन्होने कठिन परिश्रम करने का निर्णय लिया लेकिन वह अपनी कविताओ को तरन्नुम (गायन) मे पढ़ना चाहते थे किंतु गले की तकलीफ के कारण डॉक्टरो ने उन्हे गायन की इजाज़त नही दी तब भी उन्होने हिम्मत नही हारी और अपनी शायरी से रंग बिखेरते हुये लोकप्रिय शायर बन गये तथा पिछले 40-45 वर्षो से वह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर मुशायरो की शान बने हुये थे इस दौरान उन्होने कई किताबे [रुत (Rut), दो कदम और सही (Do Kadam or Sahi), मेरे बाद (Mere baad), धूप बहुत है (Dhoop Bahut Hai), चाँद पागल है (Chand Pagal Hai), मौजूद (Maujood), नाराज़ (Naraz) आदि] भी लिखी और त्रैमासिक पत्रिका “शाखे” का 10 वर्षो तक संपादन भी किया।
हालांकि आप युवावस्था मे एक अच्छे खिलाड़ी थे और अपने स्कूल की हॉकी तथा फुटबॉल टीम के कप्तान थे फिर भी उन्होने लेखन से लेकर चित्रकारी तक सभी बारीक (सूक्ष्म) कार्य सफलता तथा सुंदरता से किये किंतु इस दौरान उन्होने पुस्तको के कवर डिज़ाइन करने के साथ-साथ बॉलीवुड फिल्मो के पोस्टर-बैनर भी बहुत अरमान से चित्रित किये थे,परन्तु बॉलीवुड से जुड़ने की उनकी इ़च्छा 1992 मे पूरी हुई जब ‘जानम’ फिल्म मे उन्होने एक गीत “दिल जिगर” लिखा लेकिन इसके बाद 1993 मे रिलीज़ हुई फिल्म ‘सर’ के गीत “आज हमने दिल का हर किस्सा तमाम कर दिया” ने धूम मचा दी फिर उन्होने बहुत मशहूर गीत लिखे जिनमे “तुमसा कोई प्यारा कोई मासूम नही है” (फिल्म- ख़ुद्दार), “तुम मानो या न मानो, पर प्यार इंसां की जरूरत है” (फिल्म- खुद्दार), “दिल को हज़ार बार रोका-रोका-रोका” (फिल्म- मर्डर), “एम बोले तो मास्टर” (फिल्म- मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.), “बुम्बरो बुम्बरो श्याम रंग बुम्बरो” (फिल्म- मिशन कश्मीर), “देखो-देखो जानम हम, दिल अपना तेरे लिए लाए” (फिल्म- इश्क), “नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम तूने” (फिल्म- इश्क), “कोई जाए तो ले आए मेरी लाख दुआएं पाए” (फिल्म- घातक), “ये रिश्ता (फिल्म- मीनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीज), “मुर्शिद” (फिल्म- बेगम जान) आदि शामिल है और संगीतकार अनु-मलिक के साथ उनकी जोड़ी सुपर-हिट साबित हुई,चूँकि उनकी लोकप्रियता चरम सीमा पर थी तो 2017 मे कपिल शर्मा ने उन्हे अपने कॉमेडी-शो मे बुलाया फिर जुलाई 2019 मे “सब-टी०वी०” के शो (वाह-वाह क्या बात है!) मे भी वह बतौर मेहमान सम्मिलित हुये।
आप लोकप्रियता के शीर्ष पर बने हुये थे और समाज को आपकी अभी बहुत ज़रूरत थी इसलिये आप स्वयं भी जाना नही चाहते थे लेकिन बेरहम काल ने आपको हमसे छीन लिया;
[“बुलाती है मगर जाने का नही,
वो दुनिया है उधर जाने का नही,
ज़मीं रखना पड़े सर पर तो रक्खो,
चले हो तो ठहर जाने का नही,
है दुनिया छोड़ना मंज़ूर लेकिन,
वतन को छोड़ कर जाने का नही,
जनाज़े ही जनाज़े है सड़क पर,
अभी माहौल मर जाने का नही,
सितारे नोच कर ले जाऊँगा,
मै ख़ाली हाथ घर जाने का नही,
मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर,
मगर हद से गुज़र जाने का नही,
वो गर्दन नापता है नाप ले,
मगर ज़ालिम से डर जाने का नही,
सड़क पर अर्थियाँ ही अर्थियाँ है,
अभी माहौल मर जाने का नही,
वबा फैली हुई है हर तरफ़,
अभी माहौल मर जाने का नही”]
आपके लिखे शब्द और स्वर ता-कयामत हिंदुस्तान की फिज़ाओ मे गूंजते रहेगे;
“अब ना मै हूँ ना बाक़ी है ज़माने मेरे,
फिर भी मशहूर है शहरो मे फ़साने मेरे…”,
अलविदा ऐ शायर-ए-मिल्लत!
अलविदा ऐ मर्दे-मुजाहिद!