डॉ शिखा भदौरिया, असिस्टेंट एडिटर, ICN एंटरटेनमेंट
” साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥ “
साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात पूँछ और सींघ रहित पशु के समान है। और ये पशुओं की खुद्किस्मती है की वो उनकी तरह घास नहीं खाता।
” संगीत वह कला है जो मनुष्य को भौतिक एवं आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति कराती है। भारतीय परंपरा में संगीत का मूल आधार आध्यात्मिक है, यहाँ यह मनोरंजन का साधन मात्रा नहीं रहा है, बल्कि यह आत्मा परमात्मा से जोड़ने का सरल एवं सहज तरीका मन गया है। भारतीय संगीत का शास्त्रीय पक्ष,भाषा व्याकरण के समान ही नियमानुशासन में बंधा है, जबकि लोक संगीत अपने स्वभाव के अनुकूल ही उन्मुक्त, स्वछंद एवं नैसर्गिक सौंदर्य से ओतप्रोत है। “
संगीत मानवीय भावनाओं की सुरबद्ध अभिव्यक्ति है। भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में संगीत का आधार भी अन्य कलाओं की ही तरह आध्यात्मिक है। संगीत भारत में अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रहा है। विश्व के प्रचीनतम ग्रंथों, वेदों में सामवेद की रचना का आधार गायन को बनाया गया, जिसमें मंत्रो के गायन के नियम दिए गए है। इसी कारण ऋषियों ने संगीत को पंचम वेद या गन्धर्व वेद कहा है।
भारत में संगीत का जन्म आध्यात्मिक आधार पर हुआ, किन्तु कालांतर में यह आध्यात्मिक के साथ-साथ लौकिकता से भी जुड़ गया। भारतीय परंपरा में अनेक संगीत ग्रंथों की रचना हुई, जिनमें लोचन कवि की रागतरंगिणी तथा शारंगदेव का संगीत रत्नाकर (११वी सदी ) प्रसिद्ध है। १६वी व १८वी सदी में भी अनेक संगीत ग्रंथ रचे गए, जिनमे सोमनाथ का राग बोध, दामोदर मिश्र का संगीत दर्पण, अहोबल का संगीत पारिजात उल्लेखनीय है।
संगीत का उद्भव
गान मानव के लिए उतना ही स्वाभाविक है जितना की रुदन। फिर भी संगीत का उद्भव कैसे हुआ इस पर विद्वानों ने बहुत गहन विचार किया।संगीत के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने धार्मिक मान्यताओं के आधार पर अपने -अपने विचार व्यक्त किये है, कुछ विद्वानों का मानना है की संगीत की उत्पत्ति वेदों के निर्माता ब्रम्हा द्वारा हुई है।
संगीत शब्द में ‘ सम् ‘ उपसर्ग है और गीत ‘ गै ‘ धातु में ‘ क्त ‘ प्रत्यय लगकर बना है जिसका अर्थ है सुन्दर गाना। स्वर और लय के माध्यम से भाव व्यक्त करना संगीत है। भारतीय परंपरा में शब्दों (वाणी) का विशेष महत्त्व होने के कारण स्वर और लय के साथ- साथ पद का भी महत्वपूर्ण स्थान है। अतः भरत ने गांधर्व की परिभाषा करते हुए उसे स्वर ताल पद युक्त कहा है :-
” गांधर्वमिति तज्ज्ञेयं स्वरतालपादात्मकं ” ( नारदीय शास्त्र ४- पृष्ठ ५ )
यही आगे चलकर संगीत कहलाया। शारंगदेव ने संगीत-रत्नाकर में संगीत की तीनों विधाओं गायन, वादन, नर्तन के समावेश को संगीत कहा है।
” गीतमं वाद्यमं तथा नृत्तम त्रयं संगीतमुच्यते “। (संगीत-रत्नाकर १ पृष्ठ २१ )
अंग्रेजी के म्यूजिक का अरबी के ‘ मुसीक़ी ‘ से परस्पर संबंध है। अंग्रेजी का म्यूजिक या अरबी और फ़ारसी की मुसीक़ी यूनानी भाषा के ‘ म्यूज़ ‘ शब्द से बने है।
पाश्चात्य विद्वान फ्रायड के अनुसार,” संगीत की उत्पत्ति एक शिशु के समान है, इसको मनोवैज्ञानिक आधार पर कहा जा सकता है की जिस प्रकार बालक अपनी सभी क्रियाएं ; जैसे – रोना, चिल्लाना आदि अपनी आवश्यकतानुसार सीख लेता है उसी प्रकार संगीत का प्रादुर्भाव मानव में मनोवैज्ञानिक आधार पर स्वयं हुआ “।
भारत का प्राचीन इतिहास ३५०० ईसा पूर्व के लगभग का आरंभ काल माना जाता है। ऐसा अनुमान है की इससे पहले भी सभ्यता एवं संस्कृति अवश्य रही होगी, लेकिन उसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, इसी कारण इतिहासकारों ने उसे अंधकार का युग कहा है। इस अंधकार युग के जो पाषाण चिन्ह तथा जो मूर्तियां मिलती है, उन्ही के आधार पर अंधकार युग को चार भागो में विभाजित किया जा सकता है :-
< पूर्व पाषाण काल
< पाषाण काल
< ताम्र काल
< लौह काल
प्रकृति की गोद में पले मानव के प्रयत्नों द्वारा पनपता हुआ संगीत सदा मन को आनंदित करता आया है। हृदय के तारों को झंकृत कर देने वाली संगीत की आनंददायिनी शक्ति सृष्टि के आरम्भ से ही उद्भूत हुई होगी। संगीत के उद्भव पर हम तीन दृष्टियों से विचार कर सकते है :-
१ भौतिक :-
भौतिक शास्त्र के विद्वानों के अनुसार ध्वनि दो प्रकार की होती है –
(क) संगीतोपयोगी ध्वनि – जिसे नाद कहते है।
(ख) संगीतेतर ध्वनि – जिसे हम राव कहते है। भौतिक दृष्टि से ध्वनि की नियमितता और संतता से ही संगीत का उदभव होता है।
नाद दो प्रकार के होते है –
१ अनाहत नाद
२ आहात नाद।
” आहतोअनाहतश्चैव द्विधा नादो निगद्यते।
तत्रानाहतनादम् तु मुनय: समुपासते।।
गुरुपदिष्टमार्गेण मुक्तिदम्, न तु रंजकम्।
स नादिसत्वाहतो लोके रंजको भवभञ्जकाः “।।
( संगीत-दर्पण, श्लोक १४ ,१५, पृष्ठ-४ , तंजाऊर संस्करण )
भावार्थ :-
अनाहत नाद बिना किसी आघात के होता है। वह संगीत के लिए उपयोगी नहीं होता, क्योकि वह रंजक नहीं होता है। उसका गुरु के द्वारा उपदिष्ट मार्ग से योगी अभ्यास करते है। वह मुक्तिदायक होता है। आगत नाद आघात से उत्पन्न होता ह। उस आहात ध्वनि को, जिसमें नियमित और सतत कम्पन होता है, संगीत में ‘ नाद ‘ कहते है। नियमित और सतत कम्पन का यह वैशिष्टय है की वह रंजकता पैदा करता है।
वस्तुतः भौतिक शास्त्र हमे संगीत का उद्भव नहीं बतलाता। यह तो जब संगीत का उद्भव हो गया होता है, तब उसका भौतिक विश्लेषण करके बताता है,की ‘ नाद ‘ के आवश्यक तत्व क्या हैं। यह नाद का उद्भव नहीं, लक्षण बताता है।
२ आतिभौतिक :-
दार्शनिकों ने नाद के चार भेद माने है – परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी। इसमें से मध्यमा को संगीतोपयोगी नाद अर्थात स्वर का आधार माना है । मध्यमा द्वारा नियमित नाद स्वर में प्रस्फुटित हो उठता है। यह संगीतोपयोगी नाद का उत्थान या उद्भव कैसे होता है मानव के हृदय में उसका ज्ञान नहीं देता, यह तो संगीतोपयोगी नाद का आतिभौतिक स्वरुप हो सकता है।
३ मानसिक या मनोवैज्ञानिक :-
कार्ल स्टम्फ की यह धारणा है की मानव ने जब ध्वनि के द्वारा संकेत करना प्रारम्भ किया तो भाषा का प्रादुर्भाव हुआ।
विचार से देखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है की संगीत का उद्भव भावव्यंजक ध्वनि से हुआ है। भावव्यंजक ध्वनि ही भाषा और संगीत दोनों का मूल है। भावव्यंजक ध्वनि दो कारणों से संगीतमय नाद या स्वर की अवस्था को धारण करती है – एक कंठ की बनावट दूसरे ध्वनि की स्थिरता व नियमितता।
आदिकाल से मनुष्य जब शब्द या भाषा का निर्माण नहीं कर पाया था तब वह अपनी ध्वनि-भंगी या ध्वनि-विकार से अपने भाबों को व्यक्त करता रहा है। इस ध्वनि-भंगी का अति प्राचीन नाम
‘ स्तोभ ‘ था। विश्व भर में ‘ स्तोभ ‘ की ध्वनि समान रूप से अहा, हो, ओहा, हे, ल, ल, ल, य, ल, हाँ इत्यादि है। आज भी सामवेद के बहुत से गान में ये स्तोभ वर्तमान है।
वैय्याकरणों और भाषाविज्ञों ने इन ‘ स्तोभों ‘ को निरर्थक कहा है क्योकि ये कोई जातिवाचक संज्ञा या शब्द नहीं है। किन्तु यदि भाषा के ही आदि का पता लगाया जाए तो ये कदापि निरर्थक नहीं कहे जा सकते और संगीत में तो ये आज भी निरर्थक नहीं है।
संगीत का विकास
संगीत के साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर भारतीय संगीत के विकास क्रम को निम्नलिखित कालखंडों में वर्गीकृत कर सकते है :-
भारतीय संगीत
वैदिक काल महाकाव्य काल पूर्वमध्य काल मध्यकाल आधुनिक काल
वैदिक काल
१५०० से ६०० ईसा पूर्व तक का समय भारतीय इतिहास में वैदिक काल के नाम से जाना जाता है। इस काल की संस्कृति के स्त्रोत वेद है। वेदिन में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते है की वैदिक समाज में संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
ऋग्वेद में संगीत को आर्यों के अमोद-प्रमोद का साधन बताया गया है।
यजुर्वेद में संगीत को आर्यों से जुड़े लोगो के बारे में उल्लेख है, जो इसके (संगीत) के माध्यम से अपनी आजीविका चलाते थे।
सामवेद में मन्त्रों के गायन की विधि बताई गयी है तथा उन मन्त्रों को गाने वाले पुरोहित को ‘ उद्गाता ‘ कहा गया है। इससे यह स्पष्ट होता है की संगीत की उत्पत्ति का मुख्य कारण भी अन्य कलाओं की भाँती आध्यात्मिक था, जो बाद में लौकिक भी हुआ। इस काल में स्वर को ‘ यम ‘ कहा जाता था। इन स्वरों का गान सामिक कहलाता था। वेदों में वीणा, शंख, दुंदुभि, वेणु (बांसुरी) इत्यादि वाद्यों का भी उल्लेख है। रामायण में भेरी, दुंदुभि, मृदंग, पटह, घटपणव, डिंडिम, वीणा तथा आडम्बर आदि वाद्यों और जाति गायन का उल्लेख मिलता है। जाती राग का आदि रूप है। महाभारत में सप्त स्वरों और गांधार ग्राम का उल्लेख है, जिसके नाम पर गंधार स्वर है।
महाकाव्य काल या संगम काल
संगम साहित्य ( 100-२०० ई0) की रचना सुदूर दक्षिण में हुई। इन रचनाओं पुरनानूर और पत्तुपाट्टू में चमड़े से मढे वाद्यों (अवनद्ध) का उल्लेख है। ऐसे वाद्य का विशिष्ट स्थान होता था, जिसे मुरुसुकट्टिल कहते थे।
परिपादल ग्रन्थ में स्वरों और सात पालइ का उल्लेख मिलता है। पालइ मूर्छना से मिलता है। इसी ग्रंथ में याल नामक तंतु वाद्य का उल्लेख है, जिसके एक प्रकार में १००० तक तार होते थे।
पूर्व मध्यकाल
तमिलनाडु के कुडुमियमालइ स्थान से ७वी सदी के एक उत्कीर्ण लेख में सात स्वरों, सात जातियों और कुछ श्रुतियों का तथा अंतर गंधार और काकली निषाद स्वरों का उल्लेख है। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में ७वी सदी तक संगीत की पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी तथा उसके मुख्य विषय उत्तर से दक्षिण तक व्याप्त हो चुके थे। उत्तर भारत में इस काल में राजपूतों का शासन था। इन राजपूत शासकों ने संगीत की उन्नति में पर्याप्त योगदान दिया, अनेक शासक स्वयं संगीतज्ञ भी थे। इनमें हम्मीर देव, राणा कुम्भा, सोमेश्वर आदि नाम उल्लेख्नीय हैं।
मध्यकाल
भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना १२०६ ई० में मोहम्मद गोरी के सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक ने की थी। इसके पश्चात लगभग शताब्दियों तक भारत में विभिन्न शासन वंशों ने शासन किया। यह काल भारत में संगीत की दृष्टि से उल्लेखनीय विकास का काल रहा। भारत में हिंदुस्तानी संगीत का विकास इसी काल में प्रारम्भ हुआ। इस काल में हुए भक्ति एवं सूफी आन्दोलनों ने भी संगीत को लोकप्रिय बनाने तथा इसे विकसित करने में उल्लेखनीय भूमिका निर्वाह की। विभिन्न सुल्तानों ने भी संगीत को प्रोत्साहन दिया। इस काल में संगीत के विकास को निम्नलिखित दो भागों में बांटा जा सकता है :-
१ सल्तनत काल :-
सल्तनतकालीन सुल्तानों में सर्वप्रथम बलबन ने संगीतकारों को संरक्षण दिया। उसी ने अमीर खुसरो को ‘ तूती-ए-हिंद ‘ की उपाधि दी थी। अमीर खुसरो इस काल के सुप्रसिद्ध संगीतकार थे। कव्वाली गायन शैली को इन्होने ही लोकप्रिय बनाया तथा कुछ विद्वान् उन्हें तबले और सितार का आविष्कारक भी मानते है, हलाकि इसमें भी मतवैभिन्न है। बलबन का उत्तराधिकारी कैकुबाद भी संगीत प्रेमी था। उसने इस काल में सर्वाधिक संगीतज्ञों को संरक्षण दिया। अलाउद्दीन के दरबार में विख्यात संगीतज्ञ गोपाल नायक तथा अमीर खुसरो निवास करते थे।
२ मुग़ल काल :-
मुग़ल वंश का संस्थापक बाबर संगीत प्रेमी था। उसकी आत्मकथा में संगीत गोष्ठियों का वर्णन है। अकबर के दरबार में विख्यात संगीतज्ञ तानसेन निवास करते थे। अबुल फज़ल ने ‘ आइनें- अकबरी ‘ में ३६ प्रसिद्ध संगीतकारों की सूची दी है, अकबर के काल के अन्य विख्यात संगीतज्ञ स्वामी हरिदास (जो की तानसेन के गुरु भी थे), बैजू बावरा, बाबा रामदास, सुभान खा, मियाँ चाँद, बाज़बहादुर आदि थे। अकबर स्वयं नक्कारा बजाने में सिद्धहस्त था। शाहजहां को भी संगीत में विशेष रूचि थी। उसके दरबार में जगन्नाथ, सुखसेन, लाला खा, आदि महान संगीतज्ञ निवास करते थे।औरंगज़ेब ने गायन को इस्लाम विरुद्ध मानकर प्रतिबंधित कर दिया था। हलांकि वह स्वयं कुशल वीणा वादक था तथा सर्वाधिक संगीत के ग्रन्थ इसी के काल में लिखे गए। परवर्ती मुग़लों में जहांदार शाह तथा मोहम्मदशाह ने संगीत को प्रश्रय दिया। मोहम्मदशाह को संगीत में रूचि के कारण ही ‘ रंगीला ‘ उपनाम मिला था।
मध्यकाल में क्षेत्रीय राजवंशों का संगीत को प्रोत्साहन
मध्यकाल में क्षेत्रीय राजवंशों ने भी संगीत को प्रोत्साहित किया। जौनपुर के शासक शर्की को ख़याल गायन का प्रणेता मन जाता है। बीजापुर के इब्राहिम आदिलशाह ने किताब-ए-नौरस की रचना की, जिसमें रागबद्ध कविताएं व गीत लिखे गए है। खानदेश के बुरहान फारुकी ने पुण्डरीक विट्ठल को संरक्षण दिया। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के काल में कत्थक नृत्य तथा ठुमरी का सृजन व विकास हुआ तथा ख्याल, ध्रुपद गायन को लोकप्रियता मिली।
आधुनिक काल
१८वी शताब्दी तक संगीत घराने एक प्रकार से औपचारिक संगीत शिक्षा के केंद्र थे, किन्तु ब्रिटिश काल में घरानों की परंपरा कुछ कमज़ोर हो गई, क्योकि पाश्चात्य संस्कृति के व्यवस्थापक कला एवं संस्कृति की अपेक्षा व्यापार, वाणिज्य तथा वैज्ञानिक प्रगति को अधिक महत्त्व देते थे। इस काल में वर्ष १९०१ में विष्णु दिगंबर पलुस्कर जी ने लाहौर में गन्धर्व महाविद्यालय की स्थापना की। इस काल में महाविद्यालय स्थापित किया गया। इसके अलावा १८६० में पंडित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने देशी शासकों के सहयोग से संगीत साहित्य का सृजन किया तथा लखनऊ में मैरिस कॉलेज ऑफ़ म्यूजिक की स्थापना की जिसे आज हम भातखण्डे संगीत सम विश्वविद्यालय के नाम से जानते है तथा हिंदुस्तानी संगीत पद्धति नामक ग्रन्थ की रचना की। इस काल में संगीत की विकास प्रक्रिया धीमी ज़रूर हुई, किन्तु लुप्त नहीं हुई। वर्तमान में स्वतंत्रता उपरान्त संगीत नाटक अकादमी तथा अनेक संगीत महाविद्यालयों की स्थापना हुई फलस्वरूप संगीत कला नित नए आयाम छू रही है।
यद्यपि संगीत मानव के लिए नैसर्गिक है तथापि आदि से ही संगीत का प्रादुर्भाव एक कला के रूप में नहीं हुआ है। हमारे ऋषियों, आचार्यों, कलाकारों की सहस्त्रों वर्षों की साधना, तपस्या के परिणामस्वरूप संगीत एक उच्च कला की अवस्था को पंहुचा है।
आज का भारतीय संगीत शताब्दियों के प्रयास और प्रयोग का परिणाम है। इसी प्रयास और प्रयोग के कारण ही संगीत का वर्तमान स्वरुप पुष्पित और पल्लवित हो रहा है।
इति श्री !