डॉ शिखा भदौरिया, असिस्टेंट एडिटर, ICN एंटरटेनमेंट
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेन च ।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥
भावार्थ :-
अमुक श्लोक में भगवान विष्णु जी कह रहे है, ” हे नारद ! ना तो मैं वैकुण्ठ में निवास करता हूँ , ना ही योगीजनों के हृदय में ही मेरा निवास है। मै तो वहाँ निवास करता हूँ जहां मेरे भक्तगण गायन-वादन करते है। ”
इस एक श्लोक से ही संगीत की प्रासंगिकता प्रदर्शित होती है की स्वयं ईश्वर भी संगीत को कितनी महत्ता देते है। जैसा की हम अपने पिछले लेख में कह चुके है कि यद्यपि संगीत मानव के लिए नैसर्गिक है; तथापि संगीत ने किस प्रकार एक सुव्यवस्थित कला का रूप धारण किया, उसका एक इतिहास है। अब हम भारतीय संगीत के इतिहास के विभिन्न संयोगी तथ्यों पे प्रकाश डालने का कार्य करेंगे।
” संगीत के ऐतिहासिक दृष्टिकोण को दृष्टिगत करें, तो संगीत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता, क्योकि संगीत प्राचीन काल से ही प्रकृति के गोदी में पले मानव के प्रयत्नों से ही पनपा है और सदा से ही मनुष्य के हृदय को झंकृत और मन को आनंदित करता आया है। “
‘ इतिहास ‘ शब्द इति+आस से बना है। ‘ इति ‘ का अर्थ है ‘ ऐसा ‘। ‘ ह ‘ का अर्थ है निश्चयपूर्वक। ‘आस ‘ का अर्थ है ‘ था ‘। इति+ह+आस अर्थात ‘ इतिहास ‘ का अर्थ है ‘ निश्चयपूर्वक ऐसा था ‘। इसीलिए अपने शास्त्रों में घटनाओं के क्रम-काल को इतिहास कहते है, जो परंपरागत बातें चली आयी है, वे भी इतिहास में सम्मिलित हैं। हमारे जितने संगीत-शास्त्र है, वे सभी यह मानते चले आये है कि हमारी संगीतकला के आदि प्रेरक और उपदेशक देव-देवी रहे हैं। इस विश्वास को काल्पनिक कहकर हंसी में उड़ा देने की मनोवृत्ति उपयुक्त नहीं जान पड़ती।
शिव, ब्रम्हा, सरस्वती, गन्धर्व और किन्नर को जो हम अपनी संगीत-कला का आदि प्रेरक मानते चले आए हैं, इसके मूल में यही भावना है की संगीत-कला दैवी प्रेरणा से ही प्रादुर्भूत हुई है। संगीत के जन्म के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार विभिन्न विचार व्यक्त किये है। संगीत की उत्पत्ति सर्वप्रथम वेदों के निर्माता ब्रम्हा द्वारा हुई, ब्रम्हा ने यह कला शिव को दी और शिव द्वारा सरस्वती को प्राप्त हुई। सरस्वती से संगीत कला का ज्ञान नारद को प्राप्त हुआ। नारद ने स्वर्ग के गन्धर्व, किन्नर तथा अप्सराओं को संगीत शिक्षा दी, वहाँ से ही भरत, हनुमान आदि ऋषि इस कला में पारंगत होकर भूलोक में संगीत के प्रचारार्थ अवतरित हुए। पंडित अहोबल के अनुसार, ” ब्रम्हा ने भरत को संगीत की शिक्षा दी तथा पंडित दामोदर ने भी संगीत का आरंभ ब्रम्हा को ही माना है।
यद्यपि संगीत मानव के लिए स्वाभाविक है तथापि कला के रूप में यह दिव्य प्रेरणा से ही आया होगा। संगीत वह सुन्दर, सुरभ, सरस पद्म है जो बिना स्वर्ग के प्राणदायक, शीतल ओसकण के खिलता ही नहीं। हमारे ऋषियों और आचार्यों का यह विश्वास है की शंकर के डमरू से वर्ण और स्वर दोनों उत्पन्न हुए है। शंकर की शक्ति पार्वती, दुर्गा भी संगीत की प्रेरक मानी गयी है।
ब्रम्हा भी संगीत के प्रेरक के रूप में स्मरण किये गए है। ब्रम्हा शब्द बृह अथवा बृह् धातु से बना है। इस धातु का अर्थ है आत्मविस्तार, ध्वनि होना, ध्वनि के द्वारा हृदय के भावों को व्यक्त करना। ब्रम्हा के मूल में ही शब्द या नाद है। अतः इन्हें संगीत का प्रेरक मानना सर्वथा उचित है, उपयुक्त है।
सरस्वती भी संगीत के आदि प्रेरकों में से स्मरण की गयी हैं। सरस्वती ब्रम्हा की शक्ति का ही नाम है। ‘ सरस + वती ‘ शब्द सृ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘ सरकना ‘, ‘ गतिशील होना ‘। सरस्वती ब्रम्हा की वह शक्ति है जिसके द्वारा ब्रम्हा में गतिशीलता आती है। इसी शक्ति से ब्रम्हा विश्व का निर्माण करते है। इस शक्ति का पर्याय है शब्द या नाद। अतः सरस्वती काव्य, संगीत इत्यादि की कलाओं की जननी हैं।
एक ग्रंथकार के अनुसार, ” नारद ने अनेक वर्षों तक योग साधना की, तब शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें संगीत कला प्रदान की थी। पार्वती की शयन मुद्रा को देखकर शिव ने उनके अंग-प्रत्यंगों के आधार पर रूद्र-वीणा बनायी और अपने पांच मुखों से पांच रागों की उत्पत्ति की। तत्पश्चात छठा राग पार्वती के मुख द्वारा उत्पन्न हुआ। शिव के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख होने से क्रमशः भैरव, हिंडोल मेघ , दीपक और श्री राग प्रकट हुए तथा पार्वती द्वारा कौशिक राग की उत्पत्ती हुई।
कुछ विद्वान संगीत का उद्भव ‘ ओउम ‘ शब्द से मानते हैं, यह एकाक्षर ओउम अपने अंदर तीन शक्तियों को समाहित किये हुए है अ,उ, म यह तीनों ही शक्ति का प्रतीक है। ‘ अ ‘ शब्द जन्म व उत्पत्ति का प्रतीक है। अतः ओउम वेदों का बीज मंत्र है इसी बीज मंत्र से सृष्टि की उत्पत्ति मानी गयी है और इसी से नाद की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार शब्द और स्वर दोनों की उत्पत्ति ओउम से ही मानी गयी है। मनु का कथन है कि, ” ऋग्वेद,सामवेद व यजुर्वेद में अ,उ, म में तीन अक्षर मिलकर प्रणव बना, श्रुतिस्मृति के अनुसार यह प्रणव ही परमात्मा का अति सुन्दर नाम है। ”
ओउम ही संगीत के जन्म का मुख्य आधार है, यह सत्य तो पाश्चात्य विद्वान् भी मानते है इन्होने ओउम शब्द को एक विशेष शक्ति के रूप में माना है एवं इस शब्द के बोलने से शरीर में एक विशेष प्रकार का स्पंदन होता है। ओउम की साधना से संगीत का समस्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, क्योकि इसमें स्वर, लय, ताल तीनों का समावेश है। एकमात्र शब्दमय साक्षात् शब्द ब्रम्ह ओउम ही है।
ब्रम्ह स्वर व नाद शब्द दोनों का ही उद्गम ओउम के गर्भ से ही हुआ है। सर्वप्रथम स्वर निकले, सत्यता यही मानी जा सकती है कि यह ओउम शब्द ही संगीत के जन्म का कारण है आध्यात्मिक विद्वानों के मत से जिस प्रकार ब्रम्हा जी के बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती है उसी प्रकार वैज्ञानिकों के मतानुसार नाद के बिना सृष्टि की कल्पना करना असंभव है। अतः सम्पूर्ण सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में संगीत की अखंड धारा सदियों से प्रवाहित है और सदैव रहेगी।
हमारे ही देश में देव-देवी को संगीत का प्रेरक माना हो, ऐसी बात नहीं है। यूरोप में भी यह विश्वास रहा है। यूरोप, अरब, फारस में जो संगीत के लिए शब्द हैं उस पर ध्यान देने से इसका रहस्य प्रकट हो जाएगा। संगीत के लिए यूनानी भाषा में शब्द है ‘ मौसीक़ी ‘ , लैटिन में मुसिका, फ्रांसीसी में मुसीक, पोर्तुगी में मुसिका, जर्मन में मूसिक,अंग्रेजी में म्यूजिक, इब्रानी, अरबी और फ़ारसी में मौसिकी। इन शब्दों में साम्य है। ये सभी शब्द यूनानी भाषा के ‘ म्यूज ‘ शब्द से बने है। ‘ म्यूज ‘ यूनानी परंपरा में काव्यऔर संगीत की देवी मानी गई है। कोष में ‘ म्यूज ‘ शब्द का अर्थ दिया गया है ‘ दि इंस्पायरिंग गॉडेस ऑफ़ सांग ‘ अर्थात ‘ गान की प्रेरक देवी ‘ यूनान की परंपरा में ‘ म्यूज ‘ ‘ ज्यौँस ‘ की कन्या मानी गयी है। ‘ ज्यौँस ‘ शब्द संस्कृत के ‘ द्यौंस ‘ का ही रूपांतर है जिसका अर्थ है ‘ स्वर्ग ‘।‘ ज्यौँस ‘ और ‘ म्यूज ‘ की धारणा ब्रम्हा और सरस्वती से बिलकुल मिलती-जुलती है। अतः यह बात नहीं है कि भारत के ही आचार्यों ने देव-देवी को संगीत का आदि प्रेरक माना गया है, सारे जगत का यही विश्वास रहा है।
इन दिव्य शक्तियों के अतिरिक्त गन्धर्व स्वर्ग के संगीतकार माने गए है। इनमें भी मानव को संगीत की प्रेरणा मिली है। संगीत-शास्त्र में नारद जी गन्धर्वों में से स्मरण किये गए हैं। यह वीणा के अविष्कारक माने गए हैं और नर और देव के बीच के दूत। ऐसा विश्वास रहा है कि शिव, ब्रम्हा, सरस्वती इत्यादि से पहले नारद ने संगीत सीखा और नारद के द्वारा यह कला भूलोक में आई।
किन्नर भी गन्धर्वों में से स्मरण किये गए हैं। ‘ किन्नर ‘ की व्युत्पत्ति है ‘ किम नरः ‘ अर्थात क्या नर है अथवा यह कैसा नर है ? ‘ किन्नर ‘ का पर्यायवाची है ‘ किम्पुरुष ‘ जी कि उपर्युक्त व्युत्पत्ति की पूर्ण रूप से पुष्टि करता है। संसार भर का यह पौराणिक विश्वास रहा है कि किन्नर या गन्धर्व का शरीर तो मनुष्य से मिलता है और शिर अश्व से अथवा शिर मनुष्य से मिलता है और शरीर अश्व से। किन्नर और गन्धर्व मानव और देव के बीच के कोई प्राणी माने गए है। किन्नर और गन्धर्व से मिलते-जुलते संसार की और भाषाओं में भी शब्द मिलते हैं जो कि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से किन्नर और गन्धर्व के रूपांतर मात्र हैं। उदाहरणार्थ, गन्धर्व को यूनानी भाषा में केंटार कहते हैं जिसका वर्ण-विन्यास लैटिन में कंतौर हो गया है। अवेस्ता और प्राचीन ईरानी भाषा में इन्हें गंदरव और तमिल में कुदिराई कहते हैं। तमिल में ‘ कुदिराइ ‘ शब्द का अर्थ होता है ‘ अश्व ‘।
इन सभी विश्वासों का मथितार्थ यही है कि संगीत-कला स्वर्गीय है, दिव्य है और दैवी शक्ति की प्रेरणा से ही यह भूलोक में उतरी है। यहाँ तक कि भारत में जिन लोगों ने संगीत कला के रूप में अपने जीवन में अपनाया वे सब भी गन्धर्व कहलाने लगे। उनकी विद्या का नाम पड़ा गन्धर्व-वेद और कला का गान्धर्व।
गान्धर्व-कला में गीत सबसे प्रधान रहा है। आदि में ज्ञान था। वाद्य का निर्माण पीछे हुआ। गीत की प्रधानता रही। यही कारण है कि चाहे गीत हो, चाहे वाद्य, सबका नाम ‘ संगीत ‘ पड गया। पीछे से नृत्य का भी अंतर्भाव हो गया। संसार की जितनी आर्य भाषाएँ हैं उनमें संगीत शब्द अच्छे प्रकार के गाने के अर्थ में मिलता है। ‘ संगीत ‘ शब्द ‘ सम + गै ‘ धातु से बना है। और भाषाओं में ‘ सं ‘ का ‘ सिं ‘ हो गया है और । ‘ गै ‘ या ‘ गा ‘ धातु ( जिसका भी अर्थ गाना होता है ) किसी न किसी रूप में इसी अर्थ में अन्य भाषाओं में भी वर्तमान है। ऐंग्लोसेक्शन में इसका रूपांतर है ‘ सिंगन ‘ जो कि आधुनिक अंग्रेजी में हो गया है ‘ सिंग ‘; आइसलैंड की भाषा में इसका रूप है सिंग ( केवल वर्ण विन्यास में अंतर आ गया है ); डैनिश भाषा में है ‘ सिंग ‘; डच में है ‘ सिंगन ‘; जर्मन में है ‘ सिंगन ‘। अरबी में गाना शब्द है जो ‘ गान ‘ से पूर्णतः मिलता है।
यह सब ‘ सं गै ‘ या ‘ सं गा ‘ के रूपांतर हैं। संसारभर की मुख्य भाषाओं के एक ही समानार्थक शब्द का इतना साम्य कोई आकस्मिक घटना नहीं है। यह इस तथ्य को सिद्ध करता है कि मानव में संगीत या संगान पहले गीत या गान के रूप में प्रकट हुआ। वाद्य इत्यादि का पीछे प्रादुर्भाव हुआ।
उपरोक्त लेख में हमने देखा कि संगीत कला के रूप में दैवी प्रेरणा से मानव में उद्भूत हुआ और इस कला का आदि रूप गीत या गान था। आगे आने वाले लेखों में काल की दृष्टि से भारतीय संगीत-कला के क्रम-बद्ध इतिहास को बतलाने का प्रयत्न करेंगे।