उर्दू शायरी में ‘ख़्वाब’: 1

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

अगर ख़्वाब नहीं होते तो शायद हम इंसान भी नहीं होते। आदमी ख़्वाब देखता है लेकिन जानवर कभी ख़्वाब नहीं देखते। आदमी और जानवर के बीच सिर्फ़ ‘ख़्वाब’ ही मौजूद हैं। हर तरक्की के पीछे हमेशा किसी का कोई ख़्वाब ही पोशीदा है।

धरती पर सृष्टि के जन्म लेने से आज तक के सफ़र में करोड़ों अरबों ख़्वाब हैं जो लोगों की आँखों के समंदर में किसी किश्ती कि तरह तैरे और जिसमें से कुछ को तो किनारा मिला और बाकी को समंदर निगल गया। 

हर ख़्वाब की अपनी हक़ीक़त है। या यू़ँ कहें कि ख़्वाब ताबीर के पहले की हक़ीक़त है जिसे सिर्फ़ ख़्वाब देखने वाला ही समझता है। ज़िंदगी भी खुद में सिर्फ़ ख़्वाब है क्योंकि ख़्वाबों के बिना ज़िंदगी एक इंच भी आगे नहीं सरकती। जिस तरह किसी गाड़ी को आगे बढ़ने के लिये ईंधन की ज़रूरत होती है, ज़िंदगी को ख़्वाबों की।

भला वो भी क्या आँखें हैं जिनकी गहराई में कोई ख़्वाब ही नही। कभी-कभी नींद का ख़्वाबों से कोई रिश्ता ही नहीं होता। पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम तो यही कहते हैं। क्या खूब कहा है परम आदरणीय डॉ कलाम ने – ‘ख़्वाब वे नहीं होते हैं जिन्हें आप सोते हुये देखते हैं। वास्तव में ख़्वाब वे होते हैं जो आपको सोने नहीं देते।’

आदमी होने की पहली और आख़िरी शर्त सिर्फ़ ख़्वाब यानी सपना ही है। हमारे सपनों की तासीर ही बताती है कि हमारे अंदर कितनी आदमियत बाकी है। अच्छे-बुरे, प्यारे-डरावने, खूबसूरत-बदसूरत, हक़ीक़त जैसे ख़्वाब और ख़्वाब जैसी हक़ीक़त, वगैरह वगैरह यानी कुल मिला हमारी दुनिया की तरह ख़्वाबों की भी एक अपनी ही दुनिया है और अक्सर रातों को उस दुनिया का सदर दरवाज़ा खुल जाता है और हम सब अपनी नींद में तैरते हुये उस दुनिया की सैर करते हैं। हमें ख़्वाबों की ज़रूरत है तो ख़्वाबों को भी हमारी ज़रूरत है। ख़्वाब अगर उस दुनिया के हैं तो उन ख़्वाबों को देखने वाली आँखें हमारी हक़ीक़ी दुनिया की है।

यूँ ही ख़याल आया कि क्यूं न अपने तसव्वुर के तिलिस्म से सबको बाँध देने वाले शायरों की आँखों से ख़्वाब देखे जायें और फिर इसी सोच पर आलेख की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी। किसी दूसरे की आँखों से ख़्वाब देखना और वह भी उसकी यानी शायरों की आँखों से ख़्वाब देखना जो वह भी देख लेता है जो सबको नहीं दिखाई देता – निश्चित ही यह सोचना भी रोमांचित करता है। तो चलिये, आपके साथ हम सब चलते हैं इस रोमांचक लेकिन बला के खूबसूरत सफ़र पर और इस बार पड़ताल करते हैं उर्दू शायरी में ‘ख़्वाब’ की। 

और हाँ, एक और बात को समझना बहुत ज़रूरी है कि जब ढेर सारे शायर हों तो उन्हें एक क्रम तो देना ही पड़ता है। किसी शायर की वरिष्ठता अथवा श्रेष्ठता तय करने की न तो मुझमें योग्यता ही है और न ही कभी मैंने इसका प्रयास ही किया है। मुझे तो सारे शायर दिल से पसंद हैं और मेरे लिये गुलाब और रातरानी, दोनों की खुश्बू दिल को सुकूं पहुँचाने वाली हैं। मैंने मात्र अपनी व पाठकों की सुविधा की दृष्टि से शायरों का क्रम उनकी जन्मतिथि के आधार पर रखने का प्रयास किया है। ये सूचनायें भी मैंने उपलब्ध पुस्तकों व सूचना के अन्य स्रोतों जैसे इंटरनेट पर उपलब्ध विवरण से प्राप्त की हैं इसलिये यदि सूचनाओं का कोई विवरण अथवा उसका कोई अंश गलत है तो मैं उसके लिये आपसे प्रारंभ में ही क्षमाप्रार्थी हूँ और आपसे निवेदन है कि यदि आपके पास प्रमाणिक सत्य सूचना है तो कृपया मुझसे अवश्य शेयर करें ताकि ऐसी त्रुटि का सुधार किया जा सके। कुछ पुराने शायरों व अनेक नये शायरों की जन्मतिथि उपलब्ध न होने के कारण उन्हें क्रम में समुचित स्थान मैंने स्वयं ही दिया है जिसका आधार मेरी अपनी सुविधा मात्र है। सत्यता यह है कि मेरी स्पष्ट धारणा हेै कि प्रत्येक शायर व फ़नकार स्वयं में अनूठा है और उस जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।

 

तो आइये, यह सफ़र शुरू करते हैं।

 

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम का जन्म वर्ष 1699 में हुआ और वर्ष 1783 में दिल्ली में उनका इंतकाल हो गया। वे अपने समय के मशहूर शायर थे। ‘दीवान-ए-ज़ादा’ और ‘दीेवान-ए-हातिम’ उनके प्रमुख दीवान हैं। लोग कहते हैं कि नींद में ख़्वाब आते हैं लेकिन किसी का इंतज़ार ख़्वाब में भी नींद को पास फटकने नहीं देता है। क्या खूबसूरत अंदाज़ है ऐसे ख़्वाब का, ज़रा देखिये तो – 

 

मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल,

हैरत में हूँ ये किस का मुझे इंतिज़ार है।” 

 

और यह शेर भी –

 

“इश्क़ उस का आन कर यक-बारगी सब ले गया, 

जान से आराम सर से होश और चश्मों से ख़्वाब।”

मीर तक़ी मीर का जन्म वर्ष 1723 में आगरा में हुआ और उनका इंतक़ाल वर्ष 1810 में लखनऊ में हुआ। वे अट्ठारहवीं सदी के प्रमुख मुग़लकालीन शायर थे और कहा जाता है कि उर्दू ज़ुबान की मरम्मत कर उसे लोकप्रिय ज़ुबान बनाने में उनकी बहुत अहम भूमिका थी। उनका असली नाम मोहम्मद तक़ी था। उनकी शायरी उर्दू की तिलस्माती शायरी भी कही जाती है। यहाँ तक कहा जाता है कि उनके शेरों में एक विशेष ध्वनिक वातावरण उत्पन्न करने की शक्ति है। उनके ग़ज़लों के छह संग्रह हैं जो यकजाई रूप में ‘कुल्लियात-ए-मीर’ नाम से जाना जाता है। ख़्वाब पर उनका एक खूबसूरत शेर –

 

सुनते ही नाम उस का सोते से चौंक उठ्ठे, 

है ख़ैर ‘मीर’-साहिब कुछ तुम ने ख़्वाब देखा।” 

मीर मोहम्मदी बेदार का जन्म वर्ष 1732 में तथा मृत्यु वर्ष 1796 में हुई। ‘दीवान-ए-बेदार’ उनका संग्रह है। तसव्वुर व ख़्वाब में अंतर है। तसव्वुर व्यक्ति चेतन अवस्था में करता है जबकि ख़्वाब अचेतन अवस्था के हिस्से आते हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है –

 

हैं तसव्वुर में उस के आँखें बंद, 

लोग जानें हैं ख़्वाब करता हूँ।”

नज़ीर अकबराबादी का जन्म वर्ष 1735 में एवं मृत्यु वर्ष 1830 में हुई। वे मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन व अग्रणी शायर थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति और त्योहारों पर नज्में लिखीं। वे होली, दीवाली व श्रीकृष्ण पर नज़्मों के लिए मशहूर हैं। जब शायरी क़सीदाकारी या महबूब की गुफ़्तगू तक मजफ़ूज़ थी, उन्होंने आम आदमी की ज़िंदगी पर अपनी कलम चलाई और यह बात उन्हें दूसरों से अलग करती है। ख़्वाब पर उनका एक शेर हाज़िर है –

 

ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है, 

खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना।”

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी का जन्म वर्ष 1747 में व निधन वर्ष 1824 में हुआ। वे लखनऊ स्कूल के 18वीं सदी के महान् शायरों में एक थे व मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन थे। ख़्वाब पर उनका खूबसूरत शेर देखिये –

 

तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम, 

नमाज़-ए-सुब्ह को किस तरह वो क़ज़ा न करे।” 

जुरअत क़लंदर बख़्श का जन्म वर्ष 1748 में दिल्ली में हुआ था लेकिन उनकी शिक्षा पहले फ़ैज़ाबाद में हुई तथा बाद में वे लखनऊ में बस गये जहाँ उनकी मृत्यु वर्ष 1809 में हुई। वे अपने समय के बड़े शायर थे। यह वह समय था जब उर्दू व स्थानीय बोली से ‘हिंदवानी’ का स्वरूप आकार ले रहा था। बिना महबूब को देखे बिना न दर्द दूर होता है न बेचैनी चाहे वह ख़्वाब में क्यों न दिखे लेकिन ये ख़्वाब भी तो आने से रहे। देखिये उनका यह शेर –

 

बिन देखे उस के जावे रंज ओ अज़ाब क्यूँ कर। 

वो ख़्वाब में तो आवे पर आवे ख़्वाब क्यूँ कर।।” 

हैदर अली आतिश का जन्म वर्ष 1778 में लखनऊ में हुआ और वर्ष 1847 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे और 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़लगो में वे प्रमुख थे। उनका एक बहुत मशहूर शेर ‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला’ आज भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। ख़्वाब मदहोशी के आलम में दिखाई देते हैं। इन्हें सजग रहते हुये नहीं देखा जा सकता। देखिये उनका एक शेर – 

 

आसार-ए-इश्क़ आँखों से होने लगे अयाँ, 

बेदारी की तरक़्क़ी हुई ख़्वाब कम हुआ।” 

 

और एक शेर यह भी –

 

ज़ियारत (दर्शन) होगी काबे की यही ताबीर है इस की, 

कई शब से हमारे ख़्वाब में बुत-ख़ाना आता है ।”

 

‘ज़ियारत’ का अर्थ है – दर्शन।

शेख़ इब्राहीम ‘ज़ौक़’ का जन्म 22 अगस्त, 1790 को हुआ और 16 नवंबर, 1854 में उनकी मृत्यु हुई। वे आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के उस्ताद थे और उन्हें राजकवि का ओहदा हासिल था। ‘लाई हयात आये, कज़ा ले चली चले; अपनी खुशी न अाये, न अपनी खुशी चले” जैसी सदाबहार ग़ज़ल कहने वाले ‘ज़ौक’ के ये खूबसूरत अशआर ख़्वाब को यूँ परखते हैं –

 

क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ़ से, 

जो ख़्वाब में भी रात को तन्हा नहीं आता।”

 

और एक यह शेर –

 

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें।

ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें।।” 

 

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