उर्दू शायरी में ‘ख़्वाब’

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप

अगर ख़्वाब नहीं होते तो शायद हम इंसान भी नहीं होते। आदमी ख़्वाब देखता है लेकिन जानवर कभी ख़्वाब नहीं देखते। आदमी और जानवर के बीच सिर्फ़ ‘ख़्वाब’ ही मौजूद हैं।

 

हर तरक्की के पीछे हमेशा किसी का कोई ख़्वाब ही पोशीदा है। धरती पर सृष्टि के जन्म लेने से आज तक के सफ़र में करोड़ों अरबों ख़्वाब हैं जो लोगों की आँखों के समंदर में किसी किश्ती कि तरह तैरे और जिसमें से कुछ को तो किनारा मिला और बाकी को समंदर निगल गया। 

 

हर ख़्वाब की अपनी हक़ीक़त है। या यू़ँ कहें कि ख़्वाब ताबीर के पहले की हक़ीक़त है जिसे सिर्फ़ ख़्वाब देखने वाला ही समझता है। ज़िंदगी भी खुद में सिर्फ़ ख़्वाब है क्योंकि ख़्वाबों के बिना ज़िंदगी एक इंच भी आगे नहीं सरकती। जिस तरह किसी गाड़ी को आगे बढ़ने के लिये ईंधन की ज़रूरत होती है, ज़िंदगी को ख़्वाबों की।

 

भला वो भी क्या आँखें हैं जिनकी गहराई में कोई ख़्वाब ही नही। कभी-कभी नींद का ख़्वाबों से कोई रिश्ता ही नहीं होता। पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम तो यही कहते हैं। क्या खूब कहा है परम आदरणीय डॉ कलाम ने – ‘ख़्वाब वे नहीं होते हैं जिन्हें आप सोते हुये देखते हैं। वास्तव में ख़्वाब वे होते हैं जो आपको सोने नहीं देते।’

 

आदमी होने की पहली और आख़िरी शर्त सिर्फ़ ख़्वाब यानी सपना ही है। हमारे सपनों की तासीर ही बताती है कि हमारे अंदर कितनी आदमियत बाकी है। अच्छे-बुरे, प्यारे-डरावने, खूबसूरत-बदसूरत, हक़ीक़त जैसे ख़्वाब और ख़्वाब जैसी हक़ीक़त, वगैरह वगैरह यानी कुल मिला हमारी दुनिया की तरह ख़्वाबों की भी एक अपनी ही दुनिया है और अक्सर रातों को उस दुनिया का सदर दरवाज़ा खुल जाता है और हम सब अपनी नींद में तैरते हुये उस दुनिया की सैर करते हैं। हमें ख़्वाबों की ज़रूरत है तो ख़्वाबों को भी हमारी ज़रूरत है। ख़्वाब अगर उस दुनिया के हैं तो उन ख़्वाबों को देखने वाली आँखें हमारी हक़ीक़ी दुनिया की है।

 

यूँ ही ख़याल आया कि क्यूं न अपने तसव्वुर के तिलिस्म से सबको बाँध देने वाले शायरों की आँखों से ख़्वाब देखे जायें और फिर इसी सोच पर आलेख की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी। किसी दूसरे की आँखों से ख़्वाब देखना और वह भी उसकी यानी शायरों की आँखों से ख़्वाब देखना जो वह भी देख लेता है जो सबको नहीं दिखाई देता – निश्चित ही यह सोचना भी रोमांचित करता है। तो चलिये, आपके साथ हम सब चलते हैं इस रोमांचक लेकिन बला के खूबसूरत सफ़र पर और इस बार पड़ताल करते हैं उर्दू शायरी में ‘ख़्वाब’ की। 

 

और हाँ, एक और बात को समझना बहुत ज़रूरी है कि जब ढेर सारे शायर हों तो उन्हें एक क्रम तो देना ही पड़ता है। किसी शायर की वरिष्ठता अथवा श्रेष्ठता तय करने की न तो मुझमें योग्यता ही है और न ही कभी मैंने इसका प्रयास ही किया है। मुझे तो सारे शायर दिल से पसंद हैं और मेरे लिये गुलाब और रातरानी, दोनों की खुश्बू दिल को सुकूं पहुँचाने वाली हैं। मैंने मात्र अपनी व पाठकों की सुविधा की दृष्टि से शायरों का क्रम उनकी जन्मतिथि के आधार पर रखने का प्रयास किया है। ये सूचनायें भी मैंने उपलब्ध पुस्तकों व सूचना के अन्य स्रोतों जैसे इंटरनेट पर उपलब्ध विवरण से प्राप्त की हैं इसलिये यदि सूचनाओं का कोई विवरण अथवा उसका कोई अंश गलत है तो मैं उसके लिये आपसे प्रारंभ में ही क्षमाप्रार्थी हूँ और आपसे निवेदन है कि यदि आपके पास प्रमाणिक सत्य सूचना है तो कृपया मुझसे अवश्य शेयर करें ताकि ऐसी त्रुटि का सुधार किया जा सके। कुछ पुराने शायरों व अनेक नये शायरों की जन्मतिथि उपलब्ध न होने के कारण उन्हें क्रम में समुचित स्थान मैंने स्वयं ही दिया है जिसका आधार मेरी अपनी सुविधा मात्र है। सत्यता यह है कि मेरी स्पष्ट धारणा हेै कि प्रत्येक शायर व फ़नकार स्वयं में अनूठा है और उस जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता।

 

तो आइये, यह सफ़र शुरू करते हैं।

 

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम का जन्म वर्ष 1699 में हुआ और वर्ष 1783 में दिल्ली में उनका इंतकाल हो गया। वे अपने समय के मशहूर शायर थे। ‘दीवान-ए-ज़ादा’ और ‘दीेवान-ए-हातिम’ उनके प्रमुख दीवान हैं। लोग कहते हैं कि नींद में ख़्वाब आते हैं लेकिन किसी का इंतज़ार ख़्वाब में भी नींद को पास फटकने नहीं देता है। क्या खूबसूरत अंदाज़ है ऐसे ख़्वाब का, ज़रा देखिये तो – 

 

मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल,

हैरत में हूँ ये किस का मुझे इंतिज़ार है।” 

 

और यह शेर भी –

 

“इश्क़ उस का आन कर यक-बारगी सब ले गया, 

जान से आराम सर से होश और चश्मों से ख़्वाब।”

 

मीर तक़ी मीर का जन्म वर्ष 1723 में आगरा में हुआ और उनका इंतक़ाल वर्ष 1810 में लखनऊ में हुआ। वे अट्ठारहवीं सदी के प्रमुख मुग़लकालीन शायर थे और कहा जाता है कि उर्दू ज़ुबान की मरम्मत कर उसे लोकप्रिय ज़ुबान बनाने में उनकी बहुत अहम भूमिका थी। उनका असली नाम मोहम्मद तक़ी था। उनकी शायरी उर्दू की तिलस्माती शायरी भी कही जाती है। यहाँ तक कहा जाता है कि उनके शेरों में एक विशेष ध्वनिक वातावरण उत्पन्न करने की शक्ति है। उनके ग़ज़लों के छह संग्रह हैं जो यकजाई रूप में ‘कुल्लियात-ए-मीर’ नाम से जाना जाता है। ख़्वाब पर उनका एक खूबसूरत शेर –

 

सुनते ही नाम उस का सोते से चौंक उठ्ठे, 

है ख़ैर ‘मीर’-साहिब कुछ तुम ने ख़्वाब देखा।” 

 

मीर मोहम्मदी बेदार का जन्म वर्ष 1732 में तथा मृत्यु वर्ष 1796 में हुई। ‘दीवान-ए-बेदार’ उनका संग्रह है। तसव्वुर व ख़्वाब में अंतर है। तसव्वुर व्यक्ति चेतन अवस्था में करता है जबकि ख़्वाब अचेतन अवस्था के हिस्से आते हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है –

 

हैं तसव्वुर में उस के आँखें बंद, 

लोग जानें हैं ख़्वाब करता हूँ।”

 

नज़ीर अकबराबादी का जन्म वर्ष 1735 में एवं मृत्यु वर्ष 1830 में हुई। वे मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन व अग्रणी शायर थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति और त्योहारों पर नज्में लिखीं। वे होली, दीवाली व श्रीकृष्ण पर नज़्मों के लिए मशहूर हैं। जब शायरी क़सीदाकारी या महबूब की गुफ़्तगू तक मजफ़ूज़ थी, उन्होंने आम आदमी की ज़िंदगी पर अपनी कलम चलाई और यह बात उन्हें दूसरों से अलग करती है। ख़्वाब पर उनका एक शेर हाज़िर है –

 

ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है, 

खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना।”

 

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी का जन्म वर्ष 1747 में व निधन वर्ष 1824 में हुआ। वे लखनऊ स्कूल के 18वीं सदी के महान् शायरों में एक थे व मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन थे। ख़्वाब पर उनका खूबसूरत शेर देखिये –

 

तू जिस के ख़्वाब में आया हो वक़्त-ए-सुब्ह सनम, 

नमाज़-ए-सुब्ह को किस तरह वो क़ज़ा न करे।” 

 

 

जुरअत क़लंदर बख़्श का जन्म वर्ष 1748 में दिल्ली में हुआ था लेकिन उनकी शिक्षा पहले फ़ैज़ाबाद में हुई तथा बाद में वे लखनऊ में बस गये जहाँ उनकी मृत्यु वर्ष 1809 में हुई। वे अपने समय के बड़े शायर थे। यह वह समय था जब उर्दू व स्थानीय बोली से ‘हिंदवानी’ का स्वरूप आकार ले रहा था। बिना महबूब को देखे बिना न दर्द दूर होता है न बेचैनी चाहे वह ख़्वाब में क्यों न दिखे लेकिन ये ख़्वाब भी तो आने से रहे। देखिये उनका यह शेर –

 

बिन देखे उस के जावे रंज ओ अज़ाब क्यूँ कर। 

वो ख़्वाब में तो आवे पर आवे ख़्वाब क्यूँ कर।।” 

 

हैदर अली आतिश का जन्म वर्ष 1778 में लखनऊ में हुआ और वर्ष 1847 में उनकी मृत्यु हो गयी। वे मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे और 19वीं सदी की उर्दू ग़ज़लगो में वे प्रमुख थे। उनका एक बहुत मशहूर शेर ‘बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला’ आज भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। ख़्वाब मदहोशी के आलम में दिखाई देते हैं। इन्हें सजग रहते हुये नहीं देखा जा सकता। देखिये उनका एक शेर – 

 

आसार-ए-इश्क़ आँखों से होने लगे अयाँ, 

बेदारी की तरक़्क़ी हुई ख़्वाब कम हुआ।” 

 

और एक शेर यह भी –

 

ज़ियारत (दर्शन) होगी काबे की यही ताबीर है इस की, 

कई शब से हमारे ख़्वाब में बुत-ख़ाना आता है ।”

 

‘ज़ियारत’ का अर्थ है – दर्शन।

 

शेख़ इब्राहीम ‘ज़ौक़’ का जन्म 22 अगस्त, 1790 को हुआ और 16 नवंबर, 1854 में उनकी मृत्यु हुई। वे आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के उस्ताद थे और उन्हें राजकवि का ओहदा हासिल था। ‘लाई हयात आये, कज़ा ले चली चले; अपनी खुशी न अाये, न अपनी खुशी चले” जैसी सदाबहार ग़ज़ल कहने वाले ‘ज़ौक’ के ये खूबसूरत अशआर ख़्वाब को यूँ परखते हैं –

 

क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ़ से, 

जो ख़्वाब में भी रात को तन्हा नहीं आता।”

 

और एक यह शेर –

 

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें।

ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें।।” 

 

महान् शायर मिर्ज़ा ग़ालिब से भला कौन नही परिचित है। उनका मूल नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान था और उनका जन्म 27 दिसंबर, 1797 में आगरा में हुआ और उनका इंतक़ाल 15 फरवरी, 1869 में दिल्ली में हुआ। ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ उर्दू शायरी का सबसे मशहूर दीवान है। मिर्ज़ा ग़ालिब के अशआरों की लोकप्रियता की यह स्थिति है कि उनके तमाम अशआर मुहावरों और कहावतों की तरह आम आदमी की ज़ुबान पर चस्पा हो गये हैं और ज़िन्दगी की लगभग हर परिस्थिति में उनका कोई न कोई शेर पूरी समग्रता के साथ मौजूद है। ग़ालिब एक ऐसे शायर हैं जो राजा से लेकर प्रजा तक में समान रूप से मशहूर और मक़बूल हैं। ग़ालिब की ग़ज़लें आज उर्दू शायरी के मानक के रूप में देखीं जाती हैं और यह किसी भी शायर के इल्म के लिये सबसे बड़ा सम्मान है। ख़्वाब ग़ालिब का भी पसंदीदा विषय है। आइये, ख़्वाब पर उनके कुछ अशआर से मुलाकात करते हैं – 

 

या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो, 

ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे” 

 

और एक ये शेर –

 

“ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर,

आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में।” 

 

और एक शेर ये भी –

 

है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद, 

हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में।”

 

 

लाला माधव राम जौहर का जन्म वर्ष 1810 में और उनका निधन वर्ष 1890 में हुआ। उनका फ़र्रुख़ाबाद (उ॰प्र॰) के एक दौलतमंद घराने से संबंध था जहाँ उनकी कोठी पर शायरों का जमघट रहा करता था। बाद में वे आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ के दरबार में एक सम्मानित पद पर रहे। आज़ादी की पहली जंग लड़ने वालों का साथ देने के लिए उनकी जायदाद ज़ब्त कर ली गई। उनके बहुत से अशआर आम लोगों के बीच मुहावरों की शक्ल में घुल-मिल गये हैं। ख़्वाब पर उनके ये अशआर देखिये –

 

ख़्वाब में नाम तिरा ले के पुकार उठता हूँ, 

बे-ख़ुदी में भी मुझे याद तिरी याद की है।” 

 

एक और यह शेर भी –

 

दिल मिरा ख़्वाब-गाह-ए-दिलबर है,

बस यही एक सोने का घर है ।”

 

आग़ा हज्जू शरफ़ का जन्म वर्ष 1812 एवं मृत्यु वर्ष 1887 में हुई। वे लखनऊ के अहम क्लासिकी शायर थे। वे आतिश के शागिर्द थे तथा लखनऊ पर लिखी अपनी लम्बी मसनवी ‘अफ़साना-ए-लखनऊ’ के लिए मशहूर हैं। ‘अफ़साना-ए-लखनऊ’ व ‘दीवान-ए-शरफ़’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनके कुछ अशआर –

 

कभी जो यार को देखा तो ख़्वाब में देखा,

मिरी मुराद भी आई तो मुस्तआर आई।”

 

‘मुस्तआर’ का अर्थ है – मांगी हुई।

 

और एक यह शेर भी –

 

नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से, 

ख़ुशी के ख़्वाब भी देखें तो बे-ताबीर होते हैं।” 

 

‘आलम-ए-रूया’ का अर्थ है – स्वप्न की दुनिया।

 

तअ’श्शुक़ लखनवी का असली नाम सय्यद मिरजा़ उर्फ़ सय्यद साहब था।  वे वर्ष 1824 में पैदा हुये और वर्ष 1892 में उनकी मृत्यु हुई। वे मर्सिये के सबसे बड़े शायर मीर ‘अनीस’ के पोते थे जिन्होंने मर्सिये और ग़ज़ल दोनों विधाओं में अपनी एक ख़ास पहचान बनाई। उनकी शायरी में ज़बान की सफ़ाई और चुस्ती दूर ही से नज़र आती है। ‘अफ़कार-ए-तअ’श्शुक़’ और ‘दीवान-ए- तअ’श्शुक़’ उनकी पुस्तकें हैं। शब-ए-फ़ुर्कंत को वही समझ सकता है जो यक़ीनी तौर पर हक़ीक़ी दुनिया में जी रहा हो। देखिये उनका खूबसूरत शेर –

 

हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी,

सब ख़्वाब में थे रात को बेदार हमीं थे।”

 

ज़हीर देहलवी का असली नाम सय्यद मोहम्मद ज़हीरुद्दीन ख़ान था और उनका जन्म वर्ष 1825 में दिल्ली में हुआ था एवं उनकी मृत्यु 18 मार्च,1911 में हुई। अनवर देहलवी उनके भाई तथा शेख़ इब्राहीम ‘ज़ौक़’ उनके उस्ताद थे। ‘अट्ठारह सौ सत्तावन’ व ‘दास्तान-ए-गदर’ उनकी पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनका यह शेर देखिये –

 

चौंक पड़ता हूँ ख़ुशी से जो वो आ जाते हैं, 

ख़्वाब में ख़्वाब की ताबीर बिगड़ जाती है।”

 

अमीर मीनाई का जन्म 21 फरवरी, 1829 में लखनऊ में हुआ और बाद में वे हैदराबाद में क़याम करने लगे जहाँ उनका इंतक़ाल 13 अक्टूबर, 1900 में हुआ। वे दाग़ देहलवी के समकालीन थे । वे अपनी ग़ज़ल ‘सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता’ के लिए भी प्रसिद्ध हैं। ख़्वाब में भी कभी-कभी नसीब जाग उठते हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है ख़्वाब पर –

 

रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल,

मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया।”

 

‘बख़्त’ का अर्थ है – भाग्य।

 

बयान मेरठी का जन्म वर्ष 1840 में तथा मृत्यु वर्ष 1900 में हुई। वे  मेरठ, भारत के बाशिंदे थे। वे दाग़ के समकालीन थे और उन्होंने उर्दू और फ़ारसी में शायरी की। आधुनिक शायरी के आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने आधुनिक अंदाज़ की नज़्में भी लिखीं। सच है, आने के तो कई तरीक़े हैं बशर्ते कोई आना तो चाहे –

 

याद में ख़्वाब में तसव्वुर में, 

आ कि आने के हैं हज़ार तरीक़।”

 

जलील मानिकपूरी का जन्म वर्ष 1866 में हुआ और वर्ष 1946 में उनका निधन हो गया। वे उत्तर क्लासिक शायरों में सबसे प्रमुख व लोकप्रिय थे। वे उस्ताद शायर अमीर मीनाई के शागिर्द थे और दाग़ देहलवी के बाद वे हैदराबाद के राजकवि भी नियुक्त हुये। ‘क़ासिद-ओ-क़तात’ उनकी मशहूर पुस्तक है। जलील मानिकपुरी की शायरी खुद ब खुद बोलती है और बड़ी सरलता से उनके लफ़्ज़ों से मायने निकल कर दिल-ओ-दिमाग़ तक पहु़ँचते हैं। ज़रा देखिये तो ख़्वाब पर उनके कुछ खूबसूरत अशआर –

 

रोज़ वो ख़्वाब में आते हैं गले मिलने को, 

मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है क़िस्मत मेरी।” 

 

एक शेर यह भी –

 

रात को सोना न सोना सब बराबर हो गया,

तुम न आए ख़्वाब में आँखों में ख़्वाब आया तो क्या।”

 

और यह भी –

 

बनाऊँ किस को शब-ए-ग़म अनीस-ए-तन्हाई, 

कि साथ है मिरी तक़दीर वो भी ख़्वाब में है।”

 

 

हसरत मोहानी एक बेहतरीन शायर के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। हिंदुस्तानी क्रांति को ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा देने वाले हसरत मोहानी को नयी नस्ल उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है’ के हवाले से जानती है। 1 जनवरी, 1875 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद के‌ मोहान नामक स्थान पर जन्मे हसरत मोहानी का निधन 13 मई, 1951 को हुआ। ख़्वाब पर उनका एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

इल्तिफ़ात-ए-यार था इक ख़्वाब-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा 

सच हुआ करती हैं इन ख़्वाबों की ताबीरें कहीं ।

 

फ़ानी बदायूनी का असली नाम शौकत अली ख़ां था। वे पहले शौकत तख़ल्लुस करते थे लेकिन बाद में फ़ानी बदायूनी के नाम से शायरी की। उनका जन्म 13 सितंबर, 1879 को में बदायू (उत्तर प्रदेश) में हुआ और 27 अगस्त, 1961 को उनका निधन हैदराबाद में हुआ। फ़ानी की शायरी इश्क़, ग़म, तसव्वुफ़ और सृष्टि के रहस्य के इर्द-गिर्द घूमती दिखाई देती है। ख़्वाब पर उनका यह शेर देखिये जो इस क़दर मक़बूल हुआ कि मुहावरा ही बन गया –

 

इक मुअम्मा है समझने का न समझाने का, 

ज़िंदगी काहे को है, ख़्वाब है दीवाने का।”

 

असग़र गोंडवी का असली नाम असग़र हुसैन था। उनका जन्म 01 मार्च, 1884 को गोरखपुर में हुआ था और मृत्यु 30 नवंबर गोंडा में हुई। उनकी शायरी में वस्ल की ख़ुश्बू व सूफ़ियाना रंग दिखाई देते हैं। ख़्वाब पर उनका एक खूबसूरत शेर देखिये –

 

हल कर लिया मजाज़ हक़ीक़त के राज़ को, 

पाई है मैं ने ख़्वाब की ताबीर ख़्वाब में।” 

 

सिराज लखनवी का मौलिक नाम सिराजुल हसन था और वे वर्ष 1894 में लखनऊ में पैदा हुए। उनकी शायरी में रचनात्मक बोध उनके कालखंड से बहुत आगे का दिखाई देता है। ‘शोला-ए-आवाज़’ उनका दीवान है। उनकी  मृत्यु वर्ष 1960 में हुई। ख़्वाब के बाद की बेचारगी की ओर इशारा करता उनका यह मशहूर शेर देखिये –

 

आँखें खुलीं तो जाग उठीं हसरतें तमाम,

उस को भी खो दिया जिसे पाया था ख़्वाब में।” 

 

अख़्तर शीरानी का असली नाम मोहम्मद दाउद खाँ था। उनका जन्म 4 मई, 1905 को हिंदुस्तान की पूर्व रियासत टोंक स्टेट में हुआ था और उनकी मृत्यु 9 सितंबर 1948 को लाहौर में हुई। वे सौंदर्य के शायर थे और साथ ही गद्य भी उनका विशिष्ट था। चूँकि उस समय प्रगतिशील उर्दू शायरी का विचार अपनी जड़ें जमाने लगा था और अख़्तर शीरानी की नज़र में शायरी मसाइलों से दो चार होने का नहीं वरन् सौंदर्य के रेखांकन का फ़ार्मेट था, उन्हें उस समय के अलंबरदारों ने उन्हें ‘रूमानियत का शायर’ का तमगा देकर हाशिये पर धकेल दिया। कहा जाता है कि उर्दू में बक़ायदा सानेट लिखने की शुरुआत उन्होंने ने ही की। ‘फूलों के गीत’ व ‘नग़मा-ए-हरम’ उनकी प्रमुख किताबें हैं। उनका निधन मात्र तैंतालिस वर्ष की आयु में 9 सितंबर, 1948 को हो गया। ज़माने की निगाहों के तंज़ से बच कर महबूब से मिलने के लिये सबसे महफ़ूज़ जगह ख़्वाब ही है। देखिये तो भला, क्या फ़रमाते हैं वे भला इस शेर में –

 

“माना कि सब के सामने मिलने से है हिजाब,

लेकिन वो ख़्वाब में भी न आएँ तो क्या करें।”

 

अख्तर अंसारी 1 अक्टूबर, 1909 को बदायूं में पैदा हुये और 5 अक्टूबर, 1988 को उनका निधन हुआ। वे    प्रगतिवादी विचारधारा के महत्वपूर्ण शायर और आलोचक हैं। ‘नग़म-ए-रूह’, ‘आबगीने’, ‘टेढ़ी ज़मीन’, ‘सरवरे जाँ’ (शायरी) ‘अंधी दुनिया और दूसरे अफ़साने’, ‘नाज़ो और दूसरे अफ़साने’ (अफ़साने) ‘हाली और नया तन्कीदी शुऊर’, ‘इफ़ादी अदब’ (आलोचना) वगैरह उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। किसी तसव्वुर को इतनी गहराई से महसूस किया जाये कि वह हक़ीक़त में बोल पड़े, यह हुनर बिरला फ़नकारों में ही होता है और उनका यही फ़न इस शेर में साफ़ दिखाई देता है –

 

हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था, 

अब तक आँखों से ख़ूँ टपकता है।”

 

और एक शेर यह भी –

 

कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं। 

मैं ख़्वाब देख रहा हूँ मुझे जगाओ नहीं।।” 

 

जाँ निसार अख़्तर का जन्म 18 फरवरी, 1914 को ग्वालियर में हुआ। वे मशहूर शायर व फ़िल्मी गीतकार थे।  ‘तनहा सफ़र की रात’ ‘घर आँगन’, ‘पिछले पहर’ आदि उनकी मशहूर किताबें हैं। ‘जाँनिसार अख़्तर : एक जवान मौत’ उनपर संकलित पुस्तक है जिसका संपादन निदा फ़ाज़ली ने किया है। 19 अगस्त, 1976 को उनकी मृत्यु हो गयी। ख़्वाब पर उनके कुछ मशहूर अशआर देखिये –

 

आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे, 

ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं।” 

 

और एक शेर यह भी –

 

कुचल के फेंक दो आँखों में ख़्वाब जितने हैं। 

इसी सबब से हैं हम पर अज़ाब जितने हैं।।” 

 

‘अज़ाब’ का अर्थ है – यातना।

 

शकील बदायुनी का जन्म 3 अगस्त, 1916 को  बदायूं में और निधन 12 अपैल, 1970 को मुबंई में हुआ। वे एक बेहतरीन शायर और कामयाब फिल्मी गीतकार थे। जहाँ मोहब्बत के तरानों जैसे ‘मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम’ में वे बेजोड़ थे वैसे ही भक्ति गीत जैसे ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ में भी अभूतपूर्व थे। ‘धरती को आकाश पुकारे’, ‘दूर कोई गाये’, ‘रानाइयाँ’, ‘रंगीनियाँ’ आदि उनके प्रसिद्ध दीवान हैं। कभी-कभी लगता है कि काश! यह मीठा सा ख़्वाब ताउम्र चलता ही रहे और जब हक़ीक़त से सामना होता है तो बस आँसू ही निकल सकते हैं। ज़रा यह शेर तो देखिये –

 

“क्या हसीं ख़्वाब मोहब्बत ने दिखाया था हमें, 

खुल गई आँख तो ताबीर पे रोना आया।” 

 

अख़्तर होशियारपुरी का वास्तविक नाम अब्दुस्सलाम था। 20 अप्रैल, 1918 में उनका जन्म होशियारपुर, पंजाब में हुआ और उनका निधन 18 मार्च, 2007 को हुआ। वे विभाजन के बाद रावलपिंडी, पाकिस्तान में बस गये। वे पाकिस्तान के ख्यातिप्राप्त शायर हैं और अपने ना’तिया कलाम के लिए भी चर्चित हैं। वे पाकिस्तान सरकार के “तमग़ा-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित हैं। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये – 

 

मैं ने जो ख़्वाब अभी देखा नहीं है ‘अख़्तर’,

मेरा हर ख़्वाब उसी ख़्वाब की ताबीर भी है।” 

 

‘ख़लील’-उर-रहमान ‘आज़मी’ का जन्म 09 अगस्त, 1927 को आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश में एवं निधन 01 जून, 1978 को अलीगढ़, भारत में हुआ। उन्हें उर्दू शायरी की आधुनिक धारा व आलोचना का अग्रणी साहित्यकार माना जाता है। ‘काग़ज़ी पैरहन’, ‘नया अह्‌दनामा’ ‘ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी’ ‘आईनाखाने में’, ‘आसमाँ ऐ आसमाँ’, ‘फ़िक्र-ओ-फ़न’ एवं ‘मुक़दमा क़लाम-ए-आतिश’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। आदमी की बेचारगी तो देखिये, कभी-कभी तो हक़ीक़त तो हक़ीक़त, ख़्वाब भी साथ छोड़ देते हैं। ख़्वाब पर उनके ये अशआर देखिये –

 

नहीं अब कोई ख़्वाब ऐसा तिरी सूरत जो दिखलाए।

बिछड़ कर तुझ से किस मंज़िल पर हम तन्हा चले आए।।”

 

और यह भी –

 

कोई तो बात होगी कि करने पड़े हमें, 

अपने ही ख़्वाब अपने ही क़दमों से पाएमाल।” 

 

‘पाएमाल’ का अर्थ है – कुचलना या बर्बाद करना।

 

रसा चुग़ताई का जन्म अविभाजित भारत में वर्ष 1928 में हुआ था तथा विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गये। उनका असली नाम मिर्ज़ा मुहताशिम अली बेग़ था। उनकी मृत्यु 5 जनवरी, 2018 को कराची में हुई। ‘रेख़्ता’ और ‘तेरा इंतज़ार रहा’ उनके दीवान हैं। ख़्वाब पर उनका खूबसूरत शेर देखिये –

 

उठा लाया हूँ सारे ख़्वाब अपने, 

तिरी यादों के बोसीदा मकाँ से।” 

 

8 मार्च, 1921 में लुधियाना में पैदा होने वाले लाजवाब शायर साहिर लुधियानवी किसी तआर्रुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। यह वही शायर है जिसके लफ़्ज़ों की मिठास, ख़ुश्बू और बुनावट ने एक लंबे समय तक शायरी के दीवानों को मंत्रमुग्ध कर रखा था। फ़िल्मी दुनिया में उनका अमूल्य योगदान है और आज भी उनकी कही कोई ग़ज़ल या गीत कहीं सुनाई पड़ता है तो उसकी मधुरता यह अपने आप ऐलान कर देती है कि वह साहिर की विरासत है। 25 अक्टूबर, 1980 में उनका निधन हो गया। पेश है, ख़्वाब पर उनका यह बेहतरीन शेर –

 

मेरे ख़्वाबों में भी तू मेरे ख़यालों में भी तू, 

कौन सी चीज़ तुझे तुझ से जुदा पेश करूँ।”

 

कृष्णबिहारी ‘नूर’ का जन्म लखनऊ में 8 नवंबर, 1926 को एवं उनका निधन 30 मई, 2003 को हुआ। नूर उर्दू शायरी में ग़ैर मुस्लिम शायरों के उस सर्वोच्च पायदान के शायर हैं जिन्होंने अपने कलाम से न केवल उसकी खूबसूरती ही बढ़ाई बल्कि उर्दू शायरी को और चमक और गहराई भी अता की। ‘फ़िराक़’, ‘आनंद नारायण मुल्ला’ और ‘चक़बस्त’ की श्रृंखला में ‘नूर’ का नाम वास्तव में उर्दू शायरी को भी नूर अता करता है। ‘दुख-सुख’, ‘तपस्या’ और ‘समंदर मेरी तलाश में है’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब के विषय में शायद ही इससे बेहतर कोई शेर हो सकता है –

 

उस तश्नालब की नींद न टूटे दुआ करो,

जिस तश्नालब को ख़्वाब में दरिया दिखाई दे।”

 

मोहम्मद अल्वी का जन्म 10 अप्रैल 1927 को अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ और 29 जनवरी, 2018 को उनकी मृत्यु हुई। 1947 में पहली ग़ज़ल लिखी जिससे उनकी, अपने ढंग की अनोखी शायरी, का सिलसिला चल निकला और उर्दू शायरी में एक नए अध्याय जुड़ा। ‘ख़ाली मकान’, ‘आख़िरी दिन की तलाश’, ‘तीसरी किताब’ और ‘चौथा आस्मान’  आदि उनके दीवान हैं। उनका कविता-समग्र ‘रात इधर-उधर रौशन’ नाम से प्रकाशित है। उनकी ग़ज़लों का लहजा निराला ही है और कभी कभी उनमें वह भाषा दिखाई देती है जिसके प्रयोग से प्रायः उर्दू बचती रही है। यह शेर देखिये –

 

आँखें खोलो ख़्वाब समेटो जागो भी, 

‘अल्वी’ प्यारे देखो साला दिन निकला।” 

 

मुनीर नियाज़ी का जन्म 9 अप्रैल, 1928 को होशियारपुर में हुआ और उनका निधन 26 दिसंबर, 2006 को लाहौर में हुआ। वे एक मशहूर शायर थे और उन्होंने फ़िल्मों के लिये भी गीत लिखे। ‘आग़ाज़-ए-ज़मींस्तान में दुबारा’, ‘छह रंगीन दरवाज़े’, ‘दुश्मनों के दरम्यिान शाम’, ‘एक लम्हा तेज़ सफ़र का’, ‘जंगल में धनक’ और ‘पहली बात ही आख़िरी थी’ आदि उनकी मशहूर किताबें हैं। ख़्वाब महज ख़्वाब ही हैं, ये हक़ीक़त नहीं होते – कुछ ऐसा बताता है उनका ये शेर –

 

ख़्वाब होते हैं देखने के लिए, 

उन में जा कर मगर रहा न करो।” 

 

ज़ेब ग़ौरी वर्ष 1928 में कानपुर में जन्मे और वर्ष 1985 में उनकी‌ मृत्यु हुई। वे भारत में आधुनिक शायरी के अग्रणी शायर थे। ‘चाक’ व ‘ज़र्द ज़रख़ेज़’ उनके चर्चित दीवान है। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर आपके हवाले –

 

टूटती रहती है कच्चे धागे सी नींद,

आँखों को ठंडक ख़्वाबों को गिरानी दे।” 

 

‘गिरानी’ का अर्थ है – भारीपन।

 

प्रोफ़ेसर मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद का जन्म लखनऊ में 17 अक्टूबर, 1929 में हुआ और 16 अपैल  2016 में उनका इंतक़ाल हुआ। वे लखनऊ विश्वविद्यालय में उर्दू के विभागाध्यक्ष भी रहे। वे अदबी दुनिया में अपनी शायरी के साथ स्तरीय मंच संचालन के लिये भी बहुत प्रसिद्ध थे। ‘रक़्स-ए-शरर’ व ‘शहर-ए-अदब’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। ख़्बाब की मासूमियत और मुलामियत ही उसके गहने हैं जबकि हक़ीक़त सदैव ही खुरदुरी और ठोस है। दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। आइये इसी ख़याल पर आधारित उनका यह शेर देखते हैं –

 

ख़्वाब का रिश्ता हक़ीक़त से न जोड़ा जाए। 

आईना है इसे पत्थर से न तोड़ा जाए।।” 

 

अबु मोहम्मद सहर का पूरा नाम अबु मोहम्मद अबुल क़ासिम है। वे वर्ष 1930  में पैदा हुये और वर्ष 2002 में भोपाल, भारत में उनका इंतक़ाल हुआ। वे प्रसिद्ध आलोचक और शायर थे और उन्होंने साहित्यिक आलोचना व शोध से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण पुस्तकें सृजित कीं। ‘बर्ग-ए-ग़ज़ल’ व ‘बर्ग-ए-सहर’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

बला-ए-जाँ थी जो बज़्म-ए-तमाशा छोड़ दी मैं ने। 

ख़ुशा ऐ ज़िंदगी ख़्वाबों की दुनिया छोड़ दी मैं ने।।” 

 

अख़्तर सईद खां 12 अक्टूबर 1930 को भोपाल में पैदा हुए और 10 सितंबर, 2006 को उनकी मृत्यु हुई। अख़्तर सईद की शायरी पारंपरिक और प्रगतिवादी धाराओं के मिश्रण का एक बेहतरीन नमूना है। ‘निगाह’, ‘तर्ज़े दवाम’, ‘सोच के नाम सफ़र’ उनके दीवान हैं। किसी-किसी को ख़्वाबों में अपनी ज़िंदगी मिल जाती है तो किसी-किसी को ज़िंदगी सिर्फ़ ख़्वाब ही दिखाती रह जाती हेै। यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी, 

तू ने ख़्वाबों के सिवा मुझ को दिया भी क्या है।”

 

अहमद फ़राज़ 12 जनवरी, 1931 में कोहाट के एक प्रतिष्ठित सादात परिवार में पैदा हुए। उनका मूल नाम सैयद अहमद शाह था। अहमद फ़राज़ ने जब शायरी शुरू की तो उस वक़्त उनका नाम अहमद शाह कोहाटी होता था जो बाद में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के मश्विरे से अहमद फ़राज़ हो गया। वे पाकिस्तान और भारत, दोनों ही मुल्कों में समान रूप से लोकप्रिय थे। ‘जानाँ-जानाँ’, ‘ख़्वाब-ए-गुल परेशाँ है’, ‘ग़ज़ल बहा न करो’, ‘दर्द-ए-आशोब’, ‘तन्हा तन्हा’, ‘नायाफ़्त’, ‘नाबीना शहर में आईना’, ‘बेआवाज़ गली कूचों में’, ‘पस-ए-अंदाज़ मौसम’, ‘शब ख़ून’, ‘बोदलक’, ‘यह सब मेरी आवाज़ें हैं’ और ‘मेरे ख़्वाब रेज़ा रेज़ा’  आदि उनके प्रसिद्ध दीवान हैं।  25 अगस्त, 2008 को इस्लामाबाद, पाकिस्तान में उनका निधन हो गया। ख़्वाब पर उनके बहुत से बेहतरीन अशआर हैं। कुछ अशआर आपके लिये –

 

“आशिक़ी में ‘मीर’ जैसे ख़्वाब मत देखा करो।

बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो।।” 

 

एक शेर यह भी –

 

मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते,

है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला।”

 

और यह शेर भी –

 

रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई,

ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का।” 

 

हयात लखनवी का वास्तविक नाम मिर्ज़ा मोहम्मद जाफ़र था। उनका जन्म 27 फरवरी 1931 में तथा मृत्यु 15 अगस्त, 2006 को हुई। वे लखनऊ के निवासी थे। ‘दरिया रवां है’,  ‘हिसार-ए-आब’ व ‘वसीला’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब भी एक हद तक ही मज़ा देते हैं और फिर हक़ीक़त ही सामने आ खड़ी होती है। यह शेर देखिये –

 

सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँ ही धरा रह जाएगा। 

एक दिन बिस्तर पे कोई जागता रह जाएगा।।” 

 

सय्यद अमीन अशरफ़ का जन्म वर्ष 1931 में हुआ। वे अलीगढ़ के बाशिंदे हैं और अग्रणी आधुनिक शायरों में विख्यात हैं। ख़्वाब हमारी कल्पनाओं के पंक्षी हैं। जब हमारी कल्पना का कैनवास ही सूना है तो भला उसमें रंग कहाँ से आयेंगे। यह शेर तो देखिये –

 

है ता-हद्द-ए-इम्काँ कोई बस्ती न बयाबाँ, 

आँखों में कोई ख़्वाब दिखाई नहीं देता।”

 

जौन एलिया का वास्तविक नाम सैयद हुसैन जौन असग़र था और उनका जन्म 14 दिसंबर 1931 अमरोहा (उत्तर प्रदेश) में हुआ और देश के विभाजन के लगभग दस वर्ष बाद उन्हें कराची, पाकिस्तान जाना पड़ा। वहाँ उन्होंने एक उर्दू पत्रिका इंशा निकाली। ‘यानी’, ‘गुमान’, ‘लेकिन’, ‘गोया’, और ‘शायद’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। जौन एलिया अपने अपारंपरिक लहजे के कारण सदैव सुर्ख़ियों में रहे और उन्होंने उर्दू शायरी में अपना एक नया मुक़ाम बनाया और शायरी को भी एक नयी सोच और दिशा प्रदान की। उनकी मृत्यु  8 नवंबर 2002 को कराची में हुई। जौन एलिया सिर्फ़ एक शायर ही नहीं थे बल्कि उन्होंने साबित किया कि बदलते वक़्त के साथ शायरी के अंदाज़ कैसे बदलते हैं। ख़्वाब पर उनका यह मशहूर शेर वक़्त से जूझते नौजवानों की भरपूर नुमाइंदगी करता है –

 

और तो क्या था बेचने के लिए, 

अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं।” 

 

अब्दुल्लाह जावेद का पूरा नाम मोहम्मद अब्दुल्लाह ख़ाँ जावेद है और उनका जन्म 16 दिसंबर, 1931 को हुआ। उनका संबंध ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश से है। वे शायर और अदीब हैं और उन्होंने बच्चों के अदब के साथ साहित्यिक व सामाजिक विषयों पर आलेख भी लिखे हैं। ‘भागते लम्हे’ व  ‘हिसार-ए-इमकाँ’ उनकी पुस्तकें हैं। 

 

फिर नई हिजरत कोई दरपेश है, 

ख़्वाब में घर देखना अच्छा नहीं।” 

 

‘हिजरत’ का अर्थ है – जुदाई व ‘दरपेश’ का अर्थ है – सामने उपस्थित ।

 

अहमद मुश्ताक़ का जन्म वर्ष 1933 में हुआ। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के बाशिंदे हैं। वे पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक हैं और अपनी नव-क्लासिकी लय के लिए प्रसिद्ध हैं। ‘आँखें पुरानी हो गईं’ और ‘गर्द-ए-महताब’ उनके दीवान हैं। नींद, रतजगे और ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर पेश है –

 

नींदों में फिर रहा हूँ उसे ढूँढता हुआ,

शामिल जो एक ख़्वाब मिरे रत-जगे में था।”

 

ज़फ़र इक़बाल का जन्म 27 सितंबर, 1933 को अविभाजित भारत में जन्मे और वर्तमान में वे पाकिस्तान के लाहौर शहर में रहते हैं। वे आधुनिक ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उन्होंने उर्दू शायरी में विभिन्न प्रयोग किये और पुरातन शायरी में एक नया संसार घोल दिया। ‘आब-ए-रवाँ’, ‘अब तक’ और ‘ग़ुबार आलूद सिम्तों का शुमार’ उनके चर्चित दीवान हैं। ख़्वाब पर बहुत से खूबसूरत अशआर निकले हैं उनकी कलम से। आइये, कुछ शानदार अशआर से मुलाकात करते हैं –

 

भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद,

वो ख़्वाब है तो यूँही देखने से गुज़रेगा।”

 

एक शेर यह भी –

 

लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ, 

अंदाज़ा मुझ को ख़्वाब की गहराई से हुआ।” 

 

और एक शेर यह भी –

 

हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में ‘ज़फ़र’, 

ये ख़्वाब है किसी दीवार से नहीं रुकता।”

 

अतहर नफ़ीस का जन्म वर्ष 1933 में अविभाजित भारत में हुआ एवं तत्पश्चात वे पाकिस्तान चले गये जहाँ वर्ष 1980 में कराची में उनका इंतक़ाल हो गया। वे नई ग़ज़ल के महत्वपूर्ण शायर हैं और अपनी ग़ज़ल ‘वो इश्क़ जो हम से छूट गया’ के लिए भी प्रसिद्ध जिसे कई गायकों ने आवाज़ दी है। उनका असली नाम कुंवर अतहर अली खान था। ख़्वाबों का भी कभी-कभी कोई ख़्वाब होता है। ज़रा देखिये तो –

 

ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा,

और मैं उसी चेहरे से नए ख़्वाब सजाऊँ।”

बख़्श लाइलपूरी का जन्म 11 नवंबर, 1934 को कपूरथला, पंजाब में हुआ और 6 मार्च, 2002 को उनकी मृत्यु हो गयी। वे लंदन, यूनाइटेड किंगडम के बाशिंदे थे और प्रगतिवादी विचारधारा के आवामी शायर के रूप में उन्होंने शोहरत हासिल की। वे ब्रिटेन के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष भी रहे। ‘लहू का खराज’ उनका दीवान है। नींद का आँखों से रिश्ता है और आँखों का ख़्वाबों से। अब ज़रा इस नज़रिये से देखिये तो उनके इस शेर को –

 

हमारे ख़्वाब चोरी हो गए हैं, 

हमें रातों को नींद आती नहीं है।”

कुमार पाशी का असली नाम शंकर दत कुमार था। उनका जन्म 4 जुलाई, 1935 को बहावलपुर, पंजाब में हुआ था और उनका निधन 17 सितंबर, 1992 को दिल्ली में हुआ। वे प्रतिष्ठित आधुनिक शायर थे व पत्रिका “सुतूर” के संपादक थे। ‘रुबरु’, ‘चाँद चिराग़’, ‘एक मौसम मेरे दिल के अंदर’, ‘इंतज़ार की रात’, ‘ख़्वाब तमाशा’ व ‘पुराने मौसमों की आवाज़’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब में सब कुछ देख पाना संभव है। उनका यह शेर तो देखिये –

 

कभी दिखा दे वो मंज़र जो मैं ने देखे नहीं’ 

कभी तो नींद में ऐ ख़्वाब के फ़रिश्ते आ।”

संपूर्ण सिंह कालरा अर्थात गुलज़ार से कौन परिचित नहीं है। बेहतरीन शायर, गीतकार और फ़िल्म मेकर।18 अगस्त, 1936 को दीना, पंजाब (अब पाकिस्तान में) जन्मे गुलज़ार ने साहित्य और भारतीय फ़िल्मी जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। ‘चौरस रात’,’जानम’, ‘एक बूँद चाँद’, ‘रावी पार’, ‘रात, चाँद और मैं’, ‘रात पश्मीने की’ और ‘खराशें’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। वे फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड, अॉस्कर अवार्ड, ग्रेमी अवार्ड, साहित्य अकादमी अवार्ड एवं प्रतिष्ठित पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित हैं। ख़्वाब के ज़रिये भी रिश्ते कैसे क़ायम रहते हैं, आइये देखते हैं उनके इस खूबसूरत शेर में –

 

तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं,

सज़ाएँ भेज दो हम ने ख़ताएँ भेजी हैं।”

 

आदिल मंसूरी का जन्म 18 मई, 1936 को अहमदाबाद में हुआ व उनकी मृत्यु 6 नवंबर, 2008 को संयुक्त राज्य अमेरिका में हुई। वे अग्रणी आधुनिक शायर थे और भाषा के परम्परा-विरोधी प्रयोग के लिए भी प्रसिद्ध हैं। वे एक अच्छे कैलीग्राफ़र और नाटक कार भी थे। ख़्वाब पर  उनका एक खूबसूरत शेर आपके हवाले –

 

दरवाज़ा खटखटा के सितारे चले गए, 

ख़्वाबों की शाल ओढ़ के मैं ऊँघता रहा।” 

शहरयार का असली नाम अख़लाक मोहम्मद खान था। उनका जन्म 16 जून, 1936 को बरेली जनपद के आँवला ग्राम में हुआ तथा निधन 13 फरवरी, 2012 को अलीगढ़ में हुआ। वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर व उर्दू विभागाध्यक्ष रहे। उमराव जान, गमन व अंजुमन जैसी फ़िल्मों के गीतकार के रूप में काफ़ी शोहरत हासिल की। ‘हासिल’, ख़्वाब का दर बंद है’, ‘मेरे हिस्से की ज़मीन’, ‘नींद की किरचें’, ‘सातवां दर’ व काव्य समग्र के रूप में ‘सूरज को निकलता देखूँ’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। आइये, ख़्वाब के हवाले से उनके चंद अशआर देखें –

 

ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा।

दिन ढलते ही दिल डूबने लगता है हमारा।।” 

 

और एक यह शेर –

 

“मैं सोचता हूँ मगर याद कुछ नहीं आता,

कि इख़्तिताम कहाँ ख़्वाब के सफ़र का हुआ।”

 

‘इख़्तिताम’ का अर्थ है – अंत।

निदा फ़ाज़ली उर्दू शायरी के अत्यंत लोकप्रिय शायर हैं। उनका जन्म 12 अक्टूबर, 1938 को दिल्ली में हुआ और उनका इंतक़ाल 8 फरवरी, 2016 को मुंबई में हुआ। ‘चेहरे’ और ‘खोया हुआ सा कुछ’ उनके मशहूर पुस्तकें हैं। उर्दू की जदीद शायरी में दोहों का शानदार प्रयोग भी उनके हिस्से में जाता है। वे साहित्य अकादमी ऐवार्ड व पद्मश्री जैसे सम्मानों से सम्मानित थे। ख़्वाब भले ही ज़िंदगी न हों लेकिन वे जिंदा रहने की उम्मीदें ज़रूर हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है –

 

यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें,

इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो।”

हकीम मंज़ूर का वास्तविक नाम मोहम्मद मंज़ूर है। उनका जन्म वर्ष 1937 में हुआ। ‘ख़ुश्बू का नाम नया’ और ‘लहू लम्स चिनार’ उनकी पुस्तकें हैं। ख़्वाब का पूरा होना या टूटना, दोनों ही नसीब की बातें हैं। ज़िंदगी सब पर मेहरबान नहीं होती। उनका ख़्वाब पर यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया।

वो ज़िंदगी को ये कैसा अज़ाब दे के गया।।” 

 

‘अज़ाब’ का अर्थ है – पीड़ा

साबिर दत्त वर्ष 1938 में पैदा हुये तथा वर्ष 2000 में उनका निधन हुआ। वे हरियाणा से संबंद्ध थे। ‘मौज-ए-आरिज़’, ‘शजर अकेला है’ व ‘पल दो पल’ उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। आइये, ख़्वाब पर उनके कुछेक अशआरों का लुत्फ़ उठाते हैं –

 

लोग करते हैं ख़्वाब की बातें,

हम ने देखा है ख़्वाब आँखों से।”

 

एक और शेर –

 

“ख़्वाबों से न जाओ कि अभी रात बहुत है। 

पहलू में तुम आओ कि अभी रात बहुत है।।”

उबैदुल्लाह अलीम का जन्म 12 जून, 1939 को भोपाल, भारत में हुआ तथा देश के विभाजन के पश्चात् वे पाकिस्तान चले गये जहाँ 18 मई,1998 को उनका इंतक़ाल कराची में हो गया। वे अपने समय के प्रसिद्ध शायर थे। ‘चाँद चेहरा सितारा आँखें’, ‘ख़्वाब ही ख़्वाब’ और ‘तेज़ हवा और तनहा फूल’ उनके दीवान हैं। ख़्वाब पर उनके कुछ अशआर आपके लिये –

 

ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ। 

काश तुझ को भी इक झलक देखूँ।।”

 

और एक यह शेर –

 

बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की, 

सो अब अपनी ज़िंदगी में नए ख़्वाब भर रहे हैं।”

इरफ़ान सिद्दिक़ी का जन्म 11 मार्च, 1939 में बदायूँ में हुआ व मृत्यु 15 अप्रैल, 2004 में लखनऊ में हुई।  उन्हें नव क्लासिकी के आधुनिक शायरों में प्रमुख माना जाता है। उनका पहला कविता संग्रह ‘कैन्वस’ 1978  में प्रकाशित हुआ जिसके बा’द शब-दर्मियाँ (1984),  सात समावात (1992), इ’श्क़-नामा (1997) और हवा-ए-दश्त-ए-मारिया (1998) का प्रकाशन हुआ। उनके दो कुल्लियात (संग्रह) में से ‘दरिया’ 1999  इस्लामाबाद से और ‘शह्र-ए-मलाल’  2016  में देहली से प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त उनकी पुस्तकों में  ‘अवामी तर्सील’ (1977) और ‘राब्ता-ए-आम्मा’, (1984) ‘रुत-सिंघार’ (कालिदास के नाटक ऋतु संघारम का उर्दू अनुवाद), मालविका आग्नि मित्रम (कालिदास के नाटक का उर्दू अनुवाद) और ‘रोटी की  ख़ातिर’ (अरबी उपन्यास का उर्दू अनुवाद) शामिल हैं। ख़्वाब सिर्फ़ बंद आँखों से ही नहीं बल्कि खुली हुई आँखों से भी देखे जा सकते हैं। क्या खूबसूरत अशआर निकले हैं उनकी कलम से –

 

उठो ये मंज़र-ए-शब-ताब देखने के लिए।

कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए ।।”

 

और यह शेर भी –

 

“है बहुत कुछ मिरी ताबीर की दुनिया तुझ में, 

फिर भी कुछ है कि जो ख़्वाबों के जहाँ से कम है।”

इफ़्तिख़ार आरिफ़ 21 मार्च, 1940 को लखनऊ में जन्मे और भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये। वे पाकिस्तान के आधुनिक शायरों में अग्रणी हैं और अपनी सांस्कृतिक रूमानियत के लिए मशहूर हैं। ‘हर्फ़-ए-बारियाब’, ‘जहान-ए-मालूम’ और ‘किताब-ए-दिल-ओ-दुनिया’ उनकी मशहूर किताबें है। ख़्वाब पर उनके खूबसूरत अशआर देखिये –

 

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है। 

ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है।।” 

 

एक यह शेर –

 

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा, 

मकाँ के होते हुए ला-मकाँ के होते हुए।”

 

यह शेर भी –

 

बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं।

और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं।।” 

 

यह शेर भी –

 

इक ख़्वाब ही तो था जो फ़रामोश हो गया, 

इक याद ही तो थी जो भुला दी गई तो क्या।”

 

यह भी –

 

दिल कभी ख़्वाब के पीछे कभी दुनिया की तरफ़, 

एक ने अज्र दिया एक ने उजरत नहीं दी।” 

 

और एक शेर यह भी –

 

“वही है ख़्वाब जिसे मिल के सब ने देखा था, 

अब अपने अपने क़बीलों में बट के देखते हैं।” 

वसीम बरेलवी आज खुद में शायरी की जीती जागती मिसाल हैं। 8 फरवरी 1940 में जन्मे प्रोफ़ेसर वसीम बरेलवी का वास्तविक नाम ज़ाहिद हुसैन है। उन्होंने उर्दू साहित्य को बहुत कुछ दिया है और उर्दू शायरी के हलक़े में उनका नाम बड़े ऐहतराम और मोहब्बत से लिया जाता है। ख़्वाब पर उनकी एक बहुत खूबसूरत नज़्म है। ज़रा देखिये तो –

 

मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है।

 

रात खिलने का गुलाबों से महक आने का। 

ओस की बूंदों में सूरज के समा जाने का। 

 

चाँद सी मिट्टी के ज़र्रों से सदा आने का।

शहर से दूर किसी गाँव में रह जाने का।। 

 

खेत खलियानों में बाग़ों में कहीं गाने का। 

सुबह घर छोड़ने का देर से घर आने का।। 

 

बहते झरनों की खनकती हुई आवाज़ों का। 

चहचहाती हुई चिड़ियों से लदी शाख़ों का।। 

 

नर्गिसी आँखों में हँसती हुई नादानी का। 

मुस्कुराते हुए चेहरे की ग़ज़ल ख़्वानी का।। 

 

तेरा हो जाने तिरे प्यार में खो जाने का।

तेरा कहलाने का तेरा ही नज़र आने का।।

 

मैं ने मुद्दत से कोई ख़्वाब नहीं देखा है,

हाथ रख दे मिरी आँखों पे कि नींद आ जाए।”

कफ़ील आज़र अमरोहवी का जन्म 23 अप्रैल, 1940 में हुआ। वे मुंबई, भारत के निवासी हैं। वे बेहतरीन शायर व फ़िल्म गीतकार हैं जो अपनी नज़्म ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’ के लिए भी प्रसिद्ध हैं। ‘धूप का दरीचा’ उनका प्रसिद्ध दीवान है। किसी ख़्वाब की ताबीर आपके मनमुताबिक ही हो, ‍यह ज़रूरी नहीं है क्योंकि ख़्वाब तो आख़िर ख़्वाब हैं, उनपर भला किसी का ज़ोर कैसा। देखिये तो यह शेर –

 

जब से इक ख़्वाब की ताबीर मिली है मुझ को,

मैं हर इक ख़्वाब की ताबीर से घबराता हूँ।” 

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर का जन्म 4 सितंबर, 1941 को पहाड़पुर, ख़ैबर पुख़्तुंख़ुवा (पाकिस्तान) में हुआ और उनकी मृत्यु 20 फरवरी 1999 को पेशावर में हुआ। वे पाकिस्तान के लोकप्रिय और प्रतिष्ठित शयार हैं। ‘आठवाँ आसमान भी नीला है’ और ‘तसुलसल’ उनके दीवान हैं। क़ासिर की शायरी नये माहौल में दरकती ज़मीन पर उगती हुई दूब जैसी है। आइये, ख़्वाब पर उनके कुछ खूबसूरत अशआर देखते हैं – 

 

किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं।

तिरे तकिए के नीचे भी हमारे ख़्वाब रक्खे हैं।।”

 

और एक यह शेर –

 

बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो।

ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो।।”

 

और एक शेर यह भी –

 

प्यार गया तो कैसे मिलते रंग से रंग और ख़्वाब से ख़्वाब,

एक मुकम्मल घर के अंदर हर तस्वीर अधूरी थी।”

अतीक़ुल्लाह का जन्म वर्ष 1941 में हुआ। वे दिल्ली, भारत के निवासी हैं। वे ख्यातिप्राप्त आलोचक और शायर हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफ़ेसर रहे हैं। ‘एक सौ ग़ज़लें’, ‘तर्जियात’ व तस्सुबात’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब कभी-कभी तिलिस्म की मानिंद नुमायां होते हैं। क्या खूबसूरत शेर निकला है उनकी क़लम से –

 

आईना आईना तैरता कोई अक्स, 

और हर ख़्वाब में दूसरा ख़्वाब है।”

अमीर क़ज़लबाश का असली नाम अमीर आग़ा क़ज़लबाश है। वे 15 जनवरी, 1943 में पैदा हुये और वर्ष 2003 में उनकी मृत्यु हुई। वे दिल्ली के बाशिंदे थे। बेहतरीन शायर और फ़िल्मी गीतकार थे। प्रेम रोग और राम तेरी गंगा मैली के गीतों के लिए मशहूर हैं। ‘बाज़गश्त’, ‘मंज़रनामा’, ‘शिकायतें मेरी’ और ‘इंकार’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उनका खूबसूरत शेर देखिये –

 

“इतना बेदारियों से काम न लो, 

दोस्तो ख़्वाब भी ज़रूरी है।” 

अनवर शऊर का जन्म 11 अप्रैल, 1943 में सिवनी, मध्य प्रदेश में हुआ और वे विभाजन के पश्चात कराची, पाकिस्तान में रहते हैं। अग्रणी पाकिस्तानी शायरों में से एक हैं। कभी कभी ख़्वाब में ही सही, सारी हसरतें निकल जाती हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है –

 

हम बुलाते वो तशरीफ़ लाते रहे, 

ख़्वाब में ये करामात होती रही।”

नज़ीर क़ैसर का जन्म 15 जनवरी, 1945 में हुआ। वे लाहौर, पाकिस्तान में रहते हैं। ‘ऐ शाम हमसुख़न हो’ और ‘गुबंद-ए-ख़ौफ़ से बशारत’ उनकी पुस्तकें हैं। बेहतरीन शायर हैं। ख़्वाब के प्रभाव सदैव खूबसूरत ही हों, यह ज़रूरी नहीं है। यह शेर देखिये –

 

ख़्वाब क्या था जो मिरे सर में रहा।

रात भर इक शोर सा घर में रहा।।” 

जावेद अख़्तर का जन्म 17 जनवरी, 1945 को ग्वालियर में हुआ। वे प्रसिद्ध शायर, गीतकार व स्क्रीन प्ले राइटर हैं। वे पद्मश्री व पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित हैं। ‘ब्रीथलेस’, ‘वाको नाम कबीर’, ‘सोज़’ आदि उनके प्रसिद्ध अलबम हैं। ज़िंदगी में कभी-कभी हम किसी ख़्वाब को पाने के लिये इतने पागल हो जाते हैं कि ज़िंदगी की तमाम अन्य खूबसूरत शय हमसे खो जाती हैं। इसी पहलू से निकला है उनका यह खूबसूरत शेर –

 

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है,

मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी।”

अज़हर इनायती का वास्तविक नाम अज़हर अली खान है। उनका जन्म 15 अप्रैल,1946 को  रामपुर (उत्तर प्रदेश) को हुआ। वे रामपूर स्कूल के प्रमुख शायर हैं तथा महशर इनायती के शागिर्द हैं। ‘अपनी तस्वीर’ और ‘खुद कलामी’ उनके मशहूर दीवान हैं। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

“हर एक रात को महताब देखने के लिए।

मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए। ” 

सलीम कौसर एक बेहद मशहूर पाकिस्तानी शायर हैं जिनका जन्म 24 अक्टूबर, 1947 को भारत में पानीपत में हुआ था किंतु देश के विभाजन के पश्चात उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। वे अपनी ग़ज़ल ‘ मैं ख़याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है’ से भी बहुत सुर्खियों में रहे। ‘ये चराग़ है तो जलता रहे’ उनका दीवान है। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर आपकी नज़र –

 

कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए।

वो सो गया है मुझे ख़्वाब से जगाते हुए।।” 

ऐतबार साजिद का जन्म वर्ष 1948 में हुआ। वे इस्लामाबाद, पाकिस्तान के बाशिंदे हैं। ‘पज़ीराई’ उनका दीवान है। यह हमारी इनायत है कि हम किसी के ख़्वाब में आकर उसमें रौनक़ भर देते हैं वरना … वरना ज़रा देखिये तो इस लाजवाब शेर को –

 

हम तिरे ख़्वाबों की जन्नत से निकल कर आ गए,

देख तेरा क़स्र-ए-आली-शान ख़ाली कर दिया।”

 

‘कस्र-ए-आलीशान’ का अर्थ है – राजसी महल।

डॉ राहत इंदौरी का जन्म 1 जनवरी, 1950 को इंदौर में हुआ और इंतक़ाल 11 अगस्त, 2020 को इंदौर में ही हुआ। उनका असली नाम राहत कुरैशी था। वे उर्दू भाषा के प्रोफेसर थे। उनकी शायरी में ग़ज़ल की हरारत के साथ अंगारों की सुर्ख़ी भी मिलती है और उनकी यह शैली उन्हें भीड़ में भी अकेला बनाने में कामयाब है। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

“ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे, 

नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो।”

सुहैल काकोरवी उर्दू साहित्य में एक स्थापित और चमकदार नाम है। वे शेर कहते ही नहीं हैं बल्कि बाक़ायदा शायरी को जीते भी हैं। उर्दू के साथ उन्होंने हिंदी, अंग्रेज़ी व फ़ारसी साहित्य को भी  मालामाल किया है। 7, जुलाई, 1950 में लखनऊ में जन्मे इस शायर के सृजन की कोई सीमा नही है। ‘निग़ाह, आमनामा, गुलनामा, नीला चाँद, ग़ालिब:एक उत्तर कथा, आदि-इत्यादि उनकी मशहूर पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनके ये हसीन अशआर देखिये –

 

मैंने कहा ख़याल-ए-वस्ल, उसने कहा कि ख़्वाब है।

मैंने कहा फ़रोग़-ए-हुस्न, उसने कहा हिजाब है।”

 

और एक शेर यह भी –

 

शक्ल उभरी थी किसी की ज़िंदगी के ख़्वाब में।

इक अनोखा बाँकपन आया शब-ए-महताब में।।”

 

और इस शेर का क्या कहना –

 

आरज़ू रास्ते बनाती है,

हर हक़ीक़त में ख़्वाब होता है।”

ख़ावर एजाज़ का जन्म 24 सितंबर, 1950 को हुआ। वे इस्लामाबाद, पाकिस्तान से वाबस्ता हैं। ‘नवरंग-ए-ग़ज़ल’ उनका दीवान है। उनके ख़्वाबों में तसव्वुर की जो उड़ान है, वह देखते ही बनती है। कितने खूबसूरत अशआर निकले हैं उनके ख़्वाब पर, ज़रा देखिये तो –

 

मुझे इस ख़्वाब ने इक अर्से तक बे-ताब रक्खा है। 

इक ऊँची छत है और छत पर कोई महताब रक्खा है।।”

 

और यह शेर भी –

 

हाथ लगाते ही मिट्टी का ढेर हुए,

कैसे कैसे रंग भरे थे ख़्वाबों में।।”

फ़ैसल अजमी 7 अप्रैल, 1951 को पाकिस्तान में पैदा हुये। बेहतरीन शायर हैं और लहज़ा भी ख़ासा दिलचस्प है। सोचने को मजबूर कर देने वाले अशआर कहने का फ़न रखते हैं। यह शेर देखिये –

 

आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में, 

लेकिन ख़बर नहीं कि बुलाया कहाँ गया।”

हसन अब्बास रज़ा का जन्म 20 नवंबर, 1951 को इस्लामाबाद में हुआ। अब वे रावलपिंडी, पाकिस्तान के बाशिंदे हैं। ‘खयाबाँ’ और ‘ख़्वाब अज़ाब हुये’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

“हमारी जेब में ख़्वाबों की रेज़गारी है, 

सो लेन-देन हमारा दुकाँ से बाहर है।” 

असअ’द बदायुनी का असली नाम असअ’द अहमद था। उनका जन्म 25 फरवरी, 1952 को बदायूं में एवं मृत्यु 5 मार्च, 2003 को अलीगढ़ में हुई। वे प्रख्यात उत्तर-आधुनिक शायर एवं साहित्यिक पत्रिका ‘दायरे’ के संपादक थे। ‘धूप की सरहद’, ‘जुनूँ किनारा’ व ‘खेमा-ए-ख़्वाब’ उनके चर्चित दीवान हैं। ख़्वाब पर उनका एक बहुत प्यारा शेर देखिये –

 

मेरी रुस्वाई के अस्बाब हैं मेरे अंदर। 

आदमी हूँ सो बहुत ख़्वाब हैं मेरे अंदर।।” 

पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर को यह श्रेय हासिल है कि उनकी शायरी इस मर्दपरस्त समाज में एक औरत का प्रतिनिधित्व करती है। वे पाकिस्तान की लोकप्रिय शायरा थी और औरत के हुक़ूक के लिये क़लम से लड़ने वाली इंक़लाबी साहित्यकार थीं जो 24 नवंबर, 1952 को पैदा हुईं और 16 दिसंबर, 1994 में बहुत कम उम्र में एक कार दुर्घटना की शिकार हो गईं। ‘इंकार’ व ‘ख़ुश्बू’ उनके प्रसिद्ध दीवान हैं। एक औरत के लिये ख़्वाब क्या महत्व रखते हैं, आइये ये उनके अशआर में उतर कर देखते हैं-

 

बारहा तेरा इंतिज़ार किया,

अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह।” 

 

और एक ये शेर –

 

जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा, 

उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई।”

मुनव्वर राना का जन्म रायबरेली में 26 नवंबर, 1952 में हुआ। उनका नाम उर्दू शायरी में बड़े ऐहतराम से लिया जाता है। ‘बग़ैर नक़्श का मकान’, ‘कहो ज़िल्ले इलाही से’, ‘मुज़ाहिरनामा’ और ‘माँ’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। ख़्वाबों का अपना ही रिश्ता है देखने वाले से। कभी यह खुशी देता है तो कभी परेशान भी करता है। यह शेर देखिये –

 

अब जुदाई के सफ़र को मिरे आसान करो।

तुम मुझे ख़्वाब में आ कर न परेशान करो।।” 

फ़ातिमा हसन का मूल नाम डॉ स्यीद्ह फ़ातिमा ज़ैदी हेेै और उनका जन्म 25 जनवरी, 1953 को कराची (पाकिस्तान) में हुआ। ‘दस्तक से दर का फ़ासला’ और ‘किताब-ए-ज़मीं’ उनकी मशहूर पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनके कुछ अशआर –

 

ख़्वाबों पर इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है,

कब ज़िंदगी गुज़ारी है अपने हिसाब में।”

 

और

 

दिखाई देता है जो कुछ कहीं वो ख़्वाब न हो, 

जो सुन रही हूँ वो धोका न हो समाअत का।” 

अबरार अहमद का जन्म वर्ष 1954 में हुआ। वे लाहौर, पाकिस्तान से वाबस्ता हैं। वे प्रगतिशील विचारों के पाकिस्तानी शायर हैं और संजीदा शायरी पसंद करने वालों में विख्यात हैं। ‘आख़िरी दिन से पहले’ और  ‘ग़फ़लत के बराबर’ उनकी पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनका यह शेर देखिये –

 

भर लाए हैं हम आँख में रखने को मुक़ाबिल,

इक ख़्वाब-ए-तमन्ना तिरी ग़फ़लत के बराबर।”

 

नसीर अहमद नासिर का जन्म 1 अप्रैल, 1954 में हुआ। वे रावलपिंडी, पाकिस्तान के बाशिंदे हैं। ‘पानी में गुम ख़्वाब’, ‘ज़र्द पत्तों की शाल’ और ‘मलबे से मिली चीज़ें’ उनकी मशहूर किताबें हैं। ख़्वाब पर उनका यह मशहूर शेर देखिये –

 

अभी वो आँख भी सोई नहीं है, 

अभी वो ख़्वाब भी जागा हुआ है।”

 

आशुफ़्ता चंगेज़ी प्रख्यात उत्तर-आधुनिक शायर हैं। उनका जन्म वर्ष 1956 में हुआ। उनकी शायरी ख़यालों और तसव्वुर की सबसे निचली तह से निकलती है और जैसे एक हक़ीक़ी मंज़र बन कर सामने खड़ी हो जाती है। वे वर्ष 1996 में अचानक लापता हो गए। ‘शिकस्त की फ़स्ल’, शह्र-ए-गुमान’ और ‘गर्दबाद’ उनके मजमुये हैं जो मंज़र-ए-आम तक पहुँचे। ख़्वाब के हवाले से उनके कुछ बेहतरीन अशआर से मुलाकात करते हैं –

 

ख़्वाब जितने देखने हैं आज सारे देख लें, 

क्या भरोसा कल कहाँ पागल हवा ले जाएगी।” 

 

और यह शेर –

 

अजीब ख़्वाब था ताबीर क्या हुई उस की, 

कि एक दरिया हवाओं के रुख़ पे बहता था।” 

 

एक शेर यह भी –

 

आँख खुलते ही बस्तियाँ ताराज, 

कोई लज़्ज़त नहीं है ख़्वाबों में।”

 

‘ताराज’ का अर्थ है – विनाश

 

और यह भी –

 

सोने से जागने का तअल्लुक़ न था कोई,

सड़कों पे अपने ख़्वाब लिए भागते रहे।”

 

राजेन्द्र वर्मा का जन्म 8 नवम्बर 1957, बाराबंकी ज़िले में हुआ और कालांतर में उन्होंने लखनऊ को अपना स्थायी निवास बना लिया।  ‘लौ’, ‘अंक में आकाश’, ‘वाणी पर प्रतिबंध है’ और ‘हम लघुत्तम हुए’ उनके ग़ज़ल संग्रह हैं। वे अनेक विधाओं में साधिकार अपनी कलम चलाते हैं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। उपरोक्त पुस्तकों के अतिरिक्त भी उनकी अनेक विधाओं में अनेक पुस्तकें मंज़र-ए-आम पर आ चुकी हैं और पाठकों की प्रशंसा हासिल कर चुकी है। बड़ी बात को कम शब्दों में सफलतापूर्वक कह देना उनका हुनर है। ख़्वाब पर उनका यह शेर देखिये –

 

हो न जायें आँख की वे किरकिरी,

ख़्वाब पलकों पर सजाया कीजिये।”

 

मक़बूल नक़्श एक पाकिस्तानी शायर हैं जिनकी जन्मतिथि की सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है किंतु उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर उनका इंतक़ाल का कराची में 31 जनवरी, 2005 में हुआ। ‘चश्म-ए-ख़याल’,  ‘ख़ुश्बू की धनक’ व ‘नविश्ता’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। कितना सही कहा है इस बेहतरीन शायर ने ज़िन्दगी और ख़्वाब के बारे में –

 

ज़िंदगी ख़्वाब देखती है मगर, 

ज़िंदगी ज़िंदगी है ख़्वाब नहीं।” 

 

ऐन ताबिश का जन्म वर्ष 1958 में पटना, भारत में हुआ। वे प्रसिद्ध समकालीन शायर हैं और अपनी नज़्मों के लिए ख़ास तौर से मशहूर हैं। ‘आदमी उदास है’,’रात के आख़िर होते होते’ एवं  ‘दश्त अजब हैरानी का’ उनकी पुस्तकें हैं। ज़िंदगी ख़्वाबों की बदौलत ज़िंदा है – शायद यही अर्थ है उनके इस खूबसूरत शेर का –

 

जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से, 

ज़िंदगी क्या है मियाँ बस एक घर ख़्वाबों का है।”

 

रज़ा अज़ीमाबादी एक बेहतरीन शायर हैं किंतु इनके जन्म और मृत्यु के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। ख़्वाब पर उनका एक शेर ही उनकी शायरी के बेमिसाल फ़न की वकालत करता दिखता है –

 

देखी थी एक रात तिरी ज़ुल्फ़ ख़्वाब में,

फिर जब तलक जिया मैं परेशान ही रहा।” 

 

अब्बास रिज़वी एक पाकिस्तानी शायर हैं। इनके जीवन से संबंधित तथ्य फ़िलहाल उपलब्ध नहीं हैं। सच बात तो यह है कि ख़्वाब ही आँखों के अौचित्य को सिद्ध करती हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है उन्होने ख़्वाब पर –

 

तलब करें तो ये आँखें भी इन को दे दूँ मैं, 

मगर ये लोग इन आँखों के ख़्वाब माँगते हैं।” 

 

इब्न-ए-मुफ़्ती एक नौजवान शायर हैं। बहुत खूबसूरत लिखते हैं और दिल को छू लेने का हुनर जानते हैं। नींद किसी और की और ख़्वाब किसी और के, गणित तो इस फ़ार्मूले को सिरे से ख़ारिज कर देगी लेकिन शायरी में यह मंत्र स्वयंसिद्ध है। यह शेर तो देखिये –

 

“कैसा जादू है समझ आता नहीं,

नींद मेरी ख़्वाब सारे आप के।” 

 

मुस्तफ़ा शहाब एक बेहतरीन शायर हैं और इंग्लैंड में रहते हैं। ‘आँधी सरे शाम’, ‘कागज़ की किश्तियाँ’, ‘सफ़र अामादा’ और ‘शाम ढले सवेरा’ उनकी प्रमुख किताबें हैं। ख़्वाब पर उनका एक खूबसूरत शेर मुलाहिजा कीजिये-

 

ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ,

जागूँ तो वही ख़्वाब की ताबीर बताए।” 

 

अहमद अता एक नौजवान शायर हैं और जदीद शायरी की नुमाइंदगी करते हैं। उनका शायरी का ख़ास अंदाज़ उन्हें आज के शायरों से अलहदा करता है। ख़्वाब पर उनके कुछ शेर लाजवाब हैं –

 

ये जो रातों को मुझे ख़्वाब नहीं आते ‘अता’, 

इस का मतलब है मिरा यार ख़फ़ा है मुझ से।” 

 

और

 

ज़िंदगी ख़्वाब है और ख़्वाब भी ऐसा कि मियाँ, 

सोचते रहिए कि इस ख़्वाब की ताबीर है क्या।” 

 

और एक यह भी –

 

किसी को ख़्वाब में अक्सर पुकारते हैं हम,

‘अता’ इसी लिए सोते में होंट हिलते हैं।”

 

सरफ़राज़ ख़ालिद बेहतरीन शायर हैं। बात को नये अंदाज़ में कहने का फ़न है उनमें और इसलिए वे भीड़ में अलग दिखाई देते हैं। बड़ा विचित्र प्रश्न है – ख़्वाब उसके होते हैं जिसकी आँखों में आते हैं या उसके जो ख़्वाबों में आता है। देखिये, सरफ़राज़ ख़ालिद का जवाब –

 

“उसी के ख़्वाब थे सारे उसी को सौंप दिए, 

सो वो भी जीत गया और मैं भी हारा नहीं ।”

 

ख़ालिद मलिक साहिल का जन्म वर्ष 1961 में हुआ। वे जर्मनी में रहते हैं। ख़्वाब पर उनका शेर देखें –

 

ख़्वाब देखा था मोहब्बत का मोहब्बत की क़सम, 

फिर इसी ख़्वाब की ताबीर में मसरूफ़ था मैं।”

 

एक शेर यह भी –

 

किसी ख़याल का कोई वजूद हो शायद, 

बदल रहा हूँ मैं ख़्वाबों को तजरबा कर के।”

 

शारिक़ कैफ़ी का जन्म 2 नवंबर, 1961 को हुआ। वे बरेली कि निवासी हैं। ‘आम सा रद्द-ए-अमल’, ‘अपने तमाशे का टिकट’ और यहाँ तक रोशनी आती कहाँ थी’ उनकी पुस्तकें हैं। ख़्वाब शायद ज़िंदगी की कड़ुवी हक़ीक़त से पीछा छुड़ाते हैं लेकिन ख़्वाब के बाद वह रंगहीन ज़िंदगी फ़िर शुरू हो जाती है। क्या ख़्वाब को दौड़ती हुई ज़िंदगी का अस्थायी ठहराव है? आइये, मिलते हैं शारिक़ कैफ़ी से ख़्वाब पर उनके इस शेर के माध्यम से –

 

“ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है। 

आँख खुल जाए तो मुसीबत है।।” 

 

मोहम्मद अली साहिल का जन्म 12 अगस्त, 1964 को हुआ। लखनऊ के बाशिंदे हैं और बेहतरीन शायरों में उनका शुमार हेै। बात को सादगी से कहने लेकिन प्रभावशाली ढंग से कहने का फ़न है उनमें। ‘किरदार’ व  ‘पहला कदम’ उनकी पुस्तकें हैं। आइये, ख़्वाब पर उनका यह शेर देखते हैं –

 

ख़्वाब में जब भी देखता हूँ उसे,

नींद आँखों से रूठ जाती है।”

 

मंजुल मिश्र मंज़र का जन्म 1 मार्च, 1965 को लखनऊ में हुआ। वे नौजवान शायर हैं और तेज़ी से अपने आप को स्थापित कर रहे हैं। वे बेहतर अशआर कहते भी हेैं और बेहतर ढंग से पढ़ते भी हैं। उनसे साहित्य को बहुत आशायें हैं और उनका भविष्य चमकदार दिखाई पड़ता है। ‘काव्य-कलश’, ‘खुश्बू-ए-ग़ज़ल’ और ‘परवाज़-ए-ग़ज़ल’ साझा ग़ज़ल संग्रहों में उनकी साझेदारी है और उनका एकल ग़ज़ल संग्रह ‘ज़बाँ आतिश उगलती है’ मंज़र-ए-आम पर आने की तैयारी में है। ख़्वाब पर उनके ये अशआर देखिये –

 

सबने  मज़हब का अलम सर पे उठा रक्खा है।

सारी  दुनिया  में  यूँ  कोहराम  मचा  रक्खा है।। 

शानो-शौक़त भी बढ़े मुल्क की इज़्ज़त भी बढ़े,

मैंने भी  दिल  में  यही  ख़्वाब  सजा  रक्खा है।।”

 

संजय मिश्र ‘शौक़’ का जन्म 21 अक्टूबर, 1966 को लखनऊ में हुआ। वे उर्दू शायरी में फ़िराक़ गोरखपुरी, चक़बस्त व कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की तरह गैर मुस्लिम शायरों की परंपरा के शायर हैं। उस्ताद नसीम अख़्तर सिद्दिक़ी के सुयोग्य शिष्य ‘शौक़’ एक ऐसे शायर हैं जिन्होंने एक गैर मुस्लिम होते हुये भी उर्दू शायरी को बहुत कुछ दिया है और उर्दू शायरी को उन पर नाज़ है। उर्दू शायरी में ‘रुबाई’ एक अत्यंत कठिन विधा मानी जाती है क्योंकि इसमें मात्र चार पंक्तियों में ही अपनी पूरी बात कहनी होती है और संजय मिश्र ‘शौक’ को‌ इस विधा पर महारत हासिल है। सिर्फ़ रुबाई ही नहीं बल्कि ग़ज़ल गोई में भी ‘शौक’ साहब का कोई जवाब नहीं। ‘रात के बाद रात’ उनका दीवान है। आइये, ख़्वाब पर उनके कुछ शानदार अशआरों के हवाले से उनसे मुलाकात करते हैं – 

 

ख़्वाब में भी देखता हूँ सच अयाँ होते हुये।

खुद को बूढ़ा और दुनिया को जवाँ होते हुये।।”

 

और एक शेर यह भी –

 

अबके बारूद के जलने से जली हैं आँखें,

ज़िंदगी इनको नये ख़्वाब दिखाने का नहीं।”

 

ज़हीर रहमती प्रसिद्ध भारतीय नौजवान शायर हैं। उनका जन्म वर्ष 1968 में हुआ। जिस ख़्वाब की ताबीर हो जाती है, वह फिर ख़्वाब नहीं रहता बल्कि हक़ीक़त बन जाता है। ख़्वाब और ताबीर का क्या रिश्ता है आपस में, यह इस शेर में दिखता है –

 

जिस की कुछ ताबीर न हो,

ख़्वाब उसी को कहते हैं।”

 

इरफ़ान सत्तार का पूरा नाम इरफ़ान अब्दुल सत्तार है। उनका जन्म 18 फरवरी, 1968 में कराची, पाकिस्तान में हुआ। वे कनाडा में निवास करते हैं। वे मशहूर शायर जौन एलिया के शिष्य हैं। ‘सा’त-ए-इमकान’ व   ‘तकरार-ए-सा’त’ उनकी पुस्तकें हैं। ख़्वाब पर उनका यह बहुत खूबसूरत शेर देखिये –

 

किस अजब साअत-ए-नायाब में आया हुआ हूँ।

तुझ से मिलने मैं तिरे ख़्वाब में आया हुआ हूँ।।”

 

‘साअत-ए-नायाब’ का अर्थ है – दुर्लभ क्षण।

 

विवेक भटनागर 11 जून, 1968 को लखनऊ में पैदा हुये और अब ग़ाज़ियाबाद में बस गये हैं। अद्भुत और कभी कभी आश्चर्य चकित कर देने वाली रचनायें सृजित करते हैं। उनकी दृष्टि अनोखी है और वे ख़यालों का वह पहलू भी अपनी शायरी में पैबस्त करते हैं जो आम तौर पर बाहर से नज़र ही नहीं आता। वे ऐसे नौजवान शायरों में हैं जिनकी शायरी में जादू है। आइये, ख़्वाब पर उनके कुछ बेहतरीन अशआरों से मुलाकात करते हैं-

 

मेरी नींदों में जागती शय ही,

मेरी आंखों का ख़्वाब है शायद।”

 

यह शेर तो ज़बरदस्त शेर है। आप भी देखें –

 

सुब्ह होगी तो उजाला होगा,

नींद इस ख़्वाब में जागी बरसों।”

 

इस शेर पर महान गीतकार रमानाथ अवस्थी जी की यह पंक्तियाँ याद आती हैं,’ मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं, जो भी तुमसे लग जाये लगा लेना’ –

 

बाज़ार है ये, नींद के मारे हैं ख़रीदार,

व्यापारी यहां ख़्वाब की दूकान रखे हैं।”

 

अब भला ख़्वाब को क्या पता कि उसे कहाँ शुरू होना है और कहाँ ख़त्म होना है –

 

लब से लब मिलने ही वाले थे कि बस!

ख़्वाब को भी टूटने की पड़ गई।”

 

यह शेर बताता है कि उर्दू शायरी में नौजवान पीढ़ी न केवल नये ख़यालात ही टाँक रही है बल्कि नयी भाषा का भी प्रयोग करके उसे और समृद्ध बना रही है –

 

कभी तो ख़्वाब आ जाए हमारी नींद में दिलकश,

कि सारी रात हम ख़्वाबों की सर्फिंग करते रहते हैं।”

 

इस आशिक का क्या कहना जिसे ख़्वाब में भी महबूब की ज़हमत का ख़याल है –

 

“अब कभी ख़्वाब न आए या रब

वरना महबूब को ज़हमत होगी!”

 

यह शेर भी देखें –

 

“ख़्वाब में आने का वादा कर के,

उसने नींदें ही चुरा लीं मेरी।”

 

नयी सोच और भाषा का शेर –

 

“ख्वाब का नींद से अफ़ेयर है,

रोज़ मिलते हैं छुपके रातों में।”

 

यह बात तो बिल्कुल सच है। आपने भी महसूस किया ही होगा –

 

“जागती आंख में दिखता होगा,

ख़्वाब में ख़्वाब नहीं दिखता है।”

 

बेहतरीन शेर –

 

“नींद में ख़्वाब आ गया लेकिन,

ख़्वाब में नींद किसको आती है।”

 

कितना सही मश्विरा दिया है –

 

“ख़्वाबों का इतना बोझ न पलकों पे  लीजिए,

नींदों का ख़ौफ़ आपको हरदम बना रहे।”

 

इसे कहते हैं सौतनी डाह –

 

रात ने आके मेरे कान में चुपके से कहा,

नींद के पास तुम्हें आज न जाने दूंगी।”

 

यक़ीनन –

 

ये हक़ीक़त नहीं, ख़्वाबों का दौर है शायद।

आज का दौर सराबों का दौर है शायद।।”

 

अनुज अब्र वर्तमान पीढ़ी में ऐसे नौजवान शायरों की अग्रणी पंक्ति में मौजूद है जिनमें उर्दू शायरी अपना शानदार भविष्य देखती है। 03 जनवरी, 1970 में बाराबंकी में जन्मे अनुज अब्र हर हालात को अपनी अलग दृष्टि से देखकर उनमें ऐसे कोण निकाल देते हैं कि शायरी के कद्रदानों के मुँह से अनायास ही ‘वाह’ निकल जाता है। उनके रूपक और उपमायें देखते ही बनती हैं। आइये, ख़्वाब पर इस बेहतरीन शायर के कुछ अशआर का मज़ा लेते हैं –

 

जब कभी राह में  रौशनी कम पड़ी, 

ख़्वाब जुगनू मुआफ़िक चमकने लगे।”

 

यह शेर भी देखिये –

 

हार    होगी    निगाह   में   तेरी, 

मैं तो आँखों में ख़्वाब रखता हूँ।

 

इस शेर का क्या कहना –

 

ये आसमाँ का ख़्वाब सरासर फ़रेब है,

तेरी  रिहाई  ही  न  तुझे मार  दे  कहीं।”

 

एक और दिल को छूता हुआ शेर –

 

“तमाम रात का जागा हुआ मुसाफ़िर हूँ,

हज़ार ख़्वाब अभी आँखों में है अनदेखे।”

 

तश्ना आज़मी का जन्म 10 जून, 1970 को आज़मगढ़ में हुआ और ज़िंदगी के कारोबार उन्हें लखनऊ खींच लाये और फिर वे लखनऊ के ही होकर रह गये।। वे एक ऐसे भारतीय शायर हैं जिनके लिये ज़िंदगी का मतलब शायरी और शायरी का मतलब ज़िंदगी है। उनकी शायरी कभी अंगड़ाई लेती हुई, कभी मुस्कुराती हुई, कभी लजाती हुई और कभी दर्द में सिसकियां लेती हुई महसूस होती है। अक्सर उनकी शायरी में तसव्वुरात का पर्सोनीफ़िकेशन अथवा मानवीकरण दिखाई देता है। वे अलग मिजाज़ व लहज़े के शायर हैं। ‘क़ातिल लम्हे’, चाँद की गवाही’ और ‘सदा-ए-फ़िरागाँ’ उनके दीवान हैं।  ख़्वाब पर उनके चंद अशआर देखिये –

 

टूटते टूटते अब आज मिरी आंखों में,

एक ही ख़्वाब मगर वो भी बिखरना चाहे।”

 

और ये भी –

 

मिरी बे ख़्वाब इन आँखों के मन्ज़र बोल पड़ते हैं।

ये चादर बोल पड़ती है, ये बिस्तर बोल पड़ते हैं।

भला कैसे छुपाऊँ अपना ये पुरदर्द अफ़साना,

मैं चुप रहता हूँ तो ग़म के समुंदर बोल पड़ते हैं।”

 

अरविंद असर 10 अगस्त, 1970 को लखनऊ में पैदा हुये। अपनी जीविकोपार्जन हेतु वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं। संजीदा शायरी के पक्षधर हैं और यही कारण है कि उनके अशआर पाठकों व सुनने वालों के साथ-साथ दूर तक सफ़र करते हैं। ‘अंतस’ उनका दीवान है। ख़्वाब पर उनके चंद अशआर देखिये –

 

सिर्फ़ दो-चार नहीं देखे न जाने कितने,‌                                           

मेरी आंखों में भी थे ख़्वाब सुहाने कितने।”

 

और एक यह शेर –

 

दुनिया थी एक ख़्वाब जिसे देखते रहे,                                              

पलकें हुई हैं बंद तो ये जान पाए हैं।”

 

इसका तो जवाब ही नहीं –

 

ख़्वाब तो कुछ और ही थे ज़िन्दगानी के मगर,                       

जी रहे हैं हम जिसे वो ज़िन्दगानी और है।”

 

और यह खूबसूरत शेर भी दिल को छूता है –

 

राम जाने होगा कैसे हाल में,              

ख़्वाब मेरी आंख से बिछड़ा हुआ।”

 

मनीष शुक्ला आधुनिक शायरी की वकालत करते हैं। 24 अप्रैल, 1971 को जन्मे मनीष शुक्ला लखनऊ के बाशिंदे हैं। उनका दीवान ‘ख़्वाब पत्थर हो गये’ ख़ासा चर्चित है। साफ़गोई उनकी ग़ज़लों का ज़ेवर है। ख़्वाब के हवाले से उनका यह शेर आपके हवाले –

 

इक ख़्वाब छन से टूट के आँखों में गड़ गया।

इतना हँसे कि चीख़ के रोना भी पड़ गया।।”

 

सिया सचदेव बरेली से तआल्लुक रखती हैं। आला दर्जे की शायरा है और उनकी शायरी ऐलान करती है कि उन्होंने जिंदगी को बहुत करीब से महसूस किया है। ‘और वक़्त थम गया’, ‘तनहाइयों का रक़्स’ और ‘तसव्वुर टूट जाता है’ आदि उनके प्रमुख दीवान हैं। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

देखा उसे जो ख्वाब में महसूस ये हुआ, 

इक लम्हा ए यक़ीन मिला था उधार में।”

 

फ़रहत नदीम हुमायूँ एक बेहतरीन शायर हैं और न्यूयॉर्क, संयुक्त राज्य अमेरिका में निवास करते हैं। ‘सारे ख़्वाब उसके हैं’ उनका दीवान है। ख़्वाब और ताबीर, दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं। हर ख़्वाब की ताबीर हो, यह ज़रूरी नहीं है। इसी मसले पर उनका यह शेर देखिये –

 

मेरा हर ख़्वाब तो बस ख़्वाब ही जैसा निकला,

क्या किसी ख़्वाब की ताबीर भी हो सकती है।”

 

सईद अहमद एक बेहतरीन शायर हैं। फ़िलहाल इनसे संबंधित तथ्य पर्याप्त रूप से उपलब्ध नहीं है लेकिन इनके अशआर बोलते हुये हैं। ख़्वाब पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –

 

शोरिश-ए-वक़्त हुई वक़्त की रफ़्तार में गुम। 

दिन गुज़रते हैं तिरे ख़्वाब के आसार में गुम।।”

 

‘शोरिश-ए-वक़्त’ का अर्थ है – समय का कोलाहल, एवं ‘आसार’ का अर्थ है – संकेत। 

 

असग़र मेहदी होश जौनपुर, भारत से तआल्लुक रखते हैं। वे ना’त, मन्क़बत, सलाम, मर्सिये और क़सीदे जैसी विधाओं में शायरी की है। ‘अज्र-ए-रिसालत’ उनकी पुस्तक है। ख़्वाबों पर जो आज तक सबसे खूबसूरत औे अर्थपूर्ण शेर कहे गये हैं, यह शेर उनमें से एक है – ऐसा मेरा मानना है। इस शेर को देखने के बाद आप भी मेरी बात को सच ही मानेंगे –

 

टूट कर रूह में शीशों की तरह चुभते हैं, 

फिर भी हर आदमी ख़्वाबों का तमन्नाई है।”

 

अज़ीम हैदर सय्यद का जन्म वर्ष 1971 में हुआ। वे कराची, पाकिस्तान के बाशिंदे हैं। बेहतरीन शायर हैं। ख़्वाब के लिये नींद कोई शर्त नहीं है। ज़रा देखिये तो यह उनका शेर –

 

देने वाले तू मुझे नींद न दे ख़्वाब तो दे, 

मुझ को महताब से आगे भी कहीं जाना है।”

 

नाज़िम बरेलवी एक नौजवान शायर हैं। उनका जन्म 27 जून, 1971 में बरेली में हुआ और वे अपनी शिक्षा व कारोबार के सिलसिले में लखनऊ में ही बस गये। शीघ्र ही उनका पहला दीवान ‘रुदाद-ए-ग़म-ए-दिल’ उनवान से मंज़र-ए-आम पर आने की तैयारी में है। अलग ही अंदाज़ में शायरी करते हैं लेकिन हर बार दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं। ख़्वाब पर उनके कुछ खूबसूरत अशआर से मुलाकात करते हैं –

 

इक हसीं ख़्वाब है इस दौर ए तरक्की़ में वफा़ ।

और इस ख़्वाब को अब ख़्वाब ही रहना होगा ।।”

 

और एक यह शेर –

 

टूटे हुए ख़्वाबों की बिखरी हुई ताबीरें l

यादों की सलीबों पे चुन चुन के चढा़ देना ।।”

 

खुर्शीद रब्बानी का जन्म 1973 में हुआ। वे एक बेहतरीन शायर हैं। वे प्रगतिशील उर्दू शायरी के प्रतिनिधि हैं और उनकी अपनी ही शैली हेै जो उन्हें अपना क़द देती है। ख़्वाब पर उनके कुछ चुनिंदा अशआर आपके लिये –

 

किसी ख़याल किसी ख़्वाब के लिए ‘ख़ुर्शीद,’ 

दिया दरीचे में रक्खा था दिल जलाया था।”

 

और एक यह शेर –

 

“मैं हूँ इक पैकर-ए-ख़याल-ओ-ख़्वाब,

और कितनी बड़ी हक़ीक़त हूँ ।”

 

और यह भी –

 

ख़ुदा करे कि खुले एक दिन ज़माने पर,

मिरी कहानी में जो इस्तिआरा ख़्वाब का है।”

 

‘इस्तिआरा’ का अर्थ है – रूपक।

 

अख़्तर रज़ा सलीमी का वास्तविक नाम मोहम्मद परवेज़ अख़्तर है। उनका जन्म 16 जून, 1974 को हुआ। वे इस्लामाबाद, पाकिस्तान के बाशिंदे हैं। कुछ आँखें ऐसी हैं जिनमें ख़्वाब नहीं हैं तो कुछ ख़्वाब भी ऐसे हैं जो अपने लिये आँखें ढूंढ रहे हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है, ज़रा आप भी तो देखिये –

 

ख़्वाब गलियों में फिर रहे थे और, 

लोग अपने घरों में सोए थे ।”

 

डॉ० तारिक क़मर वर्तमान में भारतीय शायरों की नयी नस्ल में वह नाम है जिससे आने वाले वक़्त को ढेर सारी उम्मीदें हैं। वर्ष 1975 में जन्मे लखनऊ के तारिक क़मर एक पत्रकार है़ं और साथ ही साथ उर्दू शायरी की दुनिया में अपनी मानीख़ेज़ व संजीदा शायरी के हवाले से बहुत मशहूर हैं। ‘शजर से लिपटी हुई बेल’ उनका चर्चित दीवान है। ख़्वाब की कहानी उनके इस शेर में है –

 

वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे।

मैं धूप में हूँ मगर ढूँडते हैं साए मुझे।।”

 

सलीम सिद्दीक़ी का जन्म 1 जनवरी, 1976 को हुआ। ‘तहरीक़-ए-ग़ज़ल’ उनका दीवान है। बेहतरीन शायरी करते हैं। ज़िंदा रहने के लिये ख़्वाब बहुत ज़रूरी हैं। जिन लोगों की आँखों में ख़्वाब नहीं होते, उनके ज़िंदा रहते हुये भी उनकी ज़िंदगी मर जाती है। क्या शानदार शेर है उनका – 

 

अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें।

दोस्तो आओ कि कुछ ख़्वाब दिखाते हैं तुम्हें।।”

 

एजाज तवक्कल, लाहौर, पाकिस्तान से संबंध रखते हैं। इनके विषय में फ़िलहाल अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन जिस प्रकार से हाँडी का एक चावल सारे चावलों के पक जाने की ख़बर देता है, उसी प्रकार ख़्वाब पर उनका यह शेर बताता है कि वे किस बुलंदी के शायर हैं –

 

बहती हुई आँखों की रवानी में मरे हैं। 

कुछ ख़्वाब मिरे ऐन-जवानी में मरे हैं।।” 

 

अहसन यूसुफ़ ज़ई दौलताबाद, भारत के शायर हैं। कमाल की शायरी करते हैं। यदि यह कहा जाये कि ख़्वाब पर सबसे असरदार अशआरों में से यह शेर एक है तो यह ग़लत न होगा –

 

नींद को लोग मौत कहते हैं,

ख़्वाब का नाम ज़िंदगी भी है।”

 

काशिफ़ हुसैन ग़ाएर का जन्म वर्ष 1979 में हुआ। वे कराची, पाकिस्तान के रहने वाले हैं और उनका शुमार पाकिस्तान की नई पीढ़ी के एक प्रतिष्ठित शायर के रूप में होता है। ‘जब तक ख़्वाब नहीं आँखों में, इन आँखों का सोना क्या’ की तर्ज पर क्या खूबसूरत शेर निकला है उनकी कलम से –

 

कल रात जगाती रही इक ख़्वाब की दूरी, 

और नींद बिछाती रही बिस्तर मिरे आगे।” 

 

अहमद शहरयार का मूल नाम सय्यद अहमद हुसैन है। उनका जन्म 25 जून, 1983 को क्वेटा, बलूचिस्तान (पाकिस्तान) में हुआ और वे कालांतर में ईरान में बस गये। रातों में ख़्वाब अपनी आरामगाहें ढूंढते हैं। क्या खूबसूरत शेर कहा है –

 

रातों को जागते हैं इसी वास्ते कि ख़्वाब,

देखेगा बंद आँखें तो फिर लौट जाएगा।”

 

अमिताभ दीक्षित में कला त्रय है अर्थात वे साहित्यकार भी हैं, चित्रकार भी हैं और संगीतज्ञ भी हैं। इसके अतिरिक्त वे एक फ़िल्ममेकर भी हैं। वे दिल की गहराई से लिखते हैं और जो लिखते हैं उसे बक़ायदा जीते भी हैं इसलिए उनके सृजन में कभी ‘करनी’ व ‘कथनी’ के बीच कोई अंतर नहीं दिखाई देता है। आइये, उनके ख़्वाब पर कुछ अशआर देखते हैं –

 

ख्वाब आये हैं लिए तन्हाई,      

ज़र्रा ज़र्रा बिखर गया यारों।”

 

और एक यह शेर –

 

रात है हसरतों के नाम का एक और सफर।  

ये मेरा ख्वाब है या तेरी मुहब्बत का असर।।”

 

और एक शेर यह भी –

 

आँखों में थे ख्वाब सुनहरे अच्छे कल के।

सारे सपने सिमटे बन कर आँसू ढलके।।”

 

अपर्णा सेठ उभरती हुई शायरा हैं और हरदोई से ही वाबस्ता हैं। ज़िन्दगी की हक़ीक़त को बेहतर ढंग से समझती हैं और उनकी यही समझ उनकी शायरी का शबाब हेै। ख़्वाब पर उनका यह शेर देखिये –

 

ख्वाब तो ख्वाब है लफ्जों मे बयां कैसे करें,

काश बन जाती मेरे ख्वाबों की तस्वीर कोई।”

 

पुष्पेन्द्र पुष्प का जन्म 01 जुलाई, 1985 को हुआ। वे  उरई (जनपद जालौन, उत्तर प्रदेश) में रहते हैं और धारदार शायरी करते हैं।  वे सादगी भरे अंदाज़ में गहरी बात रखने का हुनर जानते हैं। ख़्वाब व नींद का गहरा रिश्ता है। ‘वादा तो कर गया कि वो आयेगा ख़्वाब में, लेकिन वो अपने साथ में नींदें भी ले गया’ की तर्ज़ पर ख़्वाब पर क्या खूबसूरत शेर निकला है उनकी कलम से –

 

मुझे भी नींद न आने की शिकायत है बहुत,

उसे भी ख़्वाब में आने की बड़ी जल्दी है।”

 

राज तिवारी नौजवान शायर हैं जिनका जन्म 14 अक्टूबर, 1997 को उमरिया, मध्य प्रदेश में हुआ तथा वर्तमान में वे कोतमा, अनूपनगर, मध्यप्रदेश में रहते हैं । बेहतर ढंग से बात कहने का फ़न है उनमें। उनकी शायरी यह यक़ीन दिलाती है कि शायरों की यह नस्ल भविष्य में उर्दू शायरी को बहुत कुछ देने वाली है। ख़्वाब पर उनका यह शेर उनके क़द का अंदाज़ा खुद देता है –

 

ख़्वाब है या है हक़ीक़त नहीं चलता मा’लूम,

खींच कर ये कहाँ लायी है हमें बेध्यानी।”

 

सच कहा जाये तो जिंदगी का दूसरा नाम ख़्वाब ही है। हमारे ख़्वाब ही हमें जिंदा रखते हैं और साथ ही साथ, ख़्वाबों को देखने के लिये भी जिंदगी चाहिये क्योंकि मुर्दा आँखें कभी कोई ख़्वाब नहीं देखतीं। हर व्यक्ति भले ही इस संसार का बहुत ही छोटा सा हिस्सा हो लेकिन हर व्यक्ति का अपना खुद के सपनों का संसार है। उसे इस हक़ीक़ी संसार में चाहे जिस तरह का जीवन गुज़ारना पड़े लेकिन वह अपने ख़्वाबों की दुनिया का बादशाह होता है। देखा न आपने, कितना खूबसूरत रिश्ता है ज़िन्दगी और ख़्वाब के बीच।

 

ख़्वाब उन आँखों में भी होते हैं जिनमें ईश्वर रोशनी देना भूल जाता है। अक्सर लोग कहते हैं कि दिल का धड़कना ज़िंदा होने का सबसे प्रत्यक्ष सुबूत है लेकिन मैं मानता हूँ कि आँखों में ख़्वाब का होना ही ज़िन्दगी का सबसे बड़ा साक्ष्य है क्योंकि जिन लोगों के ख़्वाब मर चुके हैं, वे अपने सीने में अपना धड़कता दिल रखते हुये भी मर चुके हैं।

 

ख़्वाबों का अफ़साना कभी पूरा नहीं होगा। यह वो रात है जिसकी कोई सुबह नहीं। मैं अगर ख़्वाबों के इस शानदार सफ़र को यहाँ समाप्त भी करना चाहूँ तो भी यह सफ़र कभी नहीं रुकेगा। हमारी आने वाली हज़ारों नस्लें अपनी आँखों में ढेर सारे हसीन ख़्वाब लिये अपने जन्म की प्रतीक्षा कर रही हैं जो शायद आज खुद हमारे लिये ख़्वाब हैं।

 

मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि फिलहाल कुछ समय के लिये इस खूबसूरत सफ़र को रोकते हैं और ज़िन्दगी और ख़्वाबों की बेमिसाल जुगलबंदी का लुत्फ़ उठाते हैं। 

 

चलते-चलते ख़्वाब पर दो-एक मेरे अशआर भी आपकी नज़र –

 

तुझसे पिछला हिसाब और भी है।

ख़्वाब में एक ख़्वाब और भी है।।”

 

और एक यह शेर –

 

“तुम्हारे ख़्वाब को अब रट लिया है आँखों ने,

बदल बदल के मैं अब ख़्वाब देखने से रहा।”

 

-तरुण प्रकाश श्रीवास्तव

 

 

 

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